Monday, April 12, 2010

यह दर्द लाईलाज


-देवाशीष मिश्रा,एमए-मासकाम- सेकेंड सेमेस्टर
छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले के जंगल में 76 जवानों की दर्दनाक मौत हो जाती है। मौत का ऐसा मंजर की रूह काँप जाये। मारने वाले का एक लक्ष्य कोई भी जिन्दा न बच पाये। मारने के लिए योजना इतनी कारगर की पहले बारूदी सुरंग से उड़ाया, फिर दर्जनों ग्रेनेड और हथगोलों से हमला, फिर भी कोई जवान बच कर पेड़ की आड़ ले तो प्रेशर बम और इन सब के बीच चारों तरफ से गोलियों की बारिश। क्या होगी स्थिति वहाँ की? क्या आप खुद को वहाँ रखकर सोच सकते हैं? हमले के बाद बची चंद साँसों का अपनों से बात करने के लिए घर पर फोन करना। कुछ ने सिर्फ हैलो सुना तो कुछ बिना कुछ कहे बिछड़ गये। दंतेवाड़ा की वह जगह सिर्फ 76 जिन्दगियाँ को नही मारा बल्कि दे गयीं हजारों दर्द, बेवा के रूप में, अनाथ के रूप में, तो कहीं बूढ़ी आँखों का सहारा छीन कर। वे ले गयीं परिवार के अनमोल सदस्य को। ये सभी जवान आम भारतीय थे। वे किसी सम्भ्रान्त परिवार से नही थे। जिन्दगी की जद्दोजहद को पार कर मुश्किल से नौकरी पाये थे सी. आर. पी. एफ. की, अपने जीवन को सँवारने के लिए, अपने माँ-बाप का सहारा बनने के लिए, अपनी बहन की शादी करने के लिए, अपनी बीवी को खुशियाँ देने के लिए, बच्चों का अच्छा भविष्य देने के लिए और ना जाने क्या- क्या। ये सारी खुशियाँ और अशायें अब हैं ना बर्दाश्त कर सकने वाला गम के रूप में।
नक्सलवाद ! यह शब्द मैं बचपन से सुनते आ रहा हूँ। मैंने जब नक्सलवाद के बारे में पढ़ा तो दर्द छलक उठा उन हजारों, लाखों आदिवासियों के लिए जिन पर सामंतवादी विचारधारा ने शोषण किया था। किसी भी व्यक्ति को यह अधिकार नहीँ की वह किसी का शोषण करे। हर शोषण के खिलाफ अवाज उठनी चाहिए। लेकिन शोषित वर्ग का चेहरा लिए ये नक्सली जवानो की हत्या करके क्या साबित करना चाहते हैं? मारे गये जवान भी उनकी तरह आम भारतीय थे। आखिर क्या कारण है कि आज एक भारतीय दूसरे भारतीय पर विदेशी हथियार ताने खड़ा है? मौत किसी की भी हो पर मरेगा एक भारतीय ही। आश्चर्य होता है कि जिन नक्सलियों को शोषित, प्रताड़ित और गरीब बताया जाता है उनके पास अत्याधुनिक विदेशी हथियार मिलते हैं।
यह बात है केवल नक्सलवाद की। भारत के और भी रूप हैं। एक ओर हमारे देश की आधी से भी ज्यादा जनसंख्या जब सुबह उठती है तो उसे यह पता नही होता की शाम को भर पेट खाना मिलेगा या नहीं तो दूसरी ओर हमारी मुख्यमंत्री करोड़ों रुपये का हार पहन कर अपना गुण गान करवाती हैं बिना झिझक के कि उस में लगे हजार-हजार के नोट के लिए करोड़ों जनता भूखी मर रही है। इसके साथ ही दूसरी मुख्यमंत्री कॉमनवेल्थ गेम के नाम पर करोड़ो रुपये टैक्स के रूप में वसूल रही है। गरीबी हटाओ की जगह गरीब हटाओ नारा हमारी राजधानी सरकार को ज्यादा पंसद आ रहा है। महाराष्ट्र में समय-समय पर मनसे और शिवसेना को मराठी होने का गर्व जाग जाता है ( इस नैतिकता के नाम पर वह न जाने कितने रुपये की हानि और भय का माहौल पैदा कर देते हैं ), और इस गंदी राजनीति में उन महान खिलाड़ियों और कलाकारों को भी निशाना बनाया है जिन पर हर भारतीय गर्व करता है। तेंलगाना नामक अलग राज्य बनाने के लिए जिस तरह आंध्रप्रदेश में उठा पटक चल रही है उसे देखकर लगता है कि भारत में सूझबूझ कर निर्णय लेने व सही रास्ता निकालने वालों का अकाल पड़ गया है या फिर वे लोकतंत्र पर से विश्वास खो बैठे हैं। यही बात कमोबेश नक्सलवाद पर भी लागू होती है। जम्मू-कश्मीर की अपनी अलग कहानी है, और उस कहानी के पात्र के रूप में हमारे लाखों सैनिक अमानवीय परिस्थितियों में भी सजग होकर भारत की सुरक्षा के लिए दिन रात जाग रहे हैं। अगर इन सैनिकों की गिनती की जाए तो सबसे ज्यादा हिन्दू सैनिक होंगे लेकिन जब यही हिन्दू तीर्थयात्री के रूप में कुछ माह के लिए निश्चित भूमि का सहारा जम्मू-कश्मीर में चाहता है तो सरकारें बदल जाती हैं। इन्ही सैनिकों में हमारे मुसलमान भाई भी होते हैं, लेकिन जब यही मुसलमान वर्दी उतार कर दाढ़ी बढ़ाकर दुनिया मे कहीं भी जाता है तो उन्हे संदेह की दृष्टि से देखा जाता और सुरक्षा के नाम पर अतिरिक्त जाँच की जाती है।
इन सभी केन्द्रीय, राजकीय, शासकीय, सामाजिक समस्यायों के अलावा बात की जाए तो दिक्कतें और भी हैं। जिनकी चर्चा करुँ तो बात बहुत लम्बी हो जायेगी। भुखमरी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भष्ट्राचार, दहेज आदि ऐसे बहुत से दानवी शब्द हमारे समाज में मिल जायेंगें जो अकेले ही किसी भी जिन्दगी को तबाह करने में पल भर की देरी नहीं करते। इसके अलावा चोरी, तस्करी और नशीली चीजों ने युवाओं को ही बल्कि पूरे समाज को खोखला कर दिया है।
आखिर क्या कारण है कि भारत में ये समस्यायें जन्म लीं और पली बढ़ी? व्यक्तिगत स्वार्थ, उपभोक्तावाद संस्कृति, सत्ता सुख, जातिवाद, आर्थिक विषमता, बाहरी विदेशी शक्तियाँ, असुरक्षा की भावना आदि ऐसे बहुत से कारण मिलते जब हम इन समस्याओं पर विचार करते हैं। ऐसा नहीं कि ये सब समस्यायें भारतीय समाज में पहली बार हुयीं हैं। निश्चित है कि जब तक मानव है, समाज है तब तक कमियों और समस्यायों का आना जाना लगा रहेगा। समाज की इकाई हम मनुष्य ही हैं और जब एक मानव खुद को कमियों से बचा नहीं पाता तो उसका असर समाज पर दिखने लगता है। और ऐसा भी नहीं की सब कुछ गलत ही हो रहा है या सबकुछ खत्म होने वाला है। इतिहास गवाह है कि समाज और देश में कमियाँ आती रही हैं और दूर भी होती गयीं हैं। चाहे वह देश को आजाद कराने की बात हो या आजादी के बाद देश के विकास की, हम आगे बढ़ते गये हैं ,लेकिन दिल में कहीं टीस उठती है कि हम आज भी मानवीय मूल्यों को पूरी तरह अपना नहीं पाये हैं। क्योंकि अगर ऐसा होता तो कोई भारतीय भूख से नही मरता, कोई दुल्हन दहेज के लिए जलायी नहीं जाती, पूरी दुनिया का पेट भरने वाला किसान आत्महत्या नही करता, देश का हर बच्चा अपने बचपन को जीता, सभी के लिए रोजगार होता और कोई नक्सली बनकर नरसंहार न करता।

2 comments:

  1. बहुत ही उंदा शब्द चित्र।
    देबू(देवाशीष)के लेखन में हमेशा स्पष्टता एवं तटस्थता बनी रहती है।
    सारगर्भित और संक्षेप लेख।
    जारी रहे........

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  2. Well Written Devashish. Keep up the good work.

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