-पवित्रा भंडारी
एक मई यानी मजदूरों का दिन ,इस दिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजदूर दिवस मनाया जाता है। इस दिन के पीछे मज़दूरों के संघर्ष का पूरा इतिहास है। इस इतिहास की शुरआत मई सन् 1886 को शिकागो में शुरु हुई और तब से आज तक 1 मई को अंतराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रुप में दुनिया भर में श्रमिकों के बीच मनाया जाने लगा है। मज़दूर दिवस वह दिन है जिसमें मज़दूरों के बल दुनिया को बदल देने की गाथाएँ सुनी जाती है। पिछले 124 वर्षो से चले आ रहे इस प्रचलन में कई उतार चढाव आए और दुनियाभर के मेहनतकशों की एकजुटता और सवालों को लेकर कई कार्यक्रम होते रहे ।
आज मज़दूर दिवस महज़ एक औपचारिकता बन कर रह गई है। हर बार की तरह इस बार भी इसकी केवल औपचारिकता पूरी की जाएगी। इस बार भी मज़दूरों के कल्याण का राग अलपाने वाली पार्टियाँ कई नए वायदे सुनाएगी जो खोखले होंगे।
हमारी आबादी का 40 प्रतिशत भाग श्रमिकों का है । इन श्रमिकों की जी तोड़ श्रम का न तो पर्याप्त पारिश्रमिक इन्हे मिल पाता है और ना ही सामाजिक संरक्षण ।विकास की ओर अग्रसर भारत में विकास का लाभ यदि इन श्रमिकों को प्राप्त नहीं हो रहा है तो किसे प्राप्त हुआ है यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस परिपेक्ष्य में एक और प्रश्न यह उठता है कि मज़दूर दिवस उन मज़दूरों को क्या आश्वासन देगा जहाँ उत्पादन क्षेत्र में लूट खसोट के लिए उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने या बाज़ार के हवाले किया जा रहा है।
आज हमारे देश की सौ करोड़ जनसख्या में से 40 करोड़ जनसंख्या श्रमिक वर्ग के अंतर्गत आती है । इन 40 करोड़ श्रमिकों को दो प्रमुख भागों संगठित और असंगठित श्रमिको में बाँट दिया गया है। इन 40 करोड़ में से केवल 3 करोड़ श्रमिक संगठित क्षेत्र में कार्यरत है जिन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त है। दुर्भाग्य की बात यह है कि 37 करोड़ श्रमिक जो असंगठित श्रमिको कि श्रेणी में आते है उन्हें किसी प्रकार का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है।
आज असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा की चिंताएँ बढ़ती जा रही हैं। सरकारी तंत्र ने असंगठित श्रमिकों को और अधिक दयनीय बना दिया है। सरकार के दमनकारी योजनाओं के कारण 24 करोड़ श्रमिक आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे है आज भी मज़दूर वर्ग, मकान,स्वास्थ्य ,शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। असंगठित श्रमिको के सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए सरकार कोई कारगर योजना नहीं बना रही है। इनकी सुरक्षा हेतु सरकार को श्रमनीति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को असंगठित श्रमिकों को कानूनी मान्यता देकर राष्ट्रीय श्रम शक्ति को मजबूत बनाना होगा।
वहीं दूसरी तरफ औद्यौगिक श्रमिकों की समस्याओं की अगर बात की जाए तो आर्थिक समस्याऐ मुख्य हैं,जिसके परिणाम स्वरुप ही पारीवारिक ,सामाजिक समस्याओं का निर्माण होता है।इनकी अनेक समस्याओं में प्रमुख हैं, श्रमिकों का निम्न जीवन स्तर,उचित स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव , भविष्य के प्रति अनिश्तिता ,सुरक्षा व्यवस्था का अभाव आदि।इन समस्याओं के उचित समाधान से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होगा ,जिसके परिणाम स्वरुप की कार्य क्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि होकर एवं आर्थिक विकास तीव्र गति से हो सकता है।
देश मे श्रम कानूनों की अगर बात की जाए तो यह कहा जा सकता है कि श्रमिक वर्ग के हितों के लिए श्रमिक कानून तो बना दिए गए हैं पर ये एक कोरी कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सरकार की दोषपूर्ण श्रमनीति के चलते आज श्रमिक उपेक्षित हो रहे हैं, निर्माण ,भारी निर्माण, वितरण परिवहन एवं अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थायी व अस्थायी रुप से कार्यरत अनेक श्रमिक घोर उपेक्षा से त्रस्त हैं।
मजदूर वर्ग मजदूरों की दयनीय स्थिति को सुधारने में मजदूर संगठनों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लेकिन आज मजदूर या श्रमिक संगठनों का आंतरिक लोकतंत्र बिगड़ चुका है ना तो श्रम संगठन के आय व्यय का सही ब्यौरा रहता है और ना ही सदस्यता शुल्क का। चुनाव भी समय पर नहीं होते इन सब के बीच अगर कोई पिसता है तो वह है मजदूर । मजदूरों के हकों का दमन और उनके शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए ऐसे संगठनों का होना नितांत आवश्यक है जो मजदूरों की रोटी के लिए लड़ते हों।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मज़दूर दिवस के नाम पर केवल मंच सजाने और मजदूरों को इकट्ठा करने से काम नहीं चलेगा।सरकार को चाहिए कि श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा और विकास के लिए बेहतर योजनायें और श्रम कानून बनायें। इन श्रम कानूनों का प्रभावशाली ढ़ंग से क्रियान्वयन किया जाय और समय – समय पर इनकी समीक्षा भी की जाए,न केवल सरकार बल्कि पूँजीपति वर्ग, मजदूर संगठनों एवं मीडिया का कर्तव्य है कि श्रमिकों को उनके अधिकार दिलाने के लिए आगे आयें।
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