Friday, April 30, 2010

बहुत खास है हास्टल लाइफ


- नूपुर सक्सेना, एमए- मासकाम- सेकेंड सेमेस्टर

बचपन से ही मां के आंचल से जुड़े रहने के बाद जब मां का पल्लू छोड़ने का वक्त आता है, तो बच्चे, मां और घरवालों की यादों को समेटे हुए ,मन में मां-बाप का सपना पूरा करने की चाह लिए निकल पड़ते हैं,एक अंजानी ज़िन्दगी जीने के लिए। एक ऐसी जिन्दगी जिसमें हमें अलग-अलग लोग, परिस्थिति और अनजाने लोगों से मुलाकात होती हैं। जिसे युवा पीढ़ी की लाइफ में कहा जाए तो ‘हास्टल लाइफ‘। हां जब बचपन में स्कूल की पढ़ाई के बाद हास्टल का समय आता है, तभी हमें मौका मिलता है, अपनी असल जिन्दगी को जानने का, समाज की गतिविधियों को समझने का, अच्छे बुरे की पहचान करने का, अपने आप को समाजिकता में पिरोने का और सबसे अहम अपने घरवालों की भावनाओं, उनके प्यार व उनके सपनों को साकार करने का।
खैर हास्टल का भी अपना एक अलग मजा है, लेकिन अगर आप हाॅस्टल की जिन्दगी में रंग भरना चाहते हैं तो उसके लिए कायदा बहुत जरूरी है। घर से बाहर जाने के पहले सब के मन में सवालों की बौछार उठने लगती है, खासकर अगर बात लड़कियों के बाहर रहने की हो तो, लेकिन उन सवालों का जवाब उन्हें घर की चैखट पार करते ही मिल जाता है। शायद आपके मन में हास्टल को लेकर एक डर समाया हुआ हो या हो सकता है कि आपने अपनी एक छोटी सी दुनिया पहले से ही सजा रखी हो। डर के नाम पर सबसे पहले रैगिंग ही दिमाग में आती है। पता नहीं हास्टल में कौन कैसा होगा? कैसी लड़कियां होगी? क्या अच्छे दोस्त बन पाएगें या नही?ऐसी बहुत सी बाते है जो हास्टल में आने से पहले एक बार ज़हन में जरूर आती है।
शुऱूआती दौर में ऐसा लगता है जैसे हजारों आजाद पंछियो में एक पंछी घुट-घुट के जी रहा हो, लेकिन बाद में वह पंछी भी उन्ही की तरह उड़ान भरने लगता हैं, क्योंकि वह भी उन्ही में से एक की श्रेणी में आ जाता है। खैर ये तो कुछ शुरूआती दौर थे, लेकिन हास्टल लाइफ के पल बेहतरीन पलों में गिने जाते हैं। हास्टल में रहकर हम जो सीखते है वो शायद हम अपने घर पर रहकर नहीं सीख पाते। जीवन को जीने की राह सीखा देती है ये लाइफ। हास्टल मे जाने पर बहुत से लोग मिलते है, जिनमें कुछ दोस्तो की लिस्ट में षामिल हो जाते है, तो कुछ अपने-परायो में। हास्टल में रहकर हमें बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, जिन्हें कभी-कभी हम अपने घरवालों के साथ नहीं बाट सकते। शायद मन में ख्याल लिए की छोटी-छोटी बातों के लिए घरवालों को क्यों परेशान किया जाए। इन्हीं छोटी-छोटी मुश्किलों से हमें हौसला मिलता है और यहीं पर आकर हम दूसरों पर न निर्भर होकर खुद पर निर्भर होते है। अब हर जगह न ही घर जैसा दुलार मिलता है और न ही स्वाद भरा खाना। कभी मां के हाथ का स्वादिष्ट खाने की याद आती तो कभी घर की वह मीठी नींद क्योंकि मिल नहीं पाती यहां बिन बत्ती की नींद। पर इन्हीं पलों से सीखा एडजेस्टमेंट की चिड़िया का नाम हमने। एक ऐसा अनुभव जिसे हमने अक्सर अपने घर में रहते हुए अपनाने से इनकार कर दिया, क्योंकि वहां हमारी बातें मानने के लिए घरवाले जो बड़प्पन दिखाने को तैयार रहते थे।
इस पर माखनलाल विश्वविघालय की छात्रा पवित्रा भण्डारी का कहना है कि आम ज़िन्दगी तो हर कोई जीता है लेकिन असल ज़िन्दगी का सामना हमें घर से बाहर रहकर बिना घरवालों का आसरा लिए ही समझ आता है। मेरे हिसाब से तो हास्टल के दिन सबसे अच्छे दिन होते है। जिसमें मुश्किलो और खुशियों दोनो बराबर की भागीदारी होती हैं।
वहीं दूसरी ओर ज्योति हास्टल मे रहनी वाली शिल्पा को घर का खाना बहुत याद आता है, लेकिन इन्ही खट्टठे-मीठे अनुभवों को दोस्तों के साथ बांटना बहुत अच्छा लगता है। इनका कहना है कि दोस्तों के लिए छोटी-छोटी बातों पर काम्प्रमाइज करना बहुत अच्छा लगता है। दोस्त भी वो जिनको सिर्फ उनकी पढ़ाई और चेहरे से पहचानते है, उनका न तो इतिहास का पता होता है और न ही परिवार वालों का कोई परिचय। सचमुच ज़िन्दगी का यह अनुभव जहां अपने साथ कई खट्टे-मीठे पलों को समाये होते है, तो वहीं आने वाली ज़िन्दगी में अपने-अपने पैरों पर खड़े होने में भी मददगार साबित होता है।

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