Friday, April 30, 2010

खो रहा है बचपन

- अन्नी अंकिता
हमारे नेताओं के शब्दों में बच्चों को देश का भविष्य कहा जाता है। बच्चे हमारे देश के भविष्य हैं। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि आने वाले भारत की तस्वीर किसी को भी डरा सकती है। हर साल चाचा नेहरू के बच्चों को, “नई सुरक्षित दुनिया, नया सपना’’ देने का वादा किया जाता है लेकिन हकीकत में बचपन पर तेजी से खतरा मंडरा रहा है।

वर्षों से बाल श्रम हमारे समाज में एक बुराई के रूप में कायम रहा है। देश में बड़ी तादाद में बाल मजदूर हैं। कोमल बचपन को श्रम की आग में झोंक देना किसी भी सभ्य समाज के लिए शर्मनाक बात है। बाल श्रमिक एक अदृश्य गुलाम की तरह जीवन जीते हैं लेकिन अपने खिलाफ होनेवाले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं।

रोडवेज, बस-स्टैण्ड, रेलवे, सब्जी-मण्डी सिनेमा हॉल आदि नगरों-महानगरों सार्वजनिक स्थानों के आस-पास कूड़े-कचड़े चुनते मिल जाएंगे। ये बच्चे नहीं जानते कि स्कूल किस चिड़िया का नाम है। इन्हें बचपन से ही श्रम की ओर धकेल दिया जाता है। 1 अप्रैल को शिक्षा बिल पास हुआ जिसमें कहा गया है 6 से 14 वर्ष तक सभी बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान की जाएगी। बिल पास होने के बावजूद भी ये बच्चे शिक्षा से वंचित हैं । पटाखे उघोग, बीड़ी उघोग, आभूषण उघोग में बच्चे बंधुआ मजदूरी कर रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में तो गेहूँ, धान और गन्ने की बुवाई-कटाई के समय स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति 20-30 प्रतिशत रह जाती है। खेतो में मजदूरी करने के लिए अभिभावक ही उन्हें अपने साथ ले जाते हैँ।

बाल-श्रम इन बच्चों से इनका बचपन छीन रहा है। बैग टांग कर स्कूल जाना, खेलना और अपनी पसंदीदा चीजें खाना, दोस्तों के साथ मस्ती करना इनकी कल्पना में ही रह जाता है। बाल-श्रम के कारण बच्चों में समय से पूर्व ही ऐसी कई बीमारियाँ हो जाती हैं जिन्हें सारी उम्र उन्हें सहना पड़ता है। कूढ़े के ढेर से इन्हें कई संक्रामक रोग हो जाते है। वे कब बचपन से जवानी की दहलीज पर पहुँच जाते है उन्हें पता ही नही चलता। यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि इन बच्चों को श्रम कार्यों में इनके अभिभावक ही धकेलते हैं। काम में जरा सी भी देर हुई कि इन्हें अपने मालिकों से माँ , बहन से संबंध जोड़ने वाली गालियों के साथ पुकारा जाता है। इस स्थिति में इनका गुस्सा होना लाजमी है, जिसके चलते ये धीरे-धीरे नशे की ओर झुकने लगते है ओर जानलेवा नशीली पदार्थों का सेवन करने लगते हैं।

पिछले साल महाराष्ट्र सरकार द्वारा दिए गए हलफनामें की सुनवाई के दौरान सरकार ने कहा था कि 2010 तक राज्य से बाल मजदूरी पूरी तरह खत्म कर दी जाएगी। परन्तु, आज बाल-श्रम दिन प्रति बढ़ता जा रहा है और शिक्षा का अधिकार बिल को इससे जोड़ने की कोई पहल नहीं की जा रही है। अधिकतर बाल मजदूर बिहार, झारखण्ड, छतीगढ़ से बड़े शहरों में आते हैं जहाँ इनका जबरदस्त शोषण होता है। यह सब सरकार और प्रशासन के नाक तले होता है लेकिन उदासीन तंत्र आंख मूंदे यह देखता रहता है। इन्हे आए दिन प्रताड़ित किया जाता है पर गरीबी के कारण ये आवाज नहीं उठाते और प्रताड़ित होते रहते हैं।

बाल श्रमिकों की रक्षा के लिए श्रम कानून बनाया गया है पर इसे लागू नहीं किया गया है यह केवल कागजों पर ही तैयार किया गया है। आज समाज को बाल अधिकारों का सम्मान करना चाहिए। लोगों को यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि बच्चों का काम मजदूरी करना नहीं, बल्कि पढ़ाई है। अगर वाकई समाज भविष्य के प्रति संजीदा है तो सामाजिक माहौल को सुधारना ही होगा।

इस जंग में जीत कमजोर की होगी



सूचना प्रौद्योगिकी से धबराने नहीं उसे अपनाने की जरूरत
-संजय द्विवेदी


मैने एक अखबार में एक पाठक का पत्र पढा उसकी नाराजगी इस बात पर थी कि इस बार नेट परीक्षा के फार्म आनलाइन क्यों बुलाए जा रहे हैं। उसने जो तर्क दिए वे अचंभित कर देने वाले थे। यानि जो लोग उच्चशिक्षा में शिक्षक या शोध जैसी गतिविधियों से जुड़ेंगें वो आनलाइन फार्म भरने में भी हिचक रहे हैं। पाठक का तर्क था यह बात गरीबों और पिछड़ों के खिलाफ है। बात कुछ भी हो रही हो हमारे विलापवादी संस्कार हमारा पीछा नहीं छोड़ते। सूचना प्रौद्योगिकी को लेकर भी हमारे यहां कुछ वर्गों में अनवरत विलाप जारी है। यहीं बददिमागी हमारे कुछ बुद्धिजीवियों में व्याप्त है। सूचना की ताकत को स्वीकारने के बजाए वे इसमें साम्राज्यवादी ताकतों का षड़यंत्र पढ़ रहे हैं, देश की गुलामी और बदहाली का खतरा सूंघ रहे हैं। उनके तर्क भी अजीब हैं- गांवों तक सड़क, पानी, बिजली यहां तक रोटी नहीं तो कम्प्यूटर क्यों ? दरअसल ये विमर्श आज के संदर्भ में बेहद बचकाने हैं। रोटी और कम्प्यूटर का रिश्ता जोड़कर वे बहस को भटकाना चाहते हैं। लोगों तक रोटी या सड़क नहीं पहुंची तो उसके लिए हम सूचना प्रौद्योगिकी के इस दौर को देश के बाहर रोक देंगे। यह वस्तुतः दयनीयता भरा चिंतन है।
देश में टेलीविजन के विस्तार के समय भी ऐसी ही बातें की गई थीं। लेकिन आज टेलीविजन और टेलीफोन आज लोगों के होने और जीने में सहायक बना है। टेलीविजन और टेलीफोन को रोककर क्या हम अपने बुनियादी सवाल हल कर लेते । सही अर्थों में ये माध्यम एक शक्ति के रूप में सामने आए हैं। सूचना प्रौद्योगिकी भी एक ऐसी ही ताकत है। दुनिया के परिप्रेक्ष्य में हम कदम न मिलाएं तो हम बहुत पीछे छूट जाएंगे। यह ‘हमला’ नही ‘कंडीशन’ है, एक दौर है जिसे पार कर, इसकी शक्ति को पहचान कर, इसका रचनात्मक इस्तेमाल करके ही हम विश्व मंच पर प्रतिष्ठा पा सकते हैं। दुनिया में एक सूचना महाशक्ति के रूप में उभरने का भारत का सपना सिर्फ सपना नहीं वरन उसके सपनों को हकीकत में बदलने का राजमार्ग है। यह मार्ग सूचना प्रौद्योगिकी का ही रास्ता हो सकता है। भारत ने इस ताकत को काफी पहले पहचान लिया था शायद इसीलिए बिल क्लिंटन ने कुछ साल पहले भारतीय संसद में अपने संबोधन मं कहा था ‘आपने सूचना प्रौद्योगिकी अपनाई है अब यह स्थिति है कि जब अमरीका की व अन्य बड़ी साफ्टवेयर कंपनियां उपभोक्ता एवं ग्राहक तलाशती हैं तो उन्हें सिएटल की तरह बेंगलूर में भी किसी विशेषज्ञ से संपर्क करना पड़ सकता है’।
हमारा देश एक लोकतांत्रिक व्यवस्था को मानता है। सूचना प्रौद्योगिगी दरअसल लोकतंत्र की संजीवनी बन सकती है। यदि सूचना के साधनों का उपयोग आम लोगों की जीवनशैली बन सके तो सही अर्थों में लोकतंत्र की शुरुआत होगी। यह दौर ‘इ-राजनीति’ के द्वार खोलेगा और लोगों के बीच संवाद की ताकत को स्थापित करेगा। हालांकि देश के बेहद गरीब लगभग 32 करोड़ लोग हमारे लोकतंत्र के सामने एक चुनौती हैं। लेकिन सूचना प्रौद्योगिकी को नकार कर आखिर हम इनका भी क्या भला कर पाएंगे ? इसीलिए इस अवसर का सही इस्तेमाल ही करोड़ों लोगों के लिए संभावनाओं के द्वार खोल सकता है। उदारीकरण और निजीकरण के खतरों पर ‘बौद्धिक जुगाली’ के बजाए इस प्रक्रिया के लाभ को ग्रामीण क्षेत्रों तक पहुंचाने की योजना बनानी चाहिए। पंचायत राज व्यवस्था में ‘ई-गवरर्नेंस’ का दौर बेहद जनोपयोगी हो सकता है। गांव में बैठे लोग यदि अपने नेता से सीधे संवाद कर सकें तो ई-मेंल, इंटरनेट की ताकत परिवर्तन का बाहक बन सकती है। अभी हाल में ही प्रधानमंत्री से पंचायत प्रतिनिधियों की टेलीकांफ्रेंसिंग द्वारा बातचीत का दूरदर्शन ने आयोजन किया था। दरअसल यह ‘ई-राजनीति’ की ही शुरुआत है। इस तरह विविध विषयों पर ई-मेल संदेशों पर प्राप्त ‘फीड-बैक’ के आधार पर राजनीतिक दल या नेता अपनी रणनीति या विकास के कामों की प्राथमिकताएं तय कर सकते हैं। इससे एक नई लोकतांत्रिक संस्कृति उभरकर सामने आएगी । सही मायनों में इंटरनेट एक विकासशील देश के लिए सही इस्तेमाल से उसकी शक्ति बन सकता है। लोकतंत्र की ताकत भी इससे ही संचालित होती है। सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण और विश्वव्यापीकरण किसी भी लोकतंत्र की पहली शर्त है और नई प्रौद्योगिकी इसे संभव बनाती है। आज जो आलोचक सूचना प्रौद्योगिकी से सिर्फ उच्च वर्गों का भला होने की बात कर रहे हैं, शायद वे चित्र को सही रूप से समझ पाने में असमर्थ हैं। जिस जनसंचार प्रणाली को वर्तमान में हम लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहकर सम्मानित करते हैं, क्या वह पूरी तरह जनता की आवाज है ? इंटरनेट आपको इस प्रतिबंधों से मुक्त करता है। इंटरनेट का उपयोगकर्ता या अपनी वेबसाईट खोल लें या फिर पहले से मौजूद किसी समाचार वेबसाइट में शामिल होकर अपनी बात रख सकता है। इसके लिए उसे न किसी को अनुमति चाहिए न ही उस पर दबाव है। सही अर्थों में यह माध्यम एक आम आदमी को संवाद की ‘असीम स्वतंत्रता’ देता है। जरूरत है उस माध्यम को सस्ता, सुगम और लोगों तक पहुंचाने की। विशेषज्ञ मानते हैं, इतिहास में पहली बार विश्व ‘जन-अभिव्यक्ति के माध्यम’ का प्रादुर्भाव देख रहा है। यह एक ऐसा माध्यम है जिसकी पहुचं करोड़ों लोगों तक हो सकती है। इस पर उठी आवाज विश्वव्यापी अनुगूंज बन सकती है। यह एक तथ्य है कि विश्व की आधी आबादी ने अपनी जिंदगी में एक बार भी टेलीफोन का उपयोग नहीं किया है। इसके बावजूद सूचना प्रौद्योगिकी एक नया विश्व समाज बनाने, लोगों के पास आने, दुःख-दर्दों में हिस्सेदार बनने में सहायक बन सकती है। नई टेक्नालॉजी का उपयोग करके लोग दुनिया के किसी भी हिस्से में हो रहे अनाचार, हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर सकते हैं। उनकी आवाज निश्चय ही बड़ी ताकतों को उद्वेलित करेगा और सुनी जाएगी। दुनिया में हो रही आपदाओं-प्रकोपों के बारे में भी जागरूकता पैदा कर तबाही को कम या टाला जा सकता है। साइबर स्पेस पर किसी राजसत्ता का नियंत्रण नहीं है, इसलिए सही अर्थों में यह माध्यम भले ही किसी भी उद्देश्य के लिए शुरू किया गया हो, जनता का माध्यम और उसकी आवाज बन सकता है।
आज इस क्रांति ने तमाम लोगों की जिंदगी ढर्रा बदल दिया है। शहरों, घरों से लेकर साइबर ढाबों तक में आते-जाते संदेश एक नई दुनिया रच रहे हैं । एक ई-मेल पीढ़ी तैयार हो रही है जो ई-मेल पर संवाद कर रही है, बायो-डॉटा भेज रही हैं, खरीदारी कर रही है और रोमांस भी। आप याद करें दक्षिण महाराष्ट्र के चीनी उत्पादक इलाके में स्थित वारणानगर देश का पहला गांव बना था , जिसे इंटरनेट से जोड़ा गया था । इस इलाके के 70 करोड़ रुपए की लागत वाली इस परियोजना के प्रति लोगों में खासा उत्साह आया। उन्हें खुशी मिली कि ई-मेल के इस्तेमाल के कारण न तो धोखाधड़ी हो रही है न दूध बरबाद हो रहा है। आज ऐसा बहुत से गांवों में संभव हो सका है। सूदूर सिक्किम में मांगने में बैठे एक किसान पेमवांग तेनपिंग को खुशी है कि अब उनकी काली, बड़ी इलायची अरब देशों में चाय में डाली जाती है। बरसों वे इसे विचौलियों को बेचते रहे, कम मुनाफा पाते रहे। तेनपिंग अब ई-मेल संबंधों से व्यापार करते हैं। थोक विक्रेताओं, इलायची उद्योगों, अरब देशों के व्यापारियों से भी संपर्क साधते है। जाहिर है उन्हें यह ताकत नई प्रौद्योगिकी से ही मिली है। देश में ऐसे उदाहरण अब आम हैं। केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं के साथ-साथ आमजन को भी इस शक्ति को पहचान कर उससे सामंजस्य बनाने की चुनौती सामने है। हमारे ग्रामीण भोले मानस का आम आदमी प्रभु पर खासी आस्था रखकर अब तक कहता आया है-‘निर्बल के बल राम’ लेकिन इस नई सदी में सूचना प्रौद्योगिकी भी ‘निर्बल का बल’ बन सकती है, बशर्ते हम अपनी विलापवादी शैली से निजात पाएं।

बहुत खास है हास्टल लाइफ


- नूपुर सक्सेना, एमए- मासकाम- सेकेंड सेमेस्टर

बचपन से ही मां के आंचल से जुड़े रहने के बाद जब मां का पल्लू छोड़ने का वक्त आता है, तो बच्चे, मां और घरवालों की यादों को समेटे हुए ,मन में मां-बाप का सपना पूरा करने की चाह लिए निकल पड़ते हैं,एक अंजानी ज़िन्दगी जीने के लिए। एक ऐसी जिन्दगी जिसमें हमें अलग-अलग लोग, परिस्थिति और अनजाने लोगों से मुलाकात होती हैं। जिसे युवा पीढ़ी की लाइफ में कहा जाए तो ‘हास्टल लाइफ‘। हां जब बचपन में स्कूल की पढ़ाई के बाद हास्टल का समय आता है, तभी हमें मौका मिलता है, अपनी असल जिन्दगी को जानने का, समाज की गतिविधियों को समझने का, अच्छे बुरे की पहचान करने का, अपने आप को समाजिकता में पिरोने का और सबसे अहम अपने घरवालों की भावनाओं, उनके प्यार व उनके सपनों को साकार करने का।
खैर हास्टल का भी अपना एक अलग मजा है, लेकिन अगर आप हाॅस्टल की जिन्दगी में रंग भरना चाहते हैं तो उसके लिए कायदा बहुत जरूरी है। घर से बाहर जाने के पहले सब के मन में सवालों की बौछार उठने लगती है, खासकर अगर बात लड़कियों के बाहर रहने की हो तो, लेकिन उन सवालों का जवाब उन्हें घर की चैखट पार करते ही मिल जाता है। शायद आपके मन में हास्टल को लेकर एक डर समाया हुआ हो या हो सकता है कि आपने अपनी एक छोटी सी दुनिया पहले से ही सजा रखी हो। डर के नाम पर सबसे पहले रैगिंग ही दिमाग में आती है। पता नहीं हास्टल में कौन कैसा होगा? कैसी लड़कियां होगी? क्या अच्छे दोस्त बन पाएगें या नही?ऐसी बहुत सी बाते है जो हास्टल में आने से पहले एक बार ज़हन में जरूर आती है।
शुऱूआती दौर में ऐसा लगता है जैसे हजारों आजाद पंछियो में एक पंछी घुट-घुट के जी रहा हो, लेकिन बाद में वह पंछी भी उन्ही की तरह उड़ान भरने लगता हैं, क्योंकि वह भी उन्ही में से एक की श्रेणी में आ जाता है। खैर ये तो कुछ शुरूआती दौर थे, लेकिन हास्टल लाइफ के पल बेहतरीन पलों में गिने जाते हैं। हास्टल में रहकर हम जो सीखते है वो शायद हम अपने घर पर रहकर नहीं सीख पाते। जीवन को जीने की राह सीखा देती है ये लाइफ। हास्टल मे जाने पर बहुत से लोग मिलते है, जिनमें कुछ दोस्तो की लिस्ट में षामिल हो जाते है, तो कुछ अपने-परायो में। हास्टल में रहकर हमें बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, जिन्हें कभी-कभी हम अपने घरवालों के साथ नहीं बाट सकते। शायद मन में ख्याल लिए की छोटी-छोटी बातों के लिए घरवालों को क्यों परेशान किया जाए। इन्हीं छोटी-छोटी मुश्किलों से हमें हौसला मिलता है और यहीं पर आकर हम दूसरों पर न निर्भर होकर खुद पर निर्भर होते है। अब हर जगह न ही घर जैसा दुलार मिलता है और न ही स्वाद भरा खाना। कभी मां के हाथ का स्वादिष्ट खाने की याद आती तो कभी घर की वह मीठी नींद क्योंकि मिल नहीं पाती यहां बिन बत्ती की नींद। पर इन्हीं पलों से सीखा एडजेस्टमेंट की चिड़िया का नाम हमने। एक ऐसा अनुभव जिसे हमने अक्सर अपने घर में रहते हुए अपनाने से इनकार कर दिया, क्योंकि वहां हमारी बातें मानने के लिए घरवाले जो बड़प्पन दिखाने को तैयार रहते थे।
इस पर माखनलाल विश्वविघालय की छात्रा पवित्रा भण्डारी का कहना है कि आम ज़िन्दगी तो हर कोई जीता है लेकिन असल ज़िन्दगी का सामना हमें घर से बाहर रहकर बिना घरवालों का आसरा लिए ही समझ आता है। मेरे हिसाब से तो हास्टल के दिन सबसे अच्छे दिन होते है। जिसमें मुश्किलो और खुशियों दोनो बराबर की भागीदारी होती हैं।
वहीं दूसरी ओर ज्योति हास्टल मे रहनी वाली शिल्पा को घर का खाना बहुत याद आता है, लेकिन इन्ही खट्टठे-मीठे अनुभवों को दोस्तों के साथ बांटना बहुत अच्छा लगता है। इनका कहना है कि दोस्तों के लिए छोटी-छोटी बातों पर काम्प्रमाइज करना बहुत अच्छा लगता है। दोस्त भी वो जिनको सिर्फ उनकी पढ़ाई और चेहरे से पहचानते है, उनका न तो इतिहास का पता होता है और न ही परिवार वालों का कोई परिचय। सचमुच ज़िन्दगी का यह अनुभव जहां अपने साथ कई खट्टे-मीठे पलों को समाये होते है, तो वहीं आने वाली ज़िन्दगी में अपने-अपने पैरों पर खड़े होने में भी मददगार साबित होता है।

मजदूर दिवस : महज़ एक औपचारिकता

-पवित्रा भंडारी
एक मई यानी मजदूरों का दिन ,इस दिन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मजदूर दिवस मनाया जाता है। इस दिन के पीछे मज़दूरों के संघर्ष का पूरा इतिहास है। इस इतिहास की शुरआत मई सन् 1886 को शिकागो में शुरु हुई और तब से आज तक 1 मई को अंतराष्ट्रीय मज़दूर दिवस के रुप में दुनिया भर में श्रमिकों के बीच मनाया जाने लगा है। मज़दूर दिवस वह दिन है जिसमें मज़दूरों के बल दुनिया को बदल देने की गाथाएँ सुनी जाती है। पिछले 124 वर्षो से चले आ रहे इस प्रचलन में कई उतार चढाव आए और दुनियाभर के मेहनतकशों की एकजुटता और सवालों को लेकर कई कार्यक्रम होते रहे ।
आज मज़दूर दिवस महज़ एक औपचारिकता बन कर रह गई है। हर बार की तरह इस बार भी इसकी केवल औपचारिकता पूरी की जाएगी। इस बार भी मज़दूरों के कल्याण का राग अलपाने वाली पार्टियाँ कई नए वायदे सुनाएगी जो खोखले होंगे।
हमारी आबादी का 40 प्रतिशत भाग श्रमिकों का है । इन श्रमिकों की जी तोड़ श्रम का न तो पर्याप्त पारिश्रमिक इन्हे मिल पाता है और ना ही सामाजिक संरक्षण ।विकास की ओर अग्रसर भारत में विकास का लाभ यदि इन श्रमिकों को प्राप्त नहीं हो रहा है तो किसे प्राप्त हुआ है यह एक विचारणीय प्रश्न है। इस परिपेक्ष्य में एक और प्रश्न यह उठता है कि मज़दूर दिवस उन मज़दूरों को क्या आश्वासन देगा जहाँ उत्पादन क्षेत्र में लूट खसोट के लिए उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने या बाज़ार के हवाले किया जा रहा है।
आज हमारे देश की सौ करोड़ जनसख्या में से 40 करोड़ जनसंख्या श्रमिक वर्ग के अंतर्गत आती है । इन 40 करोड़ श्रमिकों को दो प्रमुख भागों संगठित और असंगठित श्रमिको में बाँट दिया गया है। इन 40 करोड़ में से केवल 3 करोड़ श्रमिक संगठित क्षेत्र में कार्यरत है जिन्हें कानूनी संरक्षण प्राप्त है। दुर्भाग्य की बात यह है कि 37 करोड़ श्रमिक जो असंगठित श्रमिको कि श्रेणी में आते है उन्हें किसी प्रकार का कानूनी संरक्षण प्राप्त नहीं है।
आज असंगठित श्रमिकों की सामाजिक सुरक्षा की चिंताएँ बढ़ती जा रही हैं। सरकारी तंत्र ने असंगठित श्रमिकों को और अधिक दयनीय बना दिया है। सरकार के दमनकारी योजनाओं के कारण 24 करोड़ श्रमिक आज भी गरीबी रेखा से नीचे जीवन बसर कर रहे है आज भी मज़दूर वर्ग, मकान,स्वास्थ्य ,शिक्षा जैसी मूलभूत आवश्यकताओं से वंचित है। असंगठित श्रमिको के सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए सरकार कोई कारगर योजना नहीं बना रही है। इनकी सुरक्षा हेतु सरकार को श्रमनीति में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को असंगठित श्रमिकों को कानूनी मान्यता देकर राष्ट्रीय श्रम शक्ति को मजबूत बनाना होगा।
वहीं दूसरी तरफ औद्यौगिक श्रमिकों की समस्याओं की अगर बात की जाए तो आर्थिक समस्याऐ मुख्य हैं,जिसके परिणाम स्वरुप ही पारीवारिक ,सामाजिक समस्याओं का निर्माण होता है।इनकी अनेक समस्याओं में प्रमुख हैं, श्रमिकों का निम्न जीवन स्तर,उचित स्वास्थ्य सेवाओं का अभाव , भविष्य के प्रति अनिश्तिता ,सुरक्षा व्यवस्था का अभाव आदि।इन समस्याओं के उचित समाधान से ही स्वस्थ समाज का निर्माण होगा ,जिसके परिणाम स्वरुप की कार्य क्षमता एवं उत्पादकता में वृद्धि होकर एवं आर्थिक विकास तीव्र गति से हो सकता है।
देश मे श्रम कानूनों की अगर बात की जाए तो यह कहा जा सकता है कि श्रमिक वर्ग के हितों के लिए श्रमिक कानून तो बना दिए गए हैं पर ये एक कोरी कल्पना के अतिरिक्त कुछ नहीं है। सरकार की दोषपूर्ण श्रमनीति के चलते आज श्रमिक उपेक्षित हो रहे हैं, निर्माण ,भारी निर्माण, वितरण परिवहन एवं अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में स्थायी व अस्थायी रुप से कार्यरत अनेक श्रमिक घोर उपेक्षा से त्रस्त हैं।
मजदूर वर्ग मजदूरों की दयनीय स्थिति को सुधारने में मजदूर संगठनों की बहुत बड़ी भूमिका होती है। लेकिन आज मजदूर या श्रमिक संगठनों का आंतरिक लोकतंत्र बिगड़ चुका है ना तो श्रम संगठन के आय व्यय का सही ब्यौरा रहता है और ना ही सदस्यता शुल्क का। चुनाव भी समय पर नहीं होते इन सब के बीच अगर कोई पिसता है तो वह है मजदूर । मजदूरों के हकों का दमन और उनके शोषण के खिलाफ आवाज बुलंद करने के लिए ऐसे संगठनों का होना नितांत आवश्यक है जो मजदूरों की रोटी के लिए लड़ते हों।
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि मज़दूर दिवस के नाम पर केवल मंच सजाने और मजदूरों को इकट्ठा करने से काम नहीं चलेगा।सरकार को चाहिए कि श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा और विकास के लिए बेहतर योजनायें और श्रम कानून बनायें। इन श्रम कानूनों का प्रभावशाली ढ़ंग से क्रियान्वयन किया जाय और समय – समय पर इनकी समीक्षा भी की जाए,न केवल सरकार बल्कि पूँजीपति वर्ग, मजदूर संगठनों एवं मीडिया का कर्तव्य है कि श्रमिकों को उनके अधिकार दिलाने के लिए आगे आयें।

Thursday, April 29, 2010

ठंडे बस्ते में समान नागरिक संहिता

-कुन्दन पाण्डेय
संसद के सन् 2002 के एक सत्र में गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ के प्रस्ताव पर लम्बे समय बाद लोकसभा में समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर जोरदार बहस की स्थिति अधिक समय बाद उत्पन्न हुई, किन्तु इस विषय पर जिस गंभीरता के साथ चर्चा होने की अपेक्षा थी वैसी चर्चा नहीं हुई। यद्यपि कुछ अपवादों के अतिरिक्त देश के विशेष और आम आदमी सभी यह सोचते और मानते हैं कि राष्ट्रीय एकता-अखण्डता के लिए देश में एक संविधान और एक समान कानून का सिद्धांत चलना चाहिए। एक आम धारणा यह भी है कि गांधी, नेहरु और अम्बेडकर के नाम पर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करने वाले लोग और दल उनके बनाए संविधान को पूर्णतः लागू करने के मुद्दे पर अभी भी तैयार नहीं है, आगे भी जल्दी तैयार नहीं होगें। इस बहस में भी इस अतिमहत्व के मुद्दे को महज मज़हबी अल्पसंख्यकवादी राजनीतिक नजरिये से देखा गया।
पिछले पाँच दशकों से दी जा रही वही थोथी दलीलें पुनः दोहराई गई। समान नागरिक संहिता का मुद्दा पुनः साम्प्रदायिकता और थोकवोट की राजनीति की तराजू पर तौला गया। कांग्रेस सहित सभी अल्पसंख्यकवादी स्वयंभू सेकुलर दल इस तथ्य से आँखें मूँदे रखना चाहते हैं कि संविधान के “नीति निर्देशक तत्वों” वाला “अनुच्छेद 44” बार-बार हमें यह निर्देशित करता है कि भारत अपने सभी नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता बनाएगा। कांग्रेस के प्रियरंजन दास मुंशी ने यह दलील दी कि संविधान ने समान नागरिक संहिता के लिए कोई समय सीमा तय नहीं की है, सिर्फ प्रयास करने को कहा हैं, किन्तु वह यह भूल गये कि संविधान ने अस्पृश्यता निवारण के लिए भी कोई समय सीमा तय नहीं की है, सिर्फ प्रयास करने को कहा है, तो भी ससद ने अस्पृश्यता विरोधी कानून बनाया था।
जिस कांग्रेस ने अपने शासन काल में 76 बार संविधान का संशोधन मूलत निजी और दलीय स्वार्थों को देश पर थोपने के लिए किया, उसी ने देश की एकता, अखंडता और सामाजिक सांप्रदायिक समरसता के लिए आवश्यक समान नागरिक संहिता को नकार दिया। विश्व में शायद ही कोई ऐसा देश होगा जहाँ पंथनिरपेक्ष लोकतंत्र हो, किंतु जिसने अपने देशवासियों के लिए मजहबी आधार पर अलग-अलग नियमों और कानूनों का निर्माण किया हो। केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कुछ समुदायों के लिए व्यक्तिगत कानून है, उनके लिए कानून की किताबें बदल दी जाती हैं और शेष नागरिको के लिए अलग कानून है। यही नही यहाँ के कुछ ऐसे विशेषाधिकार प्राप्त लोग हैं जिनके लिए संविधान की धज्जियाँ भी उड़ा दी जाती हैं। उनका हित साधन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को भी बौना बना दिया जाता है यह सभी जानते है कि 1947 में देश के विभाजन का आधार क्या था ?
मुस्लिम लीग की जिद और कांग्रेसी नेतृत्व की कायरता के कारण देश के टुकड़े हो गए व मजहबी द्विराष्ट्रवाद के आधार पर कांग्रेस ने भारत भूमि पर पाकिस्तान नाम का एक नया राष्ट्र स्वीकार कर लिया । उस समय भी मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुसलमानों के बहुमत ने यह मांग की थी कि उन्हें केवल अतिरिक्त अधिकार ही नहीं, एक अलग देश भी चाहिए । उनकी एक मांग यह थी कि उनकी कौम के मामलें किसी कानून का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए । वस्तुतः उन्हें सामाजिक साम्प्रदायिक समरसता नहीं विलगता चाहिए थी। इन्हीं लोगों और इनके नेताओं ने भारत में द्विराष्ट्र की कल्पना की और उसे मूर्त रूप देने के प्रयास में हजारों लाखों लोगों की लाशें बिछा दी थी , किन्तु भारत की मूल मनीषा मजहबी आधार पर अपने देश का राजकाज चलाने की लिए भी तैयार नहीं हुई।
भारतीय परंपरा और जीवन-दर्शन स्वभावत: पंथनिरपेक्ष है। यहाँ की विविधता और यहाँ के अनेक पंथ संप्रदायों का सहचिंतन एवं सहजीवन इसका प्रमाण है। भारतीय पंथनिरपेक्षता यहाँ की राजनीतिक और मजहबी मजबूरी नहीं है। सर्वपंथ समादर उनकी मूल चेतना, उसके चिंतन और आचरण का अभिन्न अंग है। मजहबी आधार पर देश का बँटवारा स्वीकार कर लेने के बाद के गत पचपन वर्षों में इस देश और समाजवादी सोच को समाप्त न करके उन तमाम कारणों और आधारों को पुनर्जीवित होने दिया गया जो राष्ट्र-विभाजन के लिए जिम्मेदार थे।
देश-विभाजन के लिए जिम्मेदार वे ही कारण और आधार पर फिर से फन उठाकर फुफकारने लगे हैं। वे फिर से देश-विभाजक मजहबी जहर उगलने और फैलाने लगे हैं। उन कारणों और आधारों को देश और समाज के लिए खतरनाक मानकर सर्वोच्च न्यायालय ने गत पंद्रह वर्षों में तीन बार समान नागरिक संहिता लागू करने की सलाह या निर्देश दिए हैं। सन् 1985 में शाहबानों के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला मुस्लिम महिलाओं के हक में दिया था, लेकिन अल्पसंख्यकवाद, थोक मुस्लिम-वोटों और फिरकापरस्त मुस्लिम मुल्लाओं के दबाव में बहुमत के बल से कांग्रेस ने भारत के कानून और संविधान के हाथ बांध दिए और उसकी सत्तालोलुप राजनीति देशहित को धकियाकर मुस्लिम पर्सनल लॉ के पक्ष में खड़ी हो गई। सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में भी कल्याणी नामक स्वयंसेवी संस्था की एक याचिका पर यह टिप्पणी की थी कि यह देशहित में नहीं होगा कि कानून बनाकर एक वर्ग पर एक से अधिक शादी करने पर रोक लगा दी गई और दूसरे वर्ग-विशेष को चार शादियाँ करने की छूट देकर समाज के अन्य लोगों को मतांतरण के लिए मजबूर कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने 1995 में यह अपेक्षा की थी कि देशहित में संसद शीघ्रातिशीघ्र समान नागरिक संहिता बनाएगी। 63 साल के इस स्वतंत्रयोत्तर राष्ट्र-जीवन में किसी भी सरकार ने समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश नहीं की।
मुस्लिमपरस्त कांग्रेसियों और उसके बाद की अल्पसंख्कवादी सरकारों से तो उम्मीद भी नहीं, किंतु भाजपा से भी देशवासियों को घोर निराशा हुई है। देशवासियों की निराशा इस बात से भी है कि समान नागरिक संहिता की जरुरत को हमेशा मुस्लिम विरोध के रुप में पेश किया जाता है।
“केवल भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ कुछ समुदायों के नागरिकों के लिए पर्सनल लॉ है और शेष नागरिकों के लिए अलग कानून”।
इस ओर इस रूप में कभी भी नहीं देखा जाता कि समान नागरिक संहिता न सिर्फ देश और समाज की एकता व अखण्डता के लिए जरूरी है, बल्कि यह कई सामाजिक बुराईयों के अंत का उपाय भी है। यह किसी खास मज़हब के आंतरिक मामलों में दखल नहीं, बल्कि सभी महजबों को एक समान आधार भूमि पर स्थापित- प्रतिष्ठित करने का सूत्र भी है। जिन लोगों ने यह मान लिया है कि मज़हबी भेदभाव किए बिना उनकी राजनीतिक यात्रा का अंत हो जाएगा, सिर्फ उन्हें ही इस पर ऐतराज है। यदि ऐसा नहीं होता तो पाकिस्तान, अरब, ईरान और सऊदी अरब में शामिल कानूनों या पर्सनल लॉ में जरूरत के मुताबिक परिवर्तन किए जाने के बाद भी भारत में समान नागरिक कानून या संहिता बनाने का विरोध नहीं किया जाता ।
महजब के नाम पर बुराईयों को ओढ़े रहने की यह नादानी क्यों और किसलिए की जा रही है? देश के बहुसंख्यक समाज ने अपनी कालबाह्य परम्पराओं और रूढ़ि रीतिरिवाजों के शुद्धिकरण का आमतौर से कभी विरोध नहीं किया। कानून बनाकर बाल विवाह पर रोक लगाई गई। सती प्रथा को खत्म किया गया। विधवा विवाह को प्रोत्साहन दिया गया। महिलाओं के आत्मसम्मान के लिए दूसरे विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार किया गया। देश का बहुसंख्यक समाज यदि इन परिवर्तनों का स्वागत कर सकता है तो फिर अल्पसंख्यकों को सबसे अलग- थलग रहने का अधिकार क्यों है? समान नागरिक संहिता के कारण उनकी या किसी की भी विशिष्ट मजहबी या पंथीय पहचान पर कोई आंच आने की कोई भी संभावना नहीं है तो भी इसका विरोध क्यों ? क्या यह देश में रहने वाले सभी नागरिकों की समानता और समान अवसर के संवैधानिक प्रावधान के विरोध नहीं है? जिन लोकतांत्रिक देशों के समाज में हर स्तर पर समानता का सिद्धांत आचरण में नहीं लाया जा सकता वहाँ सामाजिक समरसता नहीं आ सकती। भारतीय संविधान की नजरों में यहाँ का हर नागरिक समान है, इसलिए सभी नागरिकों के लिए समान कानून भी होना चाहिए। यह नहीं होना चाहिए कि कुछ संदर्भों में तो शरीयत की बात मानी जाय और कुछ संदर्भों में उसे छोड़कर सामान्य कानून की बात की जाय।
महिलाओं को अधिकार देने, जनसंख्या पर रोक के उपाय करने और अपनी अलग पहचान बनाए रखने के लिए तो शरीयत का कानून चाहिए, इन मामलों में देश के कानून को हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए, लेकिन अपराध, बलात्कार और आर्थिक मामले में शरीयत नहीं चाहिए? क्यों? इसलिए कि शरीयत के अनुसार चोरी करने वाले के हाथ काट देना चाहिए। बलात्कार करने वाले की पत्थर मार-मार कर हत्या कर देनी चाहिए । कमाई का तीसरा हिस्सा जकात यानी गरीबों में बाँट दिया जाना चाहिए। ऋण के बदले ब्याज को हराम माना जाना चाहिए। यदि अल्पसंख्यकों को शरीयत ही चाहिए तो फिर वे उसे अपने ऊपर पूरी तौर से लागू क्यों नही करते? वे ऐसा इसलिए नही होने देते कि देश के संविधान और कानून का माखौल उड़ाने वाली शरीयत को वे जागीर की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं और भारत की सरकार उन्हें उसे इसी रूप में इस्तेमाल होने की इजाज़त देती आ रही है। वोट और सत्ता लोभ-लाभ की राजनीति ने सभी राजनीतिक दलों और नेताओं का मुँह सिल रखा है। किसी में हिम्मत नहीं है कि संविधान निर्देशित समान नागरिक संहिता का निर्माण और उसका पालन कराने के लिए लम्बा संघर्ष करे और उसे निर्णायक बिन्दु तक ले जाए। इस मामले में संविधान की दुहाई देने वाली कांग्रेस सबसे बड़ी दोषी है। संविधान का अनुच्छेद 14 स्पष्ट रूप से कहता है कि कानून की दृष्टि से किसी के साथ किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए।
क्या यह किसी जिम्मेदार सरकार का दायित्व नहीं है कि संविधान की मूल भावना का सम्मान करते हुए समान नागरिक संहिता लागू करे और देश की एकता और अखण्डता को अक्षुण्ण बनाये? क्या यह सच नहीं है कि समान नागरिक संहिता न होने के कारण ही देश की मुस्लिम महिलाएं मुख्यधारा से अलग-थलग हैं? न तो वे अपने अधिकारों के लिए लड़ पा रही हैं और न अपने साथ हो रहे जुल्मों का विरोध ही कर पा रही हैं। कभी कोई मुस्लिम महिला साहस करके इस अन्याय के विरुध्द सिर उठाती और मुँह खोलती भी है तो कठमुल्लें और मरगिल्ली सरकारें मिलकर उसका दमन कर देती हैं। क्या यह देश, संविधान, कानून और समाज के लिए लज्जा की बात नहीं है ? यह कितना हास्यास्पद है कि कांग्रेस दूसरे मजहबपरस्त सेकुलरी नेता और कुछ बुध्दिजीवी समान नागरिक संहिता न लागू करने की अपनी दलील में हिन्दू समाज में सैकड़ों बुराईयाँ होने की चर्चा करके उस पर लांछन लगाते हैं और मुस्लिमों में 4-4 शादियों को यह कहकर सही ठहराया जाता है कि “राजा दशरथ की भी तीन पत्नियाँ थीं”। कितनी बचकानी दलीलें हैं ये। जहाँ एक ओर हिन्दू समाज में अपनी बुराइयों का अंत करने के लिए सतत आन्दोलन और अभियान चलता रहता है वहीं दूसरी ओर मुस्लिम समाज में पहले तो बुराई को बुराई मानने ही नहीं दिया जाता और दूसरे यदि कोई उस ओर संकेत करता भी है तो उसे इस्लाम और कुरान का दुश्मन (काफ़िर) घोषित कर दिया जाता है। कुछ दलों और नेताओं के अतिरिक्त सभी मानते है कि देश में समान नागरिक संहिता लागू होनी चाहिए, लेकिन अभी नहीं? संविधान निर्मातओं ने कभी यह नहीं सोचा होगा कि उनके लिखे संविधान के अनुच्छेदों और प्रावधानों का इतना संकुचित मतलब निकाला जाएगा। यह ठीक है कि संविधान में यह लिखा है कि देश को समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करना चाहिए, लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि यह प्रयास केवल दशकों नहीं, सदियों बाद किया जाना चाहिए?

Wednesday, April 28, 2010

खुद को बनाएं सबसे अलग, सबसे बेहतर

- नूपुर सक्सेना, एमए- मासकाम- सेकेंड सेमेस्टर

कितना अच्छा लगता है जब कोई हमें आधुनिक कहता है। जब हम अपने बारे में ऐसा सुनते है तो खुद को न जाने क्या समझने लगते हैं। कौन अपने आपको आधुनिक बनाना नहीं चाहता। आज हमारी छोटी से छोटी कोशिश यही रहती है कि, अपने आपको कैसे आज के दौर मे ढालें। हम अपने आपको बदलने मे लगे रहते हैं और हर उन छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देते है जिससे हम नए और बेहतर लगें। बहुत ही अच्छी बात है कि कम से कम आज हम अपने आपको लेकर थोड़ा सोचता तो है, बहुत ज्यादा नहीं पर इतना ध्यान जरूर रखते हैं कि हम अपने आप को सुन्दर रूप में पेश कर सकें।
यह हमारे मानवीय होने का एक गुण है कि , खुद को इस रूप में रखें कि देखने वाला आपका मुरीद हो जाए और अपने आपको आप जैसा बनाने की कोशिश करे। आपकी हर एक चाल-ढ़ाल, हर एक बात, आपका तौर-तरीका और यहां तक की आपके उठने- बैठने का व्यक्तित्व भी खूबसूरत हो जिसे आपके व्यक्तित्व का परिचय कहते हैं और इसी व्यक्तित्व की छाप हम दूसरे पर छोड़ते हैं। जरा सोचिए, अगर हम अपने आपको एक पहचान न दे सकें, खुद को एक नया रूप न दे सकें तो हमने क्या किया। क्या हमारी जिन्दगी का सिर्फ एक ही मकसद है, दो जून रोटी इकट्ठा करना और उसके लिए खुद को मिटा देना। क्या अपने दिल व दिमाग को उस काम की भट्टी में झोंक देना ही जीवन का मकसद होना चाहिए? ऐसा नहीं है। काम हमारी जरूरत है और इच्छा हमारी सोच। हमारी सोच, हमारी इच्छा पर, काम को हावी नहीं होने देना चाहिए। इच्छाओं को मारकर काम करते रहना जिंदगी का मूल नहीं होना चाहिए।
आज के इस नए दौर में अगर हम अपने आपको सुसज्जित नही कर सके तो हम पिछड़े कहलाएगें। पर सिर्फ आधुनिक दिखने के लिए अपने आपको मशीनी इंसानो की तरह खड़ा कर देना ही नयापन नहीं है खुद को मशीनों और आधुनिक कपड़ों में लपेट लेना ही नवीनीकरण नहीं है ये तब तक आज के लोगों पर खरा नहीं उतरेगा जब तक हम अपनी सोच अपना नज़रीया नही बदलते हैं, हम नकल कर अपने आपको उन जैसा बना तो लेते हैं पर अपने सामाजिक रवैये को नही बदलते हैं। हमारे बात करने का लहजा, काम करने का तरीका, लोगो से पेश आने का अंदाज और उनसे मिलना जुलना सब हमारी सोच का प्रारूप होता है। हम जो भी कुछ करते हैं ये तो हमारा सलीका ही होता है कि कैसे हम अपने आपको व्यवस्थ्ति कर रहे हैं। किसी दूसरे कि नकल करके हम सलीका नही लाते हैं यह हमारे क्रियात्मकता और रचनात्मकता से उत्पन्न होता है जो हम खुदसे बनाते हैं। हम खुद को कितना भी बदल लें पर हमारा असली रूप झलक ही आता है। बनावट की दुनिया ज्यादा दिन नहीं चलती। खुद को एक अंदाज मे पेश करना हमारा मूल मंत्र होना चाहिए; जिसमें हमारा व्यवहार, हाजिर जवाबी, मेल मिलाप, सोचने का नजरिया आदि शामिल होना चाहिए। खुद को आधुनिक बनाना बड़ी बात नहीं है , पर खुद को आधुनिक करना बड़ी बात है।

Tuesday, April 27, 2010

बॉलीवुड का एक किंग


-पवित्रा भंडारी
कहते हैं समय हमेशा एक सा नहीं रहता । वक्त और परिस्थतियों के अनुसार समय करवट लेता हे। ऐसे में बात अगर फिल्म इंडस्ट्री की करें तो यह कथन सटीक लगता है।
पिछले कुछ सालों में बॉलीवुड में शाहरुख खान, आमिर खान और सलमान खान का ही साम्राज्य बना रहा। इनकी सफलता की चकाचौंध में कई सफल अभिनेता पीछे छूटते चले गए। लेकिन इन खान बंधुओं के सल्तनत को पीछे छोड़ते हुए अक्षय कुमार आगे निकल गए । यह एक ऐसा कलाकार है जो आज बॉलीवुड में नंबर वन पर बना हुआ है।
अमृतसर के एक सामान्य से परिवार से ताल्लुक रखने वाले राजीव उर्फ अक्षय आज बॉलीवुड के महँगे कलाकारों की पंक्ति में अग्रिम सीट पर बैठे दिखाई दे रहे हैं। आज अक्षय की एक फिल्म की फीस 60-65 करोड़ तक पहुँच गई है। और हो भी क्यों ना? चाहे एक्शन हो या कामेडी सस्पेंस हो या इमोशनल ड्रामा, हर रोल में खुद को फिट करके अक्षय अपने दम पर फिल्म को सफलता के मुकाम तक पहुँचाते है।
सौगंध फिल्म से अपने फिल्मी सफर की शुरुआत करने वाले अक्षय को भले ही शुरुआती दौर में सफलता न मिली हो, परंतु धीर-धीरे वे अपने आप को इस कदर मांजते रहे कि अब उनकी पहुँच बॉलीवुड के शहंशाह कहलाने वाले अमिताभ और बादशाह के रुप में पहचाने जाने वाले शाहरुख से भी आगे पहुँच गयी है।
दिल्ली में पले बढे अक्षय ने कभी सोचा नहीं था कि बड़ा होकर वह बॉलीवुड का किंग बन जाएगा । चाँदनी चौक की गलियों से होकर बॉलीवुड का किंग बनने तक का सफर आसान नहीं रहा। फिल्म जगत में कोई गॉडफादर न होने के कारण अक्षय को कई उतार-चढ़ाव भी देखने पड़े।
समय ने करवट बदली और 2000 में आए धडकन ,हेरा फेरी, और अजनबी ने अक्षय को दर्शकों के सामने रख दिया । अजनबी में उनके शानदार अभिनय को देखते हुए सर्वश्रेष्ठ खलनायक अवार्ड से सम्मानित किया गया ।
ट्विंकल खन्ना के साथ शादी के बंधन में बँध चुके अक्षय ने अपनी फिल्मी दुनिया के साथ पारिवारिक दुनिया में संतुलन बनाए रखा। यही कारण है कि आज ट्विंकल के लिए सपेर्टिव पति और आरव के लिए बेहतर पिता की भूमिका निभा रहे हैं। फिल्मों के अलावा विज्ञापनों में भी अक्षय ने बेहतरीन प्रदर्शन किया है। वे लिवाइस के ब्रांड अम्बेसडर बने और थम्सअप के विज्ञापन में छाए रहे। इसके अलावा अक्षय ने खतरों के खिलाडी नामक रियलिटी शो में सफल एंकरिंग कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है।बॉलीवुड़ में हिट मशीन की तरह लगातार हिट फिल्में देते रहे है,जिनमें गरम मसाला,वेलकम,नमस्ते लंदन,सिंह इज़ किंग,हे बेबी आदि शामिल हैं। इन फिल्मों की अपार सफलता के कारण बॉलीवुड़ का यह खिलाड़ी दर्शकों में खासा लोकप्रिय होता जा रहा है ओर अपने अभिनय के कारण किंग के रुप में स्थापित हो रहा है। केवल फिल्मों के हिट के कारण ही नहीं बल्कि अपने अफेयर्स के मामले में भी यह खिलाड़ी अव्वल रहा है फिर चाहे रवीना टंड़न हो या फिर प्रियंका चोपड़ा दोनों के साथ इनका नाम जोड़ा गया है।जो भी हो यह खिलाड़ी सफलता के चरम पर खड़ा होकर भी घमंड़ की धरती से कोसों दूर है ओर यही कारण है कि दर्शकों को इनकी फिल्मों का इंतजार रहता है।

Monday, April 26, 2010

जनसंचार

-अन्नी अंकिता
जनसंचार के बच्चे हम

थोड़े हैं नादान, थोड़े है शैतान

पर बगिया के माली हैं बड़े बुद्धिमान।


लक्ष्य की ओर बढ़ने की राह दिखाते

कराते मीडिया से पहचान

पढ़ाते- पढ़ाते इतना हँसाते हमें

कि हो जाता थकान तमाम


दूर – दूर से आए हम बच्चें

करेंगे गौरवान्वित अपने शिक्षक का नाम।

विज्ञान सम्मत है भारतीय संस्कृति

यजुर्वेद के अनुसार सुखपूर्वक जीवन जीने के लिए विज्ञान के आविष्कार आवश्यक हैं।
-कुन्दन पाण्डेय
पश्चिम की संस्कृति से पूर्व की संस्कृति अर्थात भारत एवं भारतीय संस्कृति किन कारणों से महान है यह प्रश्न देश के युवाओं के मन में बार-बार उठता है। हमारे यहाँ के कुछ प्रौढ़ लोग ज्ञान-विज्ञान सहित विकास की परंपरा को नकारते हुए धर्म, अध्यात्म, जप, तप, व्रत एवं पूजा-पाठ आदि को ही भारतीय संस्कृति मानते हैं। वर्तमान परिवेश में जब कोई युवा मंदिर नहीं जाता या तिलक नहीं लगाता, तो घर के बुजुर्ग भरे लहजे में कोसते हुए एक ही राग अलापते हैं, क्या करें जमाना बदल गया है। आजकल के युवा संस्कृति, संस्कार एवं परंपराओं को भूलकर बस पाश्चात्य संस्कृति का अंधानुकरण कर रहे हैं।
दूसरी ओर कुछ प्रबुद्ध भारतीय धर्म, अध्यात्म, संस्कृति एवं सनातन परंपराओं को ढोंग, पाखंड़, रुढ़ि, अंधविश्वास, पुराण पंथी कहकर नकारने में गर्व अनुभव करते हैं और समझते है कि हम विकसित हो गए हैं। ऐसे लोग धार्मिक व्यक्तियों को नासमझ, अबौद्धिक और भोलाभंड़ारी कहकर मजाक उड़ाते हैं। यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में लिखा है कि वे लोग गहरे अंधेरे में हैं जो केवल विज्ञान और प्रौद्योगिकी के विकास को ही जीवन का लक्ष्य मानते हैं तथा इससे भी ज्यादा गहन अंधकार में वे लोग जी रहे हैं जो केवल भक्ति, पूजा-पाठ एवं अध्यात्म में निरत होकर जीवन-यापन कर रहे हैं।
वेद के अनुसार संसार में सुखपूर्वक जीवनयापन करने के लिए विज्ञान के आविष्कार भी आवश्यक हैं और आत्मिक सुख-शांति एवं संतोष के लिए उपासना, भक्ति, ध्यान, समाधि रुप अध्यात्म भी अति आवश्यक है अर्थात् भारतीय संस्कृति में भौतिकवाद एवं अध्यात्मवाद को एक दूसरे का पूरक माना गया है। अध्ययन, मनन एवं समग्र चिन्तन के अभाव में आज जिस तरह से भारतीय संस्कृति को मात्र मंदिर एवं देव स्थानों तक ही केन्द्रित मान लिया गया हैं जो कि सर्वथा अनुचित है। भारतीय वेदों में ज्ञान कांड, कर्म कांड, विज्ञान कांड व उपासना कांड का सर्वांगीण रुप से समावेश है। भारतीय संस्कृति एकांगी नहीं है बल्कि वह बहुआयामी है।
हमारे मूर्धन्य महर्षि भूगर्भ विद्या, शस्त्र विद्या, शास्त्र विद्या में निपुण थे। स्वास्थ्य, शिक्षा, दूरदर्शन, दूरभाष, विमान शास्त्र सहित संपूर्ण विद्याओं का उन्हें ज्ञान था। दुर्भाग्य से महाभारत काल के बाद से भारतीय संस्कृति का तीव्र गति से क्षरण हुआ। कालांतर में संस्कृति की व्याख्यायें स्वार्थ पूर्ति हेतु सीमित रुप से की जाने लगी। इस तरह हमारा विज्ञान सम्मत धर्म मात्र वाह्य प्रतीकों तक सीमित कर दिया गया।
आज फिर से आग्रह एवं स्वार्थों से ऊपर उठकर विज्ञान के आलोक में भारतीय सनातन मूल्यों, परंपराओं व संस्कृति को देखने की आवश्यकता है। यह शाश्वत एवं अकाट्य सत्य है कि भारतीय संस्कृति कभी भी विज्ञान की विरोधी नहीं रही, अपितु हमारी संस्कृति तो पूर्णतः विज्ञान सम्मत है।
वैदिक कालीन समाजवाद, वर्ण व्यवस्था, वैदिक शिक्षा व्यवस्था, प्राचीन वैभवशाली आयुर्विज्ञान व आयुर्वेद ज्ञान, वैदिक कृषि व्यवस्था, वैदिक गणित, वैदिक ज्योतिष व वास्तुशास्त्र सहित परा-अपरा विधाओं के समुचित अध्ययन, अनुशीलन, अनुसंधान एवं शोध की आवश्यकता है। भारत की प्राचीन संस्कृति के समुचित आधार को समझकर ही हम गर्व से कह सकेंगे कि भारतीय संस्कृति पश्चिम की संस्कृति से कैसे श्रेष्ठ है।

भ्रष्टाचार ही मूल समस्या

- नूपुर सक्सेना, एमए- मासकाम- सेकेंड सेमेस्टर

भारत को शिक्षित करने का सपना पूरा करने के लिए मनमोहन सिंह सरकार द्वारा शिक्षा का अधिकार कानून 1 अप्रैल 2010 से लागू किया गया। निश्चित रूप से भारत में साक्षरता बढ़ाने के लिए, सरकार की ओर से एक अच्छा प्रयास है जो न सिर्फ अशिक्षित को शिक्षित करेगा बल्कि हजारों बच्चों को एक उज्जवल भविष्य भी देगा। गरीबी , बेरोजगारी, नक्सलवाद जो अभी देश के लिए चुनौतियाँ बनकर खड़ी हुई हैं, इन समस्याओं से भी निजात दिला सकता है। इस अधिनियम के तहत जिस शिक्षक -छात्र अनुपात को निर्धारित किया गया है उसका पालन मध्यप्रदेश सहित देश के किसी भी प्रांत मे होना अत्यंत दुष्कर है। स्कूल शिक्षा विभाग के एक आधिकारिक सर्वेक्षण के अनुसार मध्यप्रदेश के साढ़े 14 हजार शासकीय स्कूल एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। एक अन्य आधिकारिक सूचना के मुताबिक राज्य के 14 हजार 593 शासकीय प्राथमिक स्कूलों में केवल एक-एक शिक्षक ही पदस्थ हैं। इन शिक्षकों पर पहली कक्षा से पाँचवी कक्षा तक के सभी बच्चों को पढ़ाने के साथ-साथ स्कूल शिक्षा विभाग की विभिन्न योजनाओं के संचालन व निगरानी करने का भी दायित्व होता है।
इसके लिए सिर्फ बातें बनाने और कानून लागू करने से कुछ हासिल नहीं होगा। अगर देष को एक सफल व विकसित देश की तस्वीर में बदलना है तो केन्द्र सरकार के साथ-साथ जरूरी है कि राज्य सरकारें भी इस अधिकार से पल्ला झाड़ने की बजाय इसे बोझ न मानकर अपना पूर्ण सहयोग दें ताकि योजनाओं को धरातल पर उतारा जा सके।
अब बात यहां सिर्फ शिक्षा तक ही सीमित नहीं रह गई है, अब बात देश के गौरव व सम्मान तक आ पहुंची है। आखिर क्यों हर बार भारत की व्यवस्था को ढ़ीला व कमजोर बताया जाता है, क्यों उसे हर बार शीशे में उतारने को कहा जाता है। शायद इसका जवाब है ‘भ्रष्टाचार‘ जो हर जगह अपना कब्जा जमा कर बैठा है और पल-पल अपनी जीत की खुषी मनाता रहता है । घमण्ड से कहता है “यहां मेरा साम्राज्य है, सब मेरे इशारे पर नाचते हैं।
आए दिन नए कानून बनने की जैसे प्रथा सी हो गई है। ऐसा लगता है कि दस्तावेजों में ही कैद होकर रहने और लालफीताशाही का शिकार बनने के लिए ही नए-नए अधिकार(कानूनन) देने की होड़ मची हुई है। अगर कामयाबी हासिल करनी है तो शीशे जैसे अरमां लेकर राहों से गुजरना छोड़ना होगा। खामियाँ गिनाने और मुँह मोड़ने की बजाय चुनौतियों को स्वीकारते हुए उनका डटकर सामना करना होगा।

सच का सामना

- पंकज कुमार साव,द्वितीय सेमेस्टर
मैं की-बोर्ड की क़सम खाकर कहता हूँ कि जो भी कहूँगा, सच कहूँगा और सच के सिवा कुछ नहीं कहूँगा। अब आप सोच रहे होंगे कि कौन-सी ऐसी बात है जिसकी प्रमाणिकता के लिए क़सम खाने की जरूरत आन पड़ी। आमतौर पर लोग अपने बारे में सच बोलने से परहेज करते हैं। अपनी बुराइयों को छिपा लेते हैं और अच्छाइयों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं। यहाँ तक कि कई लोग अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने में भी कोई कसर नहीं छोड़ते। आपकी तारीफ पूछो तो बस अपनी तारीफ ही बताएंगे और शुरू हो जाएंगे। उनके दादा स्वतंत्रता सेनानी थे। पिताजी अपने जमाने के ग्रेजुएट फर्राटेदार अंग्रेजी बोलते हैं। एक दूर के रिश्तेदार मंत्री भी निकल आएंगे साब। अब का करिएगा। किसी का मुँह तो बंद कर सकते नहीं। छेड़ा आपने है तो झेलेगा कौन? अब बात काटना भी मुश्किल। कहीं सच में किसी बाहुबली विधायक के रिश्तेदार निकले तो आपकी खैर नहीं।
बात यहीं खत्म नहीं होगी। उन्होने चाय के लिए पूछ लिया तो आप भी गदगद। एक बड़े पहुँच वाले से मित्रता का मौका भला कौन छोड़े। हाँ, अब तक चुपचाप सुनना सीख ही जाएंगे। गप सुनते-सुनते(करते-करते नहीं) देर रात को घर की याद आ जाएगी और उनका मोबाइल नंबर लेना नहीं भूलेंगे। आगे काम आएगा। क्या पता कब रात को हेलमेट-चेकिंग में,ट्रीपल राइडिंग में पुलीस से पंगा हो जाए। अब आप हेलमेट घर में छोडना भी सीख जाएंगे, मंत्री जी के आदमी जो हैं।
इसी तरह ये मिलने-जुलने,फोन करने का खेल चलता रहेगा। धीरे-धीरे आप भी अपनी बोरिंग पढ़ाई छोड़ रैलियों, प्रदर्शनों में अपनी सक्रिय भागीदारी लेंगे। नेताजी से अब निजी परिचय भी हो गया। अब कुछ कमाई-धमाई भी हो। कुछ ठेका-पट्टा के लिए दौड़-धूप किए तो पुराने ठीकेदार के पेट पर लात पड़ने लगी। हो गई दुश्मनी। एक बार मार-पीट का सर्टिफिकेट भी ले लिए थाने से। अब तो अपना राज है। गली से गुजरे तो हर कोई नमस्कार-प्रणाम के बिना बात न करे। अब हाथ में खुजली कि एकाध को टपकाए बिना खत्म ही न हो। आखिर कृष्ण-जनमस्थल-दर्शन के लिए इसके सिवा उपाय ही क्या है।
चलो भइया ठीकेदारी हो गई। जेल-यात्रा भी हो गई। अब जीवन का अंतिम लक्ष्य बचा। वही जो पहले नहीं था लेकिन पिछले कुछ सालों में पहली पसंद बन गया। मंत्रीजी के आगे-पीछे रहके जो सत्ता-सुख के लिए लार टपकता, वह कब पूरा होगा। अब तो इतना बता दिए तो समझ ही गए होंगे। नहीं समझे तो मुश्किल है जिंदगी। अब भी मौका है, किसी बड़े भाई साहब से दोस्ती गाँठिए। ओके बाय!बेस्ट ऑफ लक।

यह अग्निपरीक्षा का युग है¡


-शिशिर सिंह, जनसंचार सेमेस्टर-II


राम जी त्रेता युग के थे और हम कलियुग के हैं। आप कहेंगे कि इसमें क्या खास बात है। नहीं है ना। मैने तो इसे इसलिए लिखा कि मुझे कुछ तो लिखना था। तो जैसे एक कहावत है कि अंग्रेज चले गए पर अंग्रेजी छोड़ गए। वैसे ही एक और कहावत है कि सीता-राम चले गए पर अग्निपरीक्षा छोड़ गए। इसमें दो राय नहीं है कि हम उस राम-सीता वाले युग से कहीं आगे हैं। पर इस ‘अति’ आधुनिक (‘कलि)युग’ में भी अग्निपरीक्षायें होती हैं। सीताजी को अपने पूरे कार्यकाल (भाई हम तो कार्यकाल ही कहेंगे, अपनी इच्छा से मृत्यु तक को वरण करने की हैसियत रखने वाले लोग जीवनकाल पूरा नहीं करते, बल्कि कार्यकाल करते हैं।) में एक ही अग्निपरीक्षा देनी पड़ी थी। इस युग में एक नहीं अनेकों परीक्षायें देनी पड़ती है। अग्निपरीक्षा पिता से सच्चा प्यार करने की, मां के दुलारे होने की और सबसे महत्वपूर्ण इस बात की कि जो प्यार आप अपने रिश्तेदारों के इतर इधर-उधर बांट रहे हैं वह ‘सच्चा’ है। इस अग्निपरीक्षा का मंच है टेलीकॉम वर्ल्ड। भावनाओं से किस कदर घिनौना खेल खेला जाता है इससे वह लोग भलीभांति परिचित होंगे जो थोड़ा भी नाता ‘शॉर्ट मैसेजिंग सर्विस’(एसएमएस) से रखते हैं। पैसा बटोरने और खुद को बाजार में बनाये रखने की जरूरतों को पूरा करने के लिए ‘इमोशनल एसएमएस’ का यह खेल खेला जा रहा है। हाल ही में मुझे ‘सच्चे भारतीय’ होने का सबूत देना पड़ा। कारण सानिया पाकिस्तानी लड़के से निकाह कर रही थी। भारत माता(संस्कृति) चिढ़ गई। कारण भले ही हमारे यहां कि लड़कियां कनाड़ा, अमेरीकी देशों में जाकर बेगार और जानवरों की तरह जिंदा लाश बनी रहें पर उनको पाकिस्तान तो नहीं भेज जा सकते हैं ना। हमारी राष्ट्रीयता पर आंच आती है, हमें ठेस पहुंचती है! ऐसे-ऐसे मैसेज आए कि उन्हें सिर्फ पढ़ा जा सकता है, यहां पर लिखा नहीं जा सकता। वैसे भी मेरे दोस्त(जो कमेंट करेंगे) उसकी भाषा बढ़िया तरीके से जानते होगें केवल इसलिए नहीं कि हम युवा है बल्कि इसलिए कि मेरे पास वो मैसेज उनके माध्यम से ही आए थे। इसी तरह की समय-समय पर हमें कई अग्निपरीक्षायें देनी पड़ती है। कभी श्रवण कुमार होने की, कभी सच्चे दोस्ते होने की और अमूमन सच्चे प्रेमी होने की। इन सब कयावदों से जब काम नहीं चलता तब काम टेढ़ी उंगली कर निकाला जाता है। घरवालों की उम्र में इजाफा करवा लें, भगवान को नाराज न करें, उनकी कृपा को बनाए रखें। इस मैसेज को फॉरवर्ड जरुर करें वरना आपका सच्चा प्यार सच्चा नहीं रहेगा वो मिलेगा भी नहीं आदि-आदि। इन सबके अलावा कई समसमायिक घटनायें भी आपको खुद को साबित करने की इस दौड़ में अपना योगदान देती हैं, मसलन दंतेवाड़ा में हुए कायराना हमले में पुलिसकर्मी शहीद हुए, अगले दिन फिर परीक्षा देनी पड़ी।

ये समझ में आने लगा है कि ये सब टेलीकॉम कंपनियों के रहमोकरम पर ही होता है। इसके बावजूद मैं देश की सरकार, हमारे नेताओं से इस पर ध्यान देने की अपील बिल्कुल नहीं करुंगा। उन पर वैसे भी बहुत काम हैं।

(नोट : अगर आपने इस लेख को ध्यान से पढ़ा हो या इस अनुभव को झेला हो तो आप पायेंगे कि कभी आप पर इस बात को साबित करने की नौबत नहीं आई कि आप एक सच्चे पति या पत्नी हैं कि नहीं? यह एक अनुत्तरित प्रश्न भी हैं, कृपया उत्तर दें)
... और अंत में

छात्रों का ब्लाग है। जाहिर सी बात है दूसरी तरफ शिक्षक भी होंगे। कुछ मर्फी के नियम जिसके जरिए छात्रों के दर्दों का बयां (सभी तरह के शिक्षकों के लिए)...
प्रत्येक शिक्षक यह सोचता है कि विद्यार्थी के पास उसके द्वारा दिए गए गृहकार्य को करने के अलावा अन्य कोई कार्य नहीं होता है।
मुख्य (फाइनल) परीक्षा में पूछे जाने वाले प्रश्नों में से अस्सी प्रतिशत उस पुस्तक से आते हैं जिन्हें आपने नहीं पढ़ा तथा जिनके लैक्चर आपसे छूट चुके होते हैं।

Saturday, April 24, 2010

ये है नक्सलियों का असली चेहरा

- कुंदन पाण्डेय
पुलिस एवं केन्द्रीय सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, नक्सलवाद जो कि जन आन्दोलन के रुप में प्रारम्भ हुआ था, आज संगठित अवैध वसूली (लेवी) पर आधारित 1500 करोड़ रुपए का (रेड़ कॉरीड़ोर) साम्राज्य बन गया है। आप को यह जानकर आश्चर्य होगा कि नक्सली अपनी आय की गणना के आधार पर विस्तृत वार्षिक बजट भी बनाते हैं। उपरोक्त तथ्य वर्ष 2008 में पुलिस द्वारा जब्त नक्सलियों के दस्तावेजों एवं सीडी से ज्ञात हुआ कि नक्सली अपनी आय की गणना के आधार पर विस्तृत बजट भी बनाते हैं।
नक्सल प्रभावित राज्यों व क्षेत्रों में कार्य करने वाले व्यापारियों, ठेकेदारों एवं क्षेत्रीय लघु-उद्यमियों से नक्सली भारी मात्रा में अवैध वसूली करते हैं। साथ ही साथ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कुछ बड़े औद्यौगिक समूहों से भी ये बड़े पैमाने पर धन की वसूली करते हैं।
नक्सलियों द्वारा जारी कुछ विशिष्ट प्रकार के कार्ड भी सुरक्षा बलों ने प्राप्त किए है जो ठीकेदारों, व्यापारियों, पेट्रोल-पंप मालिकों, जमींदारों को देकर उनसे निश्चित मात्रा में वसूली की जाती है। जैसे सड़क-निर्माँण के ठेकों में 10% तथा पूलों के निर्माण में 5% तक वसूली किए जाने का पता चला है। इसके अतिरिक्त नक्सली आवश्यकता पड़ने पर अपने क्षेत्र के उद्योगों, खानों आदि से रसीद आधारित जबरन चंदा वसूली पहले से ही सूची बनाकर करते हैं।
इसके अतिरिक्त अपहरण-फिरौती से नक्सली किसी उद्योग की तरह काली कमाई करते हैं।जंगलों की लकड़ी का अवैध-व्यापार तो नक्सली निस्कंटक रूप से करते हैं क्योंकि जंगलों में नक्सलियों का एकछत्र राज्य है। वहाँ सुरक्षाबलों के जवानों के अतिरिक्त शायद ही सरकारी मुलाजिम जाता हो। इसके अतिरिक्त गाँजा आदि मादक पदार्थों के व्यापार से भी नक्सली काफी आय प्राप्त करते हैं। सबसे गंभीर तथ्य यह है कि नक्सलियों के इस आंदोलन में आपराधिक तत्वों के सक्रियता से जुड़ते जाने से यह आंदोलन अधिकाधिक आपराधिक होता जा रहा है। इसके कारण आदिवासियों, भूमिहीन किसानों, शोषितों, दलितों व वंचितों का इस आंदोलन में जरा भी विश्वास नहीं रहा। वे केवल बंदूक और गोली के भय से जरूर मूकदर्शक बनकर इसका समर्थन करते हैं।
सुरक्षा अधिकारियों के अनुसार, इस आय का अधिकांश भाग नक्सली नेताओं के विलासितापूर्ण जीवन पर खर्च होता है। दोहरे मापदंड का एक उत्कृष्टतम उदाहरण देखिए, एक ओर तो नक्सली गरीबों और भूमिहीनों, वंचितों व शोषितों के बच्चों को अपने कैडर में जबरन भर्ती करते हैं वहीं दूसरी ओर उनके अपने बच्चे अच्छे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं।

Friday, April 23, 2010

राजनीतिक पार्टियों के पाट में पिसते दलित

-देवेश नारायण राय
पिछले दिनों डा0 भीमराव अम्बेडकर जयंती पर कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी और बसपा सुप्रीमो मयावती के बीच मचे घमासान से एक बात तो स्पष्ट है की दोनो पार्टियाँ दलित वोट बैंक को अपने पक्ष में करना चाहती हैं। बसपा का तो इस पर काफी हद तक नियंत्रण भी है। और कांग्रेस को इस बात का भान हो चुका है कि अगर उत्तर प्रदेश की राजनीति में पैठ बनानी है तो दलित वोट बैंक को अपने पक्ष में करना ही पडेगा। इसी का परिणाम था अम्बेडकर जयंती पर दोनो पार्टियों के बीच का कलह। दोनो पार्टियों के बीच के घमासान से एक बात तो स्पष्ट है प्रदेश की राजनीति में दलितो का महत्वपूर्ण स्थान है। पार्टियाँ भी इन पर अपना नियंत्रण बनाये रखना चाहती है। अपने आप को दलित-हितैषी साबित करने का कोई भी मौका चूकना नहीं चाहती हैं। दलितों का प्रदेश की राजनाति में महत्वपूर्ण स्थान होने का एक प्रमुख कारण उनका संगठित होना है। पर क्या वो संगठित होने के साथ सशक्त भी हैं?

नही! उनके संगठित होने का कारण उनका असशक्त और अशिक्षित होना है। दलितों के मन में हमेशा असुरक्षा की भावना बनी रहती है। इसी बात का फायदा ये राजनीतिक पार्टियां उठाना चाहती हैं और कुछ तो उठा भी रही हैं। वे स्वयं चाहतीं हैं कि दलित शिक्षित और सशक्त कभी न बन पायें। अगर दलित शिक्षित और सशक्त हो गया तो उनके दलित हितैषी होने के स्वांग का पर्दा उठ जाएगा और उनका बोरिया-बिस्तर बंध जायेगा। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दलितों के झोपड़ियों में जाकर, खाना खाकर उनकी सहानभूति पाना चाहते हैं। पर एक बात ये सोचने पर मजबूर करती है कि जिस अमेठी और रायबरेली की सीट ने कई कांग्रेसी प्रधानमंत्री दिए वहां दलितों को आज भी झोपड़ों में रहना पड़ता है। क्या सिर्फ राहुल बाबा के राजनीतिक स्टंट के लिए वहां झोपड़े हैं या कांग्रेस के दलित विरोधी होने के कारण?

इस बात को तो देश की दलित जनता ही तय करेगी। वहीं दूसरी तरफ बसपा सुप्रीमो मायावती दलितों की तथाकथित ख़ैरख़्वाह बनी हुई हैं। दलित सम्मान के नाम पर उत्तरप्रदेश के हर गाँव, हर शहर तालाबों, पोखरों और न जाने कहाँ- कहाँ डा भीमराव अंबेडकर की प्रतिमाएं लगवा रखी हैं। लखनऊ में 800 करोड़ रुपये का अंम्बेडकर पार्क बनवाकर दलितों का सम्मान लौटा दिया। पर क्या इन पार्कों और प्रतिमाओं से दलितों के जीवन-स्तर में सुधार आया? क्या उनके रोजगार सुनिश्चित हुए? क्या उनकी शिक्षा सुनिश्चित हुई? क्या उनपर होने वाले अत्याचार कम हुए? लगता नहीं इन सवालों का जवाब देना पड़ेगा। इनके उत्तर आइने की तरह साफ हैं। उत्तरप्रदेश की हर गली, हर चौराहे पर डॉ0 भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा अपने अपमान और प्रदेश की दुर्दशा के लिए प्रदेश सरकार पर उंगली उठाए खड़ी हुई प्रतीत होती हैं। मायावती जनता के पैसे को मनमाने ढंग से खर्च कर रही हैं। उन्होनें अपने अब तक के कार्यकाल में राज्य-स्तर पर दलितों के लिए कोई बड़ी योजना लागू नहीं की है। उनके अब तक के कार्यकाल में दलितों की उपेक्षा ही हुई है। ये राजनीतिक पार्टियां स्वर्ण-मृग बनकर प्रदेश की दलित जनता को ठग रही हैं। अब प्रदेश की दलित जनता को ही इन राजनीतिक पार्टियों के दलित- हितैषी होने के स्वांग का पर्दाफाश करना पड़ेगा।

Thursday, April 22, 2010

सरकार में दृढ़ संकल्प का अभाव


नक्सलियों से निपटने की रणनीति अस्पष्ट
-कुन्दन पाण्डेय

नक्सल उन्मूलक आपरेशन ग्रीन हंट सुरक्षा बलों के मरने का आपरेशन बनता जा रहा है। छत्तीसगढ़ जिले में 76 सीआरपीएफ जवानों का नरसंहार इसका ज्वलंत उदाहरण है। यह नक्सलियों का अब तक का सबसे बड़ा नरसंहारक हमला है। अतिवादी सशस्त्र हिंसक नक्सली आन्दोलन सन् 1967 में पं. बंगाल के दार्जिलिंग जिला स्थित नक्सलबाड़ी गाँव से पनपा था। आज यह भारत के 626 जिलों में से 20 राज्यों के 232 जिलों के तकरीबन 2000 थाना क्षेत्रों तक फैल चुका है, जो कि देश का लगभग 40 प्रतिशत है।
पिछले कई महीनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कई बार नक्सली हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा एवं गंभीर खतरा बताया है। नक्सलियों से ग्रस्त राज्यों में यदि आंध्रप्रदेश में इसके नियंत्रित होने को छोड़ दिया जाय तो अन्य किसी राज्यों में ये नियंत्रण में नहीं है। छत्तीसगढ़ में सरकार के पास ठोस रणनीति की जगह बयानबाजी अधिक है, साथ ही भ्रष्टाचार व आदिवासियों पर हो रहे जुल्मों को भी रोकने में सरकार लगातार अक्षम साबित होती जा रही है।
नक्सली समस्या का समाधान नहीं होने का प्रमुख कारण यह है कि सभी राजनीतिक दल नक्सलियों को आदिवासियों व मजदूरों का वास्तविक व सच्चा प्रतिनिधि मानते है और उन्हें डर है कि नक्सलियों पर कार्रवाई करने से उनका वोटबैंक कम हो जायेगा और वे चुनाव हारने लगेंगे। लेकिन वास्तविकता यह है कि नक्सलियों का गरीबों, आदिवासियों व मजदूरों की लड़ाई से कोई लेना-देना नहीं है और न ही इन तबकों में नक्सलियों की कोई गहरी पैठ है। यह तथ्य इस बात से प्रमाणित होता है कि नक्सली वर्तमान में प्रत्येक परिवार से एक बच्चे को जबरन अपने काडर में भर्ती कर रहे हैं।
वास्तव में नक्सली देश की सत्ता, माओ दर्शन, “सत्ता बंदूक की नली से मिलती है ” की विचारधारा पर चलकर हथियाना चाहते हैं। लेकिन नक्सली यह भूल जाते हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़े उनकी समझ से परे बहुत व्यापक रुप से गहरी हैं। पिछले 60 सालों में भारतीय लोकत्रंत ने चार युद्धों और सन् 1975 में गृहयुद्ध सरीखे आपातकाल का सफलतापूर्वक सामना किया है। नक्सलियों ने विदेशी हथियारों व मदद के बल पर पं. बंगाल से कर्नाटक तक एक “रेड़ कॉरिड़ोर” बनाया है। जिसमें पूर्वोत्तर के विकास न कर पाये अलगाववादी हिंसा से ग्रस्त राज्य शामिल नहीं हैं।
क्या नक्सली पूर्वोत्तर के राज्यों के विकास से संतुष्ट हैं ? नहीं लेकिन उन्हें विकास नहीं बल्कि बंदूक के दम पर भारत की सत्ता चाहिए। यदि बंदूक की क्षमता से ही सत्ता का फैसला करना माओवादियों को हर हाल में मंजूर है तो सरकार की बंदूक माओवादियों से कई गुना अधिक क्षमतावान है, जो उनकी बंदूकों को अत्यल्प समय में खामोश कर देगी। माओवादियों को हिंसा का रास्ता छोड़ कर अविलम्ब सरकार से बातचीत करना ही होगा अन्यथा सरकार उनको समाप्त कर देगी।
विकास से नक्सलियों का कोई लेना-देना नहीं है इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, पुल, सड़क तथा कानून व व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अपरिहार्य पुलिस थानों तक को बम से उड़ाकर के कैसा विकास चाहते है ? दरअसल नक्सलग्रस्त राज्यों में यदि विकास हो गया ,पर्याप्त रोजगार, स्कूल, कॉलेज, अस्पताल पुल व सड़क की सुविधा हो गयी तो नक्सली अपने काडर में किसकी भर्ती करेगें ? इसलिए नक्सली विकास के सभी आधारों को नष्ट करके वंचित लोगों को दुःखी, जिल्लत, बेबस व लाचार बनाये रखने को कृतसंकल्पित हैं जिससे उन्हें लक्ष्य प्राप्ति तक मानव संसाधन पर्याप्त रुप से मिलता रहे।
गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों, भूमिहीन ग्रामीणों के समर्थन का दम्भ भरने वाले नक्सली चुनावों में विजयी होकर, अपनी विचारधारा की सरकार बनाकर छत्तीसगढ़, झारखण्ड जैसे आदिवासी बहुल राज्यों का विकास क्यों नहीं करते ? वास्तविकता व सच का सामना नक्सली चुनावों में इसलिए नहीं करना चाहते क्योंकि उन्हें भय है कि कहीं हमारी पोल न खुल जाय कि हमारी पैठ केवल बुलेट के भय से है, इंसानी दिलों में तो पैठ है ही नहीं।
दूसरा कारण यह है कि एक किसी राज्य विशेष के चुनावों में करारी हार के बाद नक्सली उस राज्य में समाप्त ही हो जायेंगे।
नक्सली बौद्धिक रूप से दरिद्र प्रतीत हो रहे हैं क्योंकि श्रेष्ठतम उदात्त लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उसके साधन भी श्रेष्ठ होने चाहिए, यह महात्मा गाँधी का कथन है। नक्सलियों को इस लोकतंत्र को कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए कि लोकतांत्रित शासन प्रणाली के कारण ही लोग उसके पक्ष में लेख लिखते हैं, धरना प्रदर्शन करते है। माओ विचारधारा वाले चीनी शासन ने अपने शिनझियांग प्रांत के विद्रोह को जैसे कुचल डाला, वह नक्सलियों भारत सरकार दोनों के लिए स्मरणीय है। सरकार के लिए इस कारण कि वह उसी तरह से नक्सलियों का सफाया कर दे और नक्सलियों के लिए इस कारण कि वह या तो हिंसा का रास्ता छोड़कर बातचीत करके राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल हो जाय या तो सुरक्षा बलों द्वारा कुचले जाने को तैयार रहें।
एक बात शीशे की तरह एकदम साफ है कि भारतीय लोकतंत्र में हिंसा का कोई स्थान नहीं है। पिछले 60 वर्षों के लोकतांत्रिक इतिहास में भारत में एक भी सशस्त्र आन्दोलन सफल नहीं हुआ है। नक्सलियों को हिंसा का रास्ता छोड़ना ही होगा। भारत सरकार नक्सलियों के सामने घुटने टेकने से पूर्व भारतीय सेना का प्रयोग एक बार अवश्य करेगी जिसमें सारे नक्सली अवश्य ही मारे जायेंगे।
आज राजनीतिक दलों की रुचि “ ग्रासरुट पॉलिटिक्स ” में नहीं रही। किसी राजनीतिक दल के नेता और कार्यकर्ता अब सुदूर गाँवों , पिछड़े आदिवासी इलाकों में नहीं जाते। उनके बीच केवल नक्सली ही जाते है इसलिए बेरोजगार युवक नक्सली काड़र बन रहे हैं। नक्सलियों की ताकत छुपी है वंचितों में, शोषितों में, गाँवों में, गरीबों में। व्यवस्थागत अन्याय और भ्रष्टाचार उन्हें ऊर्जा देते हैं। उनके रहनुमा अपने कामकाज, दृष्टि और विचारधारा में स्पष्ट हैं। वे जानते है कि उनकी ताकत का अजस्र स्रोत हैं – गहराती, फैलती सामाजिक आर्थिक विषमता । पर नक्सली सबसे बड़ी ऐतिहासिक भूल कर रहे हैं कि वे भारतीय लोकतंत्र में हिंसा से बदलाव चाहते है। वर्तमान वैश्विक परिदृश्य में यह एकदम असम्भव है।
यह सही है कि आज की व्यवस्था में भ्रष्टाचार मुद्दा नहीं रहा, नैतिक सवाल नहीं रहा, यहाँ तक तो ठीक है परंतु भ्रष्टाचार आज की व्यवस्था में एक शिष्टाचार बनता जा रहा है, यह व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है। पर दुनिया भर के विशेषज्ञ एक सुर में कह रहे हैं कि विकास के रास्ते में भ्रष्टाचार सबसे बड़ा रोड़ा है। झारखंड में भ्रष्टाचार की स्थिति अत्यंत स्तब्धकारी है। नक्सली इस नाजुक मुद्दे को उठाते हैं। अगर नक्सलियों के खिलाफ सरकार वास्तव में निर्णायक अभियान चलाना चाहती है तो उसे अपनी सोच, नीति, कार्यान्वयन, चाल-चरित्र आदि में गुणात्मक परिवर्तन अवश्य करना होगा । दरअसल नक्सली समस्या से निपटने के लिए एक उत्कृष्ट लोकतांत्रिक राजनीति चाहिए , जो जनता के प्रति प्रतिबद्ध , नैतिक , पारदर्शी व ईमानदार हो । यह काम सरकार और राजनीतिक दल ही कर सकते हैं, परंतु वर्तमान कार्यप्रणाली से कतई नहीं .

क्या से क्या हो गया……

-साकेत नारायण
जब कभी मैं अकेला रहता हूँ और भावुक होता हूँ तो मेरा दिल मेरे दिमाग से पूछता है कि ये क्या से क्या हो गया और कभी बिरले जब गलती से कुछ देर के लिए मैं चितंन करता हुँ तो मेरा दिमाग मेरे दिल से पुछता है कि ये क्षेत्र ठीक तो है न? और हमेशा घंटो सरदर्द करवाने के बाद भी मैं ख़ुद को निरुत्तर ही पाता हूँ।

ये प्रश्नो का खेल सन् 2004 में शुरु हुआ जब मैंने दसवी की परीक्षा दी। बचपन से सपना था इंजीनियर बनने का। पर पता नहीं क्यों मेरे भाग्य ने हमेशा मेरे सपनों को अपने ऐटीच्युड पर ले लिया। इस बात का सबसे बड़ा सुबूत मुझे अपनी दसवीं के रिज़ल्ट से मिला और मुझे बारहवीं में बायोलॉजी लेना पड़ा। सपनो में थोड़ा सा चेंज़ आया और अब मैं डॉक्टर बाबू बनना चाहता था। परंतु ये दो साल कब और कैसे खत्म हो गए पता ही नहीं चला। ये दो साल मेरे अब तक के जीवन के सबसे जल्दी खत्म हुए दो साल थे। सपना डॉक्टर बाबू बनने का था और यहां बारहवीं पास करने के लाले पड़ रहे थे। मैंने भी बड़े प्रेम और आदर के साथ बाबूजी को बता दिया कि पिताजी रिजल्ट में डर लग रहा है। पिताजी ने हिम्मत बढ़ाते हुए कहा चिंता मत करो सब ठीक होगा वैसे डर किन विषयों में लग रहा है? मुझ में भी कुछ हिम्मत बढ़ी और मैंने कहा- “केमेस्ट्री, मैथ्स और फिजीक्स में”। अब परिस्थिति बिल्कुल पलट चुकी थी और पिताजी ने बड़े प्रेम और आदर भाव में कहा- “बेटा बचा क्या तुमने तो पाँच ही विषय लिए है”। उस वक्त मैं मानो ये चाह रहा था कि कुछ हो जाए और जमीन फट जाए और मैं उस में समा जाऊँ। पर मुझे ये पता नहीं था कि हमारी ये बात कोई और भी सुन रहा है और एक बार फिर मेरे भाग्य ने इसको अपने ऐटीच्युड पर ले लिया पर इस बार ये मेरे लिए पाजीटिव रहा और मैं बारहवीं पास कर गया।

अब विषय था कि जीवन में आगे क्या करना है। किसी ने बहुत ख़ुब कहा है अगर हौसले बुलंद हो तो राहे ख़ुद-ब-ख़ुद बन जाती हैं और कुछ ऐसा ही मेरे साथ भी हुआ। परंतु इसके पीछे का जो स्ट्रगल है वो मुझे आज तक समझ नहीं आया। बारहवीं पास करने का जश्न मनाने के बाद मुझे बस पता ये था कि कुछ भी हो जाए मुझे एडमिशन लेना है किसी चीज में भी। इसी सिलसिले में, मैं जुलाई में जमशेदपुर पँहुचा और फिर शुरु हुआ रीयल स्ट्रगल। इसी क्रम में एक दिन मैं करीम सीटी कॉलेज पँहुचा और कॉमर्स का फॉर्म लेते-लेते मैंने मास कॉम का फॉर्म ले लिया। देखते ही देखते मैंने रिटेन और इंटरवियु दोनो क्लीयर कर लिया और मैं मास कॉम से बैचलर्स करने लगा। पहले दो साल तक मुझे यही पता था कि मुझे बैचलर्स के बाद एम.बी.ए करना है। पर मुझे ये पता नहीं था कि मेरी इस इच्छा की वजह से पुरी दुनिया को दिक्कत उठानी पड़ेगी। इस बार मेरे भाग्य ने मेरे एम.बी.ए करने की बात को थोड़ा ज्यादा सीरियसली ही अपने ऐटीच्युड पर ले लिया और फलस्वरूप पूरे विश्व में रिसेशन आ गया। अब घर वालो ने कहा बेटा एम.बी.ए छोड़ो और अपने फिल्ड में ही मास्टर्स करो। एक बार फिर मैंने अपने सपनो में थोड़ा सा चेंज किया और अब मैं माखनलाल चतुर्वेदी के जनसंचार विभाग का छात्र हूँ। आज जब कोई मेरे से पूछता है कि आगे क्या करना है और किस फिल्ड में जाना है, तो मेरा दिल मेरे दिमाग से यही कहता है ये क्या से क्या हो गया..............

मोदी और थरूर में हो गई ट्वीट ट्वीट

मोदी और थरूर में हो गई ट्वीट-ट्वीट
कोई बोले कड़वा कोई बोले स्वीट
कोई बोले स्वीट माने कोई ना हार
जुबां-जुबानी हो रही बातों की बौछार
भूल गए हैं दोनों क्या है उनकी सीट
मोदी और थरूर में हो गई ट्वीट-ट्वीट
दीपक त्यागी
MAMC

बदल डालो

-पंकज कुमार साव ,द्वितीय सेमेस्टर

29 अप्रैल 1999 को देर रात एक पार्टी में शराब परोस रही मॉडल को गोली मार दी गई। हफ्ते भर के अंदर मुख्य आरोपी ने समर्पण कर दिया। अन्य अभियुक्त भी गिरफ्तार कर लिए गए। मामले में कई उतार-चढ़ाव आए, कई गवाह मुकरते चले गए और 21 फरवरी 2008 यानि करीब 9 साल बाद आरोपी मनु शर्मा को साक्ष्य के अभाव में रिहा कर दिया गया। गत 19 अप्रैल को अंतिम रूप से उसकी सजा को सुप्रीम कोर्ट ने बरकरार रखा है।
जेसिका की जान गई। परिवार वालों को जो तकलीफ हुई उसकी कीमत क्या मनु शर्मा की उम्रकैद से चुकता हो सकती है? मैं मानता हूँ, सजा तभी सार्थक है जब वह आने वाले समय में अपराध की मानसिकता रखने वाले को डरा सके। लेकिन इस लेटलतीफ फैसले से ऐसा कुछ होने वाला नहीं। ऐसे तो अपराध और सजा का खेल चलता रहेगा। कानून सिर्फ सजा देने की व्यवस्था करेगा, अपराध रोकने की कोई पहल नहीं होगी। ये तो हाईप्रोफाइल मामला था इसलिए मीडिया तक सक्रिय हुई और अंतत: न्याय दिलाने में सफल रही। देश में हजारों बहुओं की हर साल दहेज के लिए हत्या कर दी जाती है, सबको न्याय मिल पाता है क्या? बलात्कार के बाद हत्या की खबरें भी आम है। कितनों को अब तक फाँसी या उम्रकैद हुई है?
बात चाहे नारी अपराध की हो या लूट खसोट या घोटालों की, हर मामले में जितनी लेटलतीफी हमारे देश की न्यायिक प्रक्रिया में होती है उससे अपराधियों का मनोबल तो कहीं से नहीं घटता। कई बार तो यही अपराध आदमी को उपर उठाने में मदद करते हैं। हमारी संसद और विधानसभाओं में दागी जनप्रतिनिधियों की जो संख्या है वो यही तो बयान करती है। पार्टियाँ भी टिकटों का बँटवारा करते समय उसी को खड़ा करने में अपनी भलाई समझती हैं जिसकी छवि दादा टाइप हो, दो-चार मुकदमें चल रहे हों या और भी बहुत कुछ। पिछले दिनों राज्य-सभा के सांसदों पर आरोपों की खबरें आने लगीं। जब देश के कर्णधार ही ऐसे होंगे उस देश की कानून-व्यवस्था का तो भगवान ही मालिक है। जेसिका लाल, शिवानी भटनागर, प्रियदर्शिनी भट्ट तो अपवाद मात्र हैं। देश मे हजारों जेसिकाओं मीडिया नहीं पहुँच पाती और न्याय तो मुश्किल से।
विश्व के सबसे लोकतंत्र की यह हालत भविष्य में गर्त की ओर ले जाने वाली है। कई देशों के संविधान का पुट लेकर हमनें किया क्या जब एक-एक फैसले में इतने दिन लग जाते हैं। आरोपी अगर रसूखदार परिवार का हो तो सजा दिलाना टेढ़ी खीर। दिनों दिन अपराध बढ़ रहे हैं, इस पर लगाम लगाने का काम आम आदमी तो कर नहीं सकता। प्रशासन अपने काम में इतनी मजबूर क्यों दिखती है? जिस पुलीस-व्यवस्था को अंग्रेजों ने भारत के शोषण के लिए स्थापित किया था उसी की फोटो-कॉपी से आजाद भारत में काम चल रहा है। जनता तो त्रस्त होगी ही। वही शोषक न्याय व्यवस्था अब तक चल रही है तो आजाद देश का क्या मतलब? न्याय सिर्फ बड़े और ताकतवर लोगों की जागीर बनकर रह गई है। बापू, अंबेडकर के सपनों का भारत क्या यही है? सवाल तो कई हैं पर जवाब भी आने शुरू हो गए हैं। जब स्थिति बद से बदतर हो जाए तो आमूल-चूल परिवर्तन की जरुरत होती है। एक फैसले से खुश ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है।
आजादी के समय स्थिति कुछ और थी आज दुनिया काफी बदल चुकी है। अब तक के समय को संविधान के एक्सपेरिमेंट का वक्त मानकर समग्र बदलाव के लिए सोचने का वक्त आ गया है। देश में विचारकों की कमी नहीं है। यहाँ से निकलकर लोग विश्व में झंडा गाड़ रहे हैं। अपने देश में उन्हें माहौल नहीं मिलता। प्रतिभा का सम्मान यहाँ नहीं होता तो उपयोग भी तो वहीं होगा जहाँ उसको इज्जत मिलेगी। फिर हमारे ही लोग दूसरों के काम नहीं आएंगे तो और क्या होगा? कुल मिलाकर इस रक्तहीन-क्रांति के लिए हर खास ओ आम को तैयार होने और अपने-अपने स्तर से कोशिश करने की जरूरत है।
और अब अंत में जेसिका के परिजनों के जज्बे को सलाम जो जिन्होने ऐसी व्यवस्था में हिम्मत नहीं खोई।

Monday, April 19, 2010

बनारस

-देवेशनारायण राय
भारत विभिन्न सभ्यताओं संस्कृतियों का देश है। हर राज्य की अपनी संस्कृति अपनी पहचान है, हर राज्य की क्या हर शहर की अपनी संस्कृति अपनी पहचान है।

बनारस उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के तट पर बसा एक धार्मिक शहर है जो अपनी संस्कृति, मस्ती और ज्ञान के लिये पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। हिन्दू मतावलम्बियों के लिये बनारस का बडा महत्व है बनारस को भगवान शिव की नगरी कहा जाता है।प्रचीन काल में इसका क्षेत्रफल 25 कोश हुआ करता था पर अब इसका विस्तार हो गया है।बनारस की एक विशेषता यह है की इसके दो और प्रचलित नाम है काशी औऱ वारणसी पूर भारत में यही एक ऐसा शहर है जिसके तीन नाम हो और तीनो समान रूप से प्रचलित हो।

इन नामों का एक सार्थक अर्थ है वरूणा और असि नदींयो के बीच बसे होने के कारण इसे वाराणसी कहा जाता है, शिव की नगर होने के कारण इसे काशी कहते हैं,रसिको का शहर होने के नाते इसे बनारस कहते है।25 कोश के इस छोटे शहर में चार विश्वविद्यालय है जिसमें से बीएचयू क्षेत्रफल के दृष्टी से एशीया का सबसे बडा विश्वविद्यालय है।

बनारस पूरे विश्व में अपने मनोरम घाटो और आध्यात्मिक ज्ञान के लिए प्रसिद्ध है। विश्व कोनेकोने से पर्यटक यहाँ की संस्कृति को जानने के लिए बडी संख्या में बनारस आते है। कहा जाता है बनारस बाबा भोले की नगरी है 12 ज्योतिर्लिंगो में से एक विश्वनाथ ज्योर्तिलिंग यहीं है सिर्फ यही बनारस के प्रसिद्धि के कारण नहीं है यहां की हर चीज़ अपने आप में आकर्षक है यहाँ का खान पान, रहन सहन बोल चाल सब कुछ एक प्रचलित कहावत है की शामे अवध और सुबहे बनारस बडी हसीन होती है। बनारस का सुबह बडा आकर्षक होता है भोर में गंगा के घाटो पर नहाते लोग और दूसरी ओर से उगता सूरज यूँ लगता है मानो गंगा से नहा कर निकल रहा हो मंदिरो के घंटों घडियालो की ध्वनी वेद मंत्रो का उच्चारण वतावरण को एक दिव्यता प्रदान करते है । बनारस की मिठाईयाँ बनारस का पान बनारसी साडीयाँ विश्व भर में अपनी अलग पहचान रखती है। बनारस की भाषा अपने फक्कडपन और मिठास के लिए मशहूर है।

बनारस प्राचीन काल से ही ज्ञान का केन्द्र रहा है अनेक ने विद्वानो मनव कल्याण और देश के लिए अपना मुल्यवान योगदन दिया है इनमें बुद्ध, कबीर, तुलसी, भारतेंदु हरीशचन्द्र, प्रेमचन्द्र, बाबू विष्णुराव पराडकर ,शिव प्रसाद गुप्त, न जाने कितने ऐसे महापुरूषो का इस धरती से सम्बन्ध है। धन्य है वो लोग जिनका इस महान भूमी से सम्बन्ध है।

3-जी - एक मुट्ठी में दुनिया

अन्नी अंकिता

आज हर दिन नये-नये तकनीकों की खोज की जा रही है। मनुष्य उन तकनीकों से जुड़कर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा है। वाकई तकनीक की इस नयी क्रान्ति यानि 3-जी मोबाइल फोन सेवा लोगों की जीवन शैली और काम करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाएगी। यह सोचना काफी दिलचस्प है कि 3-जी मोबाइल, संचार की दुनिया में कितनी रंगीन और मजेदार हो जाएगी।
अगर हम 3-जी मोबाइल सेवा का प्रयोग कर रहे है तो हम अपनी पत्नी से झूठ नही बोल पांएगे कि मैं आफिस की मीटिंग मे हुँ और मुझे आने में देर हो जाएगी, क्योकि 3-जी सेवा में न केवल चेहरा दिखायी देता है ब्लकि हमारे आस पास का दृश्य भी दिखाई देता है । इसकी सहायता से टेली मेडिसिन और सिटीजन जर्नलिज्म जैसे प्रयोगों को काफी प्रोत्साहन मिलेगा। यानि कोई भी व्यक्ति किसी भी घटना का लाइव विडियो रिकार्ड करके उसे अपलोड कर सकता है। इससे मीड़िया की ताकत बढ़ेगी और विकासशील खबरो की ओर मीड़िया का ध्यान बढ़ेगा ।
हमारे देश में इंटरनेट सभी जगहों पर उपलब्ध नही है पर दूर-दराज के इलाके जहाँ पहुँच पाना मुश्किल है वहाँ 3-जी मोबाइल सेवा की सहायता से न केवल दूर-दराज के इलाकों से जुड़ा जा सकेगा बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में भी यह सेवा लाभदायक साबित होगी। छोटे शहरों तथा गाँवों में 3-जी सेवा के माध्यम से लोगों को शिक्षा के साथ जोड़ा जा सकेगा। कुल मिलाकर 3-जी सेवा लोगों को एक मुट्ठी में लाने का काम करेगी।

घटनाएं जो भूलती नहीं



-अंशुतोष शर्मा
यूं तो घटना होती रहती है कुछ घटनायें भुला दी जाती है तो कुछ घटना छोड़ जाती है अपनी छाप सवाल। सवाल ये कि क्या जो लोग योजनायें बनातें हैं वो उन्हें क्रियान्वित भी करवाते हैं? कई सवालों से घिरी यह घटना कोई कोरी कल्पना नहीं अपितु तस्वीर है उस भारत को जहां सिर्फ योजनायें बनतीं हैं और उन पर होती है कोरी कागजी कारवाई। घटना वैसे तो कोई बड़ी नहीं थी पर सरकारी योजनाओं की पोल खोल रही थी।
घटना क्या थी और कितनी मार्मिकता भरी धी, ये तो आप लोग ही निश्चित कर सकेंगे.त यूं तो मैं रोज ही विश्वविद्यालय से घर को लौटता हूं। किंतु आज का दिन कुछ सवाल और कुछ दर्द मेरे दिल पर छोड़ गया। शाम को देखा तो एक 6 साल की लड़की अपने उम्र से ज्यादा ही जोखिम भरे करतब दिखा रही थी और करतब भी ऐसे कि रुह कांप जाए।
अपनी ऊंचाई से भी कई गुना ऊंची तनी रस्सी पर इस अबोध बालिका का चलना इसकी मजबूरी और गरीबी को दर्शा रही थी। सोचा पूछ लूं कि वो क्यों ऐसा कर रही है , जिस उम्र में पढ़ने का जज्बा, खेलने की उमंग और हसीन सपने देखे जाते हैं। वहीं इतना जोखिम क्यों तो उसका जबाब मेरी ऑखों को रुला गया उसका जबाब था “साहब ये सब ना करेंगे तो इस पेट को कैसे भरेंगे” ये सुना तो सोचा इतनी सी बच्ची और इतनी ब़ड़ी सोच, उसके साथ आए उसके भाई से पूछा कि तुम इससे क्यों करा रहे हो तो उसका जबाब था “साहब बच्ची को देखकर ज्यादा कमाई होती है”।
सोचता हूं कि जब सरकार इतना काम कर रही है तो ऐसे में ये बच्चे कहां छूट जाते हैं और योजनायें बनती भी हैं तो फिर किन व्यक्तियों के लिए। बजट में करोड़ो रुपये बीपीएल और ऐसे बच्चों के लिए होते हैं तो वो कहां चले जाते हैं और उनका उपयोग होता क्यों नहीं है।
फिर मुझे ध्यान आई मध्य प्रदेश सरकार की लाड़ली योजना की जो बनाई गई है , ऐसे ही बच्चों के लिए जो असमर्थ है शिक्षा प्राप्ति के लिए पालन, पोषण के लिए यह शायद ये योजनायें कागज पर ही संवर कर रह गई।
जब सरकार ऐसी योजनायें भलीभांति चला बना नहीं सकती तो बनाती ही क्यों है शिक्षा का अधिकार शिक्षा मिले पर कितने बच्चों को शिक्षा मिल रही है, ये कौन तय करेगा। सदन में पास हुए बिल में प्राईवेट संस्था में 25 प्रतिशत सीटें ऐसे बच्चों के लिए है पर 75 प्रतिशत बच्चों का क्या होगा. सरकार जो पैसा इन बच्चों के लिए रखती है वो खर्च हो गए , फिर पैसा गया तो कहां गया???ऐसे लोगों को अधिकार नहीं पैसा चाहिए, पेट को निवाला चाहिए ताकि वो चैन से सो सके। सड़क किनारे चल रहा ये तमाशा जो लोग भी देख रहे थे, जो सामाजिक सुधार लाने को इच्छुक हैं। ऐसे में निगाहें खोज रही थी ऐसे समूह को जो वैलेंटाइन ड़े के विरोध में सड़कों पर आतंक मचाते हैं पर ऐसे लोगों की सहायता में उनके ये हाथ और जोश ठंड़ा क्यों हो जाता है। गरीबी और अशिक्षा के चलते न जाने कितने ही मासूम अपनी भूख मिटाने और मजबूरी के चलते ऐसा जोखिम उठा रहे हैं, पर हमारी सरकार अंधी बनी हुई है। सरकारी अफसरों को चाहिए कि वो आंकड़ो पर न जाकर क्षेत्रों में जाए और देखे कि योजनाओं की क्या स्थिति है और कौन-कौन लाभ की प्रतिक्षा में है। यदि इसी तरह मासूमों की स्थिति रही तो अब्दुल कलाम के 2020 का सपना सपना ही रह जायेगा।
अब सोचना है कि ऐसी योजना बनाने का क्या लाभ जिनके असली हकदार ये जानते ही नही कि उनके लिए सरकार ने कोई योजना चला भी रखी हैयय आखिर इन छूटे हुए बच्चों पर कब ध्यान जायेगा यह देखना बाकी है। "अब बारी है आपकी" सोचने व समझने की और सरकार को चेताने की कि स्थिति क्या है और कितनी ज्वलंत है।

Saturday, April 17, 2010

अब दलित मुक्ति के सवाल पर सोचिए


सही मायने में बाजारवादी व्यवस्था ही है दलितों की असली शत्रु
-संजय द्विवेदी

पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है।
पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही । सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे । उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था । सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया । सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया । उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।
सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है । क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था । दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं । इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए । समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगें।

Send her with Love and Pride………


-saket narayan
India is a democratic country and we all are very free to make our own decision regarding our own life. Similar is for her even. It’s her life and she has got the right to make the decision for her life. What the hell problem we all are having and why are we having this problem?
She is the pride to the nation, she has brought many glory to the country. Then why now these scenes are being created. It’s her marriage and it’s her decision whom to marry and when her family is also ready then why to do all these? We are the Indian one who honour and respect its guest, we tell “atithi devo bhawa” and what are we doing now with Shoaib?
At present he is not a Pakistani. He is the groom of the country’s one of the most endearing daughter Sania Mirza. When the lady won medals and titles she was the pride daughter of the nation but now on just a decision of her marriage with a Pakistani cricketer, has snatched all her credits. To what extent is this ethical and logical?
Either we Indians should learn to accept and welcome decisions like this or we should put off the mask of diplomacy and democracy. These big things should not just be on paper but should be practically practiced. It really would have been an honour and pride if the entire country would have welcomed her decision and would have supported her. But we couldn’t do so, now also it is not late. Let’s come forward and send her with promise of always giving her the honour of being the one of the most endearing and pride daughter of ours and her motherland India. Please send Sania with love, honour, care, pride and well wishes for her upcoming married life. May God Bless Her……………!!

Thursday, April 15, 2010

गलती से मैं लेट हो गया



-साकेत नारायण
मुझे पता है में लेट हो चुका हूं कानू भैया को श्रद्धांजलि देने में। लेकिन आप समझ सकते है कि इस व्यस्त जिंदगी में खुद के लिए समय नहीं मिलता है और फिर दूसरों, वो भी कानू भैया जैसे महान व्यक्ति के लिए तो समय निकालने के लिए एक सुनियोजित योजना बनानी पड़ती है। किसी ने बहुत खूब कहा है कि इस तेज रफ्तार जिंदगी में अपनी जगह पर खड़े रहने के लिए भी दौड़ना पड़ता है। बस इसी वजह से मैं लेट हो गया।
कानू भैया एक महान व्यक्ति थे। परंतु मुझे ये समझ में नहीं आता की हमें किसी भी महान व्यक्ति की महानता का पता उसके मरने के बाद ही क्यों चलता है। कानू भैया अगर महान थे तो वो 23 मार्च 2010 से पहले भी महान जरुर रहे होगें। एक व्यक्ति जिसने नक्सलवाद जैसा विद्रोह करवा दिया वो आम नहीं हो सकता। अगर कानू भैया आजादी से पहले आए होते तो हमारा भारत शायद 1947 से पहले ही आजाद हो चुका होता। लेकीन ये मनुष्य की विडंबना है कि उसे समय से पहले और भाग्य से ज्यदा कुछ नहीं मिलता।
कानू भैया महान थे इसमें कोई दो राय नहीं परंतु वर्तमान में नक्सलवाद को देख कर अपने इस विचार पर एक बार संसय होता है। लेकिन इस संसय का ये कतई अर्थ नहीं है कि कानू भैया महान नहीं थे। आज कल के बच्चे जब बड़े हो जाते है तो वो अपने पिताजी के कहे में कहाँ रहते है। बस ऐसा ही कुछ नक्सलवाद के पिता कहे जाने वाले कानू भैया के साथ भी हुआ। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है, अकसर ही महान लोग अपने बच्चों को अपनी महानता नहीं सिखा पाते और हमारे कानू भैया भी तो एक महान व्यक्ति ही थे।
मैंने शुरु में ही कहा था मैं लेट हो चुका हूं तो आप ये सोच रहे होगे की मुझे ये याद कैसे आया की में लेट हो चुका हूं। बस 7 अप्रैल के दंतेवाड़ा के नक्सली हमले के बाद। मुझे नहीं पता था कि मेरी इस छोटी सी भूल का ये परिणाम होगा। अगर आपने भी अभी तक कानू भैया को श्रद्धांजलि नहीं दी है तो जल्दी करे कही आप भी लेट न हो जाए। क्योंकि मुझे अपने लेट होने पर बहुत अफसोस है।

जब प्यार किया तो डरना क्या..


-सोनम झाजब प्यार किया तो डरना क्या....,ये बाते सिर्फ फिल्मों में हीं अच्छी लगती है। क्योकिं आम जीवन में चाहे कोई भी हो इस दुनिया से डरना हीं पड़ता है। चाहे वो गली के कमसिन मोहब्बती जोड़े हों या फिर अपने-अपने देश के शीर्ष खिलाड़ी।
इस जमाने से वो इतने सहम जातें हैं कि शादी की तारीख जो तय की गयी है उससे पहले हीं वे दोनो शादी के बंधन में बंध जाते हैं। जी हां बात हो रही है शोएब और सानिया के निकाह की जो होनी थी 15 अप्रैल को और हो गयी 12 अप्रैल को तमाम बवालो और अड़ंगो के बाद सानिया आखिरकार शोएब की शरीके हयात बन हीं गयी। बेकरारी का आलम ये रहा कि इतने फसादो के बीच वो तीन दिन पहले ही एक दूसरे के हो लिये, और चरितार्थ कर दिखाया इस गीत को कि है अगर दुश्मन दुश्मन जमाना गम नही...., ना जाने कितने उतार चढ़ाव और अजीब रास्तों से गुजरी है ये दिल-ए-दाश्तां। शोएब की पूर्व कथित पत्नी आयशा सिद्दीकी ने क्या- क्या दिन दिखाये कि शायद इसके बारे मे कभी उन्होने ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा। मोहतरमा ने शोएब पर यातना,धोखाधड़ी, मानहानि सहित चार आरोप लगा डाले जो भी हो सानिया सदा शोएब के साथ रही हैरान रहीं, परेशान रहीं पर साथ रहीं। और साथ ही उन्होने नही छोड़ा दामन आशा और उम्मीद का। सानिया ने साफ तौर पर कहा कि मैने कभी नहीं सोचा था कि शादी के समय ऐसी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन उम्मीद है कि जल्द सब कुछ ठीक हो जायेगा। मुझे और मेरे परिवार को पता है कि सच क्या है। हमें खुदा के इंसाफ पर पूरा भरोसा है। सानिया सदा यहीं कहती रहीं कि मैं पूरी तरह से शोएब के साथ हूं। साथ ही सानिया ने ये भी कबूल किया कि हो रहे विवादों के चलते मेरी रातों की नींद उड़ गयी है और भावुक होकर वो यह भी कह बैठीं की मैंने कभी सोचा नही था कि अपनी शादी में मुझे मेहंदी के अलावा किसी और बात के लिये इतना सोचना पड़ेगा। ये रहीं वो समस्याएं जिसका पूरा श्रेय आयशा सिद्दीकी को जाता है। अभी ये विवाद थमा ही नही था कि शोएब और सानिया की शादी के मामले में काजी शाहब कूद पड़े। दोनो के शादी से पूर्व साथ रहने को हराम ठहराते हुये सुन्नी उलेमा बोर्ड ने फतवा जारी कर दिया।
उलेमा बोर्ड ने यहां तक अपील कर डाली कि मुस्लिम समुदाय इस शादी से दूर रहे। दारु उलूम, देवबंद के उलेमाओं ने भी सानिया और शोएब के साथ रहने को नाजायज करार दिया है। ये कोई पहली बार नही हुआ है कि किसी सेलीब्रेटी की शादी में ऐसी बात हुयी है,पर एक अलग बात जो इसमे जो रही वो यह है कि ये सिलसिला बहुत लम्बा चला। सानिया किस देश के लिये खेलेंगी, वो किसका साथ देंगी जाने कितने सवालों से सानिया को गुजरना पड़ा।
लेकिन चाहे जो भी हो कहते है अंत भला तो सब भला अब तो कामना यही है कि ये जोड़ा खुश रहे। और शादी से पहले जिस मुश्किल दौर से इन्हे गुजरना पड़ा है भविष्य में फिर ऐसा इनके साथ ना हो और अब सभी के दिल से इनके लिये बस यही दुआ निकले मुबारक हो तुमके ये शादी तुम्हारी सदा खुश रहो ये दुआ है हमारी....

नक्सल पर नकेल जरूरी

-कृष्णकुमार तिवारी
नक्सलवादियों को शांति प्रस्ताव भेजा जा रहा है...... नक्सलवादियों से बात करेगें............ जैसी बात करने वाले नेताओं को शायद इसी दिन का इंतजार था कि कब कोई घटना घटे और फिर वही पुराना घड़ियाली आंसू बहा सके। जिस सरकार पर विश्वास कर युवक सेना में भर्ती होते है। क्या सरकार ने भी कभी उन लोगों के विश्वास को कायम रखने की कोशिश की ? शायद नही।
आखिरकार जवानों की मौत पर मौत होने से तो यही बात सामने आती है। हम ज्यादा पीछे ना जाए तो भी यह देख सकते है कि सरकार द्वारा केवल अपनी छवि को साफ-सुथरा बताने के चक्कर में कितनें जवानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। एर्राबोर क्षेत्र में 2005 मे हुए एक नक्सली हमले में पुलिस के 30 जवान शहीद हो गए थे।वर्ष 2007 मे नक्सलीरयों ने बीजापुर जिले के रानीबोद पुलिस पर हमला कर 55 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। वहीं पिछले साल जुलाई के एक हमले मे राजनांदगांव जिले के पुलिस अधीक्षक विनोद कुमार चौबे समेत 29 पुलिसकर्मी शहीद हो गए थे और मंगलवार को दंतेवाड़ा जिले के चिंतलनार और टारमेटला गांव के बीच घटी घटना । इसमें केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल के असिस्टेंट कमांडेंट मीणा और डिप्टी कमांडेंट सत्यवान समेत 75 पुलिसकर्मी शहीद हो गए।
इतनी बड़ी घटना के बाद सरकार की कुंभकर्णी नींद टूटी है। अब जाकर कहीं सरकार कड़ी कार्रवाई की बात कह रही है। अगर वास्तव में किसी को कटघरे मे खड़ा करना चाहिए तो उन प्रबुद्ध वर्ग को जो नक्सलवादियों का समर्थन करते है। जिनको नक्सलवाद कहीं ना कहीं सही लगता है। उन समर्थकों को अपने आप से केवल एक सवाल करना चाहिए कि क्या अपनी बात को मनवाने के लिए इतने मासूमों की जान लेना सही है। आखिरकार जब सरकार खुद इस बात के पक्ष मे है कि अपनी बात को आप आगे आके रखे तो फिर यह क्या है?
अभी तक का यह प्रमाण रहा है कि नक्सली केवल और केवल खून खराबे से ही अपनी बात मनवाना चाहते है लेकिन शायद वे ये बात भूल गए है कि यह लोकतंत्र है इसमे सभी को अपनी बाते अपने तरीके से रखने की पूर्ण स्वतंत्रता है। समजसेवी कहे जाने वाले विनायक सेन को छत्तीसगढ़ सरकार ने नक्सलवादीयों का मास्टर माइंड मान कर जब पकड़ा तो यह लोकतंत्र ही था जब देश से ही नही बल्कि विदेश से भी उसके समर्थन मे लोगो मे अपनी बात कहीं । आखिरकार आज विनायक सेन सलाखो से बाहर है। फिर क्यो नक्सली वो रास्ता नही अपनाते जिससे कोई बीच का रास्ता निकाला जा सके। आखिरकार उन मासूमों का क्या दोष जो इस खेल के शिकार हो रहे है।
छत्तीसगढ़ सरकार का द्वारा भी सलवा जुडूम यानि शांति का संदेश नामक एक सेना तैयार की गई । लेकिन एक समय बाद उसमे भी कमियां आ रही है। किसी भी प्रकार के विवाद का सही हल तो यही होना चाहिए कि कोई ऐसा रास्ता निकाला जाए ताकि अब फिर किसी भी खून-खराबे को रोका जा सके।

भक्षक नहीं रक्षक हूँ….


-कृष्ण मोहन तिवारी
मुझे दुनिया के सबसे तेज-तर्रार , फुर्तीले, विवेकी एवं ताकतवर स्तनधारियों में से एक होने का गौरव हासिल है। मेरे पंजों में 5000 पौंड की शक्ति होने के साथ ही मेरे नाखुन किसी भी पेड़ जैसे - साल, शीशम, सागौन को आलु के लच्छे की तरह कसने में सक्षम हैं। मेरे व्यक्तिव में मेरे नुकीले दांत के अलावा शिकार के दौरान मेरा अदभुत धैर्य, साहस एवं सन्तुलन चार चाँद लगाते हैं।
शायद मेरे इन्हीं गुणों को देखते हुए भारत जैसे राष्ट्र ने मुझे अपने राष्ट्रीय पशु के रूप में स्वीकार किया, जिस पर मुझे और मेरे पूर्वजों को गर्व है। मुझे राष्ट्रीय पशु बनाने के पीछे सरकार की यही भावना बलवती रही होगी कि गुलामी से मुक्त हुए देशवासी मेरी चुस्ती-फुर्ती, विवेक ,धैर्य एवं ताकत से प्रेरणा लेते हुए देश के स्वाभिमान और कद को सदैव उँचा बनाए रखें । अब तो आप मुझे जान ही गए होगें कि आखिर मैं कौन हूँ? जी हाँ, आपने सही पहचाना मैं बाघ यानि टाइगर हूँ।
आज मैं आपको अपनी कहानी सुना रहा हूँ जिससे कि आप मेरे स्वभाव के साथ ही मेरे संकट को एवं मेरे संकट के साथ ही पर्यावरण तंत्र पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव के बारें में जान सकें।
यह एशिया महाद्वीप हजारों वर्ष पूर्व से ही हमारे पूर्वजों का मनपसंद क्षेत्र रहा है। यहाँ की मिट्टी में हमारे पूर्वज विलीन हो चुके हैं। उनकी वंश परंपरा हमारे द्वारा आगे बढ़ाई जा रही है। सैकड़ों वर्षों से ही मानव अपने क्षणिक मनोरंजन के लिए मेरा शिकार करता आ रहा है, भारत में अंग्रेजों के आने के बाद हमारे शिकार में भारी इज़ाफा हुआ। सन् 1960 में एशिया के प्रमुख 13 जंगलों में हमारी ताद़ाद़ 35000 के लगभग थी। आज हमारी संख्या मात्र 3500 के लगभग रह गई है। अगर मैं केवल अपने मनपसंद क्षेत्र भारत की ही बात करें तो सिर्फ एक शताब्दी पूर्व हमारी तादाद जहाँ 40 हजार से अधिक थी जो कि आज घटकर महज 1411 रह गई है।
जब हमारी घटती संख्या से चिंतित होकर भारत सरकार ने वन्य जीवों के संरक्षण के लिए वन्य जीव संरक्षण एक्ट 1972 बनाया तब हमारी ताद़ाद़ महज 1827 रह गई थी। इसके बाद हमारी ताद़ाद़ में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई और एक बार फिर हमारी जनसंख्या सम्मानजनक स्थिति में पहुँचकर वर्ष 1997 तक 3550 के पार पहुँच गई। वन्यजीव संरक्षण एक्ट एवं 1973 में प्रस्तुत टाइगर प्रोजेक्ट जैसी योजना को धता बताते हुए 1990 के दशक में एक बार फिर हमारी संख्या में कमी आने का जो सिलसिला शुरू हुआ वह रूकने का नाम नहीं ले रहा। और हम अब तक की सबसे न्यूनतम संख्या 1411 पर सिमट गए।
हमारे संरक्षण के लिए घोषित किये गए 29 बाघ अभ्यारण्यों में से पन्ना बाघ अभ्यारण्य (मध्य प्रदेश) एवं सारिस्का बाघ अभ्यारण्य (राजस्थान) से हमारे भाईयों का अस्तित्व ही समाप्त हो गया। अगर हमारी सरकार औद्योगिक विकास के नशें में इस प्रकार मदमस्त रही तो वह दिन दूर नहीं जब हम भी डायनासोर की तरह इतिहास की बात बनकर रह जायेंगे और हमारी खालें, हड्डी व अन्य अंग बड़े-बड़े म्यूजियम के शोभा की वस्तु बनकर रह जायेंगे।
यदि ऐसा हुआ तो मैं कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहा बल्कि एक सच्चाई आप सबके सामने रख रहा हूँ कि जीव वैज्ञानिकों ने पर्यावरण को नियंत्रित करने वाले पारिस्थितिकीय तंत्र में मुझे सब से ऊपर रखा है एवं आप इस तथ्य को कभी भी नहीं झुठला सकते कि यदि वन हमारे (बाघों के) रक्षक हैं तो निश्चित ही हम वनों के, और यह भी कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।
मैं कोई चेतावनी नहीं दे रहा बस बता रहा हूँ कि यदि हमारा अस्तित्व समाप्त हो गया तो वनों का अस्तित्व भी समाप्त हो जाएगा। जिससे कि हमारे अन्य वन जीव जैसे- हिरन, गैंड़ा हाथी एवं पशु-पक्षी भी इस खूबसूरत धरती से लुप्त हो जायेंगे और ऐसा हुआ तो पर्यावरण की भयावह स्थिति पैदा हो जायेगी। जिससे की आप सभी लोग जूझ ही रहे हैं। पर्यावरण परिवर्तन के दुष्परिणाम से चिंतित हो कर सभी राष्ट्र कोपेनहेगन जैसी जगहों पर जाकर इसका हल ढूँढ रहे हैं।
अरे! आप अभी भी नहीं समझे। कितने भोले हैं आप! आपने सुना ही होगा वन भूमि के कटाव को रोकते हैं वर्षा कराने में सहायक होते हैं वगैरह-वगैरह। आपने वनों के इन गुणों के बारे में जान तो रखा होगा। ये भी आप भली-भाँति जानते होंगे कि वनों के न होने पर कैसी विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। ये भी क्या मुझे ही बताना होगा ?
बिल्कुल स्पष्ट है कि आप सभी को जलवायु परिवर्तन जैसे- वातावरण के तापमान में असामान्य वृद्धि, समुद्र के जलस्तर में भारी वृद्धि( जो कि औद्योगिक विकास के कारण होने वाले कार्बन उत्सर्जन से हो रही है) जैसी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ सकता है।
इससे पूरे मानव प्रजाति के अस्तित्व पर सवालियाँ निशान लग सकता है। मैं आपको डरा नहीं रहा हूँ बल्कि धरती के सबसे समझदार प्राणी को बता रहा हूँ क्योंकि यह कहा जाता है कि ‘समझदार को इशारा ही काफी होता है’ फिलहाल आप भलीभाँति जान हीं गए होंगे कि हम मानव के भक्षक नहीं बल्कि रक्षक हैं।
मेरा जीवित रहना मानव और प्रकृति के लिए क्यों आवश्यक है यह तो आप समझ ही गए होंगे। अब हम बात करते हैं कि हमारी घटती तादाद के प्रमुख या मुख्य कारण क्या-क्या हैं? सबसे पहले हमारे अंगों की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में, विशेष तौर पर चीन और कोरिया में लाखों की कीमत का होना है। हमारी हड्डी, आंख, लिंग एवं खून से मादक द्रव्य(शराब) की अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमत लगभग पांच हजार डॉलर यानी करीब ढाई लाख रुपये है। इसके अलावा हमारे कम होते ताद़ाद़ का प्रमुख कारण यह भी है कि बाघ संरक्षण हेतु घोषित वन क्षेत्र में लगातार कमी हो रही है।
यदि सन् 1947 से 2009 के बीच 6,40,819 वर्ग किमी वन क्षेत्र से 11,395 वर्ग किमी क्षेत्र का सफाया हो गया। सन् 1988 में घोषित राष्ट्रीय वन नीति में वर्ष 2012 तक देश के 33 फीसदी हिस्से को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया था। इस लक्ष्य को पाने की कोई सार्थक पहल दूर-दूर तक होती नज़र नहीं आ रही है, क्योंकि सरकार यह भी कहती है कि वनीकरण के लिए भूमि ही नहीं बची है। यही कारण है कि हमारे कुछ प्रेमी एवं पर्यावरणविद् सरकार के अनेकों औद्योगिक परियोजनाओं का पुरजोर विरोध करते हैं। इससे मुझे एवं मेरे भाईयों को बल मिलता है।
यह सब जानते हुए भी की वृक्ष जीवन का आधार है आज की सरकार वनों को काटकर कंक्रीट के जंगल बसा रही हैं जिससे कि हम पर व प्राकृतिक वन संपदा पर गहरा संकट आ खड़ा हुआ है। मैं आपसे कोई भीख नहीं मांग रहा बल्कि अपने मूल अधिकार की रक्षा के लिए आपके सहयोग का आँकाक्षी हूँ। फिलहाल कहानी अभी खत्म नहीं हुई, कहानी अभी बाकी है मेरे दोस्त..... मैं तो चला अपनी भूख और अस्तित्व को बचाने के लिए किसी हिरण के शिकार पर...... फिर मिलेगें...... दोस्तों......।

क्यों हारती है सरकार

-श्रीष शुक्ला
नक्सलियों ने दंतेवाड़ा में 75 अर्धसैनिक बलों की नृशंस हत्या से जता दिया है कि उन्हें देश के लोकतांत्रिक मूल्यों और स्थिरता से खतरा है। उनके इस हमले से ज़ाहिर हो गया है कि वे देश को खंडित व अस्थिर करने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। इस हृदयविदारक दुर्घटना के बाद नक्सली आन्दोलन को समर्थन देने वाले तथाकथित समाजसेवी संगठन, बौद्धिक वर्ग व मानवाधिकार संगठनों में चुप्पी छा गई है। नक्सल समर्थकों से पूछताछ के लिए गिरफ्तारी मात्र पर हंगामा खड़ा करने वाली मानवाधिकार संगठन भी इस बर्बर नरसंहार से नजरें चुराने की कोशिश कर रही है। शायद इन 75 जवानों की हत्या को मानवाधिकार हनन नहीं माना जा सकता। गौरतलब है कि घटना के बाद एक नक्सली नेता ने लिखे ख़त में देश के जवानों से अपील की है कि वे अपने नक्सली भाइयों की मुखालिफ़त ना करें। देश के सैनिकों के हत्यारे और देश को अस्थिर व विखंडित करने वाले लोग भला देश के सपूत कैसे हो सकते हैं ? दंतेवाड़ा में बर्बर हमले के बाद गृहमंत्री ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफे की पेशकश भी की है लेकिन मनमोहन सिंह और यूपीए अध्यक्ष ने इस्तीफा नामंजूर कर दिया है। संकट इस घड़ी में राष्ट्रीय सियासी दलों ने भी एकता दिखाई है।
उल्लेखनीय है कि नक्सली नेता किशन जी ने 9 जून 2009 में एक अंग्रेजी दैनिक समाचार को दिये साक्षात्कार में कहा था कि वे विश्व के उन सभी आंतकी संगठनों का समर्थन करते हैं जो पूंजीवादी ताकतों को कमजोर करने की कोशिश में हैं। उन्होंने तालिबान, अलकायदा व लिट्टे जैसे कई खूंखार संगठनों का भी समर्थन किया था। तालिबान वही आंतकी संगठन है जिसका कभी अफगानिस्तान पर शासन हुआ करता था। उनके शासनकाल में महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार नहीं था और ना ही उन्हें घर की चहरदीवारी से निकलने की छूट थी। तालिबान के शासनकाल में अफ़गानिस्तान में कट्टरता व सामंती प्रथा भी खूब विकसित हुई थी। इससे तो यही ज़ाहिर होता है कि नक्सली साम्यवादी व्यवस्था नहीं बल्कि सांमतवादी व्यवस्था स्थापित करना चाहते हैं। किशन जी का यह बयान असल मायने में पूंजीवादी ताकतों से ज्यादा लोकतांत्रिक मूल्यों के ख़िलाफ़ था। नक्सल आंदोलन के समर्थक यह भूल गए हैं कि सरकार या व्यवस्था की ख़िलाफ़त करने का अधिकार उन्हें लोकतांत्रिक व्यवस्था के बदौलत ही हासिल हुआ है। किसी सैनिक सरकार या अलोकतांत्रिक व्यवस्था में व्यवस्था के ख़िलाफ़ अभिव्यक्ति की कोई स्वतंत्रता नहीं रहती। अगर नक्सली पिछड़े तबके का विकास ही चाहते हैं तो वे विकास की सरकारी योजनाओं का विरोध ही क्यों करते हैं ? जंगलों में विकास की गति को तेज़ करने के लिए व्यवस्था में शिरकत से उन्हें परहेज़ क्यों है ? कहीं उनकी विकास की कल्पना भोली जनता से छलावा तो नहीं है ?
नक्सलियों के ख़िलाफ़ अभियान हथियार की ताकत से कहीं ज्यादा विश्वास अर्जित करने की लड़ाई है। किसी युद्ध को जीतने के लिए शत्रु की ताकत को आंकना जरूरी होता है। जंग व प्यार में सब कुछ जायज़ होता है। नक्सलियों को सरकार के ख़िलाफ़ इलाके के लोगों का समर्थन हासिल है। उन्होंने यह समर्थन शुरुआत में आदिवासियों को जंगलों में संरक्षण देकर हासिल की थी। अस्सी के दशक की शुरुआत में घने जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को वन अधिकारियों द्वारा तंग किया जा रहा था। उन्हें जंगलों की लकड़ियों, फलों के प्रयोग व खेती करने से रोका जाने लगा था। इससे इलाके के लोगों में खासा क्षोभ व्याप्त गया। नक्सलियों ने मौके का फायदा उठाकर जंगलों में लोगों को संरक्षण देना शुरु कर दिया। नक्सलियों ने वन क्षेत्र की लगभग 300000 एकड़ जमींन अवैध तरीके से अधिपत्य में लेकर आदिवासियों में वितरित कर दिया। इससे अशिक्षित, भोले, भूमिहीन आदिवासी नक्सलियों का समर्थन करने लगे। आदिवासियों को शिक्षा सड़कें भले ही नहीं मिली लेकिन उन्हें जीने के लिए के फल व अनाज हासिल हो गया था। यह सरकारी नीतियों की विडंबना ही थी कि जमींन सरकार की और समर्थन व श्रेय नक्सलियों को मिल रहा है। नक्सली इसी वज़ह से अपने ख़िलाफ़ हर अभियान को आपरेशन ग्रीन हंट करार देते हैं ताकि बौद्धिक वर्ग व आम जनता का समर्थन हासिल किया जा सके। सरकार अगर यह लड़ाई जीतना चाहती है तो उसे लोगों को विश्वास दिलाना होगा कि देश की जमींन जंगल पर देश की जनता का अधिकार है। अनाज के हर दाने, फल, लकड़ी, तिनके-तिनके पर लोगों का अधिकार है और विश्वास दिलाना होगा कि अधिकार की इस लड़ाई में सरकार उनके साथ है।
सरकार को यह लड़ाई हथियार के मोर्चे पर ही नहीं अपितु सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़नी होगी। जंगलों में रहने वाले निष्कपट आदिवासी अपनी संस्कृति व स्वाभिमान को लेकर बहुत संवेदनशील होते हैं। नक्सलियों ने आदिवासी समाज में पैठ मज़बूत करने इरादे से सांस्कृतिक घुसपैठ का ताना-बाना भी बुन डाला। उन्हें पता था कि आदिवासी संवेदनांए हासिल करने का यह खासा सफल माध्यम हो सकती हैं। इसके लिए उन्होंने सांस्कृतिक संगठन भी स्थापित किए। नक्सलियों के सांस्कृतिक संगठन चेतना नाट्य मंच में अब तक 10000 लोग जुड़ चुके हैं। इनके पास गोंड, हल्बी, छत्तीसगढ़ी व हिंदी में लिखे गीतों का भंडार है। इस तरह सांस्कृतिक मोर्चे पर भी सरकारी व्यवस्था असफल साबित हुई है। देश का संस्कृति मंत्रालय कागजों पर झंडे गाड़ता रहा लेकिन राजधानी से दूर जंगलवासियों में संरक्षण व विश्वास की अलख नहीं जगा पाई। इससे नक्सलियों को लोकतांत्रिक सरकार के समानांतर व्यवस्था स्थापित करने का एक और मौका मिल गया।
सरकार को नक्सलियों के ख़िलाफ़ अब तक एक ही मोर्चे पर ठोस सफलता हासिल हुई थी वह है सलवा जुडूम। हालांकि यह अभियान भी विवादों से घिरा रहा है फिर भी पहली बार सरकार ने नक्सल के ख़िलाफ़ स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल किया था। सलवा जुडूम में वे लोग शामिल हुए थे जिन्होंने नक्सल का सशस्त्र विरोध किया था। आंतक के पर्याय नक्सलियों को अब तक केवल सलवा जुडूम ही आंतकित कर सका था। यह नक्सलियों की अब तक सबसे बड़ी हार थी। सलवा जुडूम से नक्सली अभियान कमजोर पड़ा था लेकिन नक्सलियों ने इसका भी निर्मम तरीके से दमन कर दिया और सरकार सलवा जुडूम को पूर्ण संरक्षण देने में असफल साबित हुई।
नक्सली आंदोलन को कमजोर करने के लिए नक्सलियों को मुख्य धारा से भी जोड़ना होगा। ज्ञातव्य है कि केंद्र सरकार ने नक्सलियों को मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सितंबर 2009 में एक पुर्नवास नीति बनाई थी। इस नीति के तहत आत्मसमर्पण करने वाले नक्सली को डेढ़ लाख रुपये एकमुश्त व दो हजार रुपये प्रतिमाह के हिसाब से मानदेय मिलता है लेकिन एकमुश्त धनराशि बैंक में जमा रहती है और तीन साल तक चाल चलन देखने के बाद धन निकालने की अनुमति होती है। उन्हें मुख्य धारा यानी लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ लाने के लिए न केवल आर्थिक संरक्षण बल्कि शारीरिक व मानसिक सुरक्षा की भी जरुरत है।
नक्सली आंदोलन के ख़िलाफ़ अभियान की सबसे कमजोर कड़ी अर्धसैनिक बलों और राज्य पुलिस के बीच सामजंस्य की कमी है। अभियान में अर्धसैनिकों के साथ उनके अधिकारी भी क्षेत्र में जाते हैं जबकि पुलिस की ओर से प्राय: सिपाही भेजे जाते हैं। शीर्ष पुलिस अधिकारी अभियान को मुख्यालय से ही कंट्रोल करना चाहते हैं। ऐसे में कंट्रोल व कमांड में प्रभुत्व को लेकर एक नई जंग छिड़ जाती है। स्थानीय इलाके की स्थितियों से अर्धसैनिकों को परिचित कराने में राज्य पुलिस की भूमिका महत्वपूर्ण रहती है। हाल में दंतेवाड़ा की घटना इसी चूक की परिणिति थी।
भविष्य में इस प्रकार की किसी चूक से बचने के लिए नक्सल प्रभावित इलाके की सुरक्षा बागडोर अधिक साधन व तकनीक संपन्न अर्धसैनिकों को सौंप देना चाहिए। इससे पहले काश्मीर व पूर्वोत्तर में भी अर्धसैनिकों सफल प्रयोग किया जा चुका है। लोकतंत्र का ख़िलाफ़त करने वाले सशस्त्र नक्सलियों को मिटाने के लिए जरुरत पड़ने पर वायुसेना के प्रयोग से भी नही हिचकना चाहिए। ऐसे किसी प्रयोग में हिचकना आस्तीन में सर्प पालने जैसा होगा। नक्सलियों के ख़िलाफ़ जंग जीतने के लिए के सरकार को इलाके में संचार तकनीकों का तेज़ी विस्तार करना करना होगा। तेज़ी से सूचना संचार के लिए वायरलेस टेलीफोन आम लोगों को उपलब्ध कराना चाहिए। गरीब व पिछड़े तबके के विकास के लिए की जा रही लड़ाई का प्रचार-प्रसार सरकार को इस तरह करना चाहिए ताकि उसे मीडिया, बौद्धिक वर्ग व समाज सेवी संगठनों का भी समर्थन हासिल हो सके। इससे नक्सल विरोधी अभियान निश्चित ही सफल होगी।