माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Monday, April 19, 2010
घटनाएं जो भूलती नहीं
-अंशुतोष शर्मा
यूं तो घटना होती रहती है कुछ घटनायें भुला दी जाती है तो कुछ घटना छोड़ जाती है अपनी छाप सवाल। सवाल ये कि क्या जो लोग योजनायें बनातें हैं वो उन्हें क्रियान्वित भी करवाते हैं? कई सवालों से घिरी यह घटना कोई कोरी कल्पना नहीं अपितु तस्वीर है उस भारत को जहां सिर्फ योजनायें बनतीं हैं और उन पर होती है कोरी कागजी कारवाई। घटना वैसे तो कोई बड़ी नहीं थी पर सरकारी योजनाओं की पोल खोल रही थी।
घटना क्या थी और कितनी मार्मिकता भरी धी, ये तो आप लोग ही निश्चित कर सकेंगे.त यूं तो मैं रोज ही विश्वविद्यालय से घर को लौटता हूं। किंतु आज का दिन कुछ सवाल और कुछ दर्द मेरे दिल पर छोड़ गया। शाम को देखा तो एक 6 साल की लड़की अपने उम्र से ज्यादा ही जोखिम भरे करतब दिखा रही थी और करतब भी ऐसे कि रुह कांप जाए।
अपनी ऊंचाई से भी कई गुना ऊंची तनी रस्सी पर इस अबोध बालिका का चलना इसकी मजबूरी और गरीबी को दर्शा रही थी। सोचा पूछ लूं कि वो क्यों ऐसा कर रही है , जिस उम्र में पढ़ने का जज्बा, खेलने की उमंग और हसीन सपने देखे जाते हैं। वहीं इतना जोखिम क्यों तो उसका जबाब मेरी ऑखों को रुला गया उसका जबाब था “साहब ये सब ना करेंगे तो इस पेट को कैसे भरेंगे” ये सुना तो सोचा इतनी सी बच्ची और इतनी ब़ड़ी सोच, उसके साथ आए उसके भाई से पूछा कि तुम इससे क्यों करा रहे हो तो उसका जबाब था “साहब बच्ची को देखकर ज्यादा कमाई होती है”।
सोचता हूं कि जब सरकार इतना काम कर रही है तो ऐसे में ये बच्चे कहां छूट जाते हैं और योजनायें बनती भी हैं तो फिर किन व्यक्तियों के लिए। बजट में करोड़ो रुपये बीपीएल और ऐसे बच्चों के लिए होते हैं तो वो कहां चले जाते हैं और उनका उपयोग होता क्यों नहीं है।
फिर मुझे ध्यान आई मध्य प्रदेश सरकार की लाड़ली योजना की जो बनाई गई है , ऐसे ही बच्चों के लिए जो असमर्थ है शिक्षा प्राप्ति के लिए पालन, पोषण के लिए यह शायद ये योजनायें कागज पर ही संवर कर रह गई।
जब सरकार ऐसी योजनायें भलीभांति चला बना नहीं सकती तो बनाती ही क्यों है शिक्षा का अधिकार शिक्षा मिले पर कितने बच्चों को शिक्षा मिल रही है, ये कौन तय करेगा। सदन में पास हुए बिल में प्राईवेट संस्था में 25 प्रतिशत सीटें ऐसे बच्चों के लिए है पर 75 प्रतिशत बच्चों का क्या होगा. सरकार जो पैसा इन बच्चों के लिए रखती है वो खर्च हो गए , फिर पैसा गया तो कहां गया???ऐसे लोगों को अधिकार नहीं पैसा चाहिए, पेट को निवाला चाहिए ताकि वो चैन से सो सके। सड़क किनारे चल रहा ये तमाशा जो लोग भी देख रहे थे, जो सामाजिक सुधार लाने को इच्छुक हैं। ऐसे में निगाहें खोज रही थी ऐसे समूह को जो वैलेंटाइन ड़े के विरोध में सड़कों पर आतंक मचाते हैं पर ऐसे लोगों की सहायता में उनके ये हाथ और जोश ठंड़ा क्यों हो जाता है। गरीबी और अशिक्षा के चलते न जाने कितने ही मासूम अपनी भूख मिटाने और मजबूरी के चलते ऐसा जोखिम उठा रहे हैं, पर हमारी सरकार अंधी बनी हुई है। सरकारी अफसरों को चाहिए कि वो आंकड़ो पर न जाकर क्षेत्रों में जाए और देखे कि योजनाओं की क्या स्थिति है और कौन-कौन लाभ की प्रतिक्षा में है। यदि इसी तरह मासूमों की स्थिति रही तो अब्दुल कलाम के 2020 का सपना सपना ही रह जायेगा।
अब सोचना है कि ऐसी योजना बनाने का क्या लाभ जिनके असली हकदार ये जानते ही नही कि उनके लिए सरकार ने कोई योजना चला भी रखी हैयय आखिर इन छूटे हुए बच्चों पर कब ध्यान जायेगा यह देखना बाकी है। "अब बारी है आपकी" सोचने व समझने की और सरकार को चेताने की कि स्थिति क्या है और कितनी ज्वलंत है।
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bhai sahab likhane k bad ek bar padh v liya karo
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