Wednesday, July 29, 2009

बलूचिस्तान विलाप नहीं,ब्रम्हास्त्र है

-राजेश बादल
अगर आप समय की स्लेट पर लिखी इबारत को भूल जाएं तो उसके गभीर परिणाम भी देखने को मिलते हैं। बलूचिस्तान के मामले में कुछ ऐसा ही हुआ है। मैं इस समय याद करता हूँ 1971 को, जब सारा देस श्रीमती इंदिरा गाँधी, थलसेनाध्यक्ष मानेक शॉ और जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा की जय-जयकार कर रहा था तो बलूचिस्तान में भी यही जयकार गूंज रही थी। वहां भी इंदिरा गाँधी और जनरल अरोड़ा ज़िंदाबाद के नारे महीनों तक सुनाई देते रहे थे। अख़बारों में भी ये ख़बरें सुर्खिंयों में थीं। पाकिस्तान के लोग हैरान थे कि देश के दो टुकड़े होने के बाद उनके देशे में शत्रु-देश की ज़िदाबाद क्यों हो रही है। इसका उत्तर बहुत सीधा-सपाट नहीं है। अतीत के कुछ पन्नों को पलटना होगा। कभी बौद्ध धर्म की शिक्षाएं बलूचिस्तान में अपना व्यापक असर दिखाती थीं,मौर्य साम्राज्य का प्रभुत्व चरम पर था और कनिष्क की कथाएं आज भी बलूचिस्तान के गाँवों में सुनाई जाती हैं।
भारत को जब अँग्रेज़ों ने बांटा और चौदह अगस्त 1947 को पाकिस्तान बनाया,तब उन्होंने बलूचिस्तान पाकिस्तान को नहीं सौंपा था। उसके तीन दिन पहले 11 अगस्त को उन्होंने बलूचिस्तान को आज़ाद कर दिया था। बँटवारे से पहले ही बलूच-संसद अँगरेज़ों से हुई संधि रद्द कर चुकी थी और बलूचिस्तान स्वतंत्र देश ही था। पाकिस्तान ने अस्तित्व में आते ही फौजी कार्रवाई की और बलूचिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया था। बेचारे बलूच स्वायत्तता-अखंडता का राग अलापते रह गए। उनकी संसद को मोतै जेलों में डाल दिए गए या मार दिए गए।स्वाभिमानी बलूचियों न इसे कभी मंज़ूर नहीं किया। भारत चाहता तो यही काम वह नेपाल या भूटान के साथ कर सकता था और वहाँ तब शायद वैसा विरोध भी न होता,जैसा बलूचिस्तान में लगातार होता आया है। पाकिस्तानी फौजों ने वहाँ वर्षों तक अभियान चलाए हैं। जनरल टिक्का ख़ाना को तो बलूचिस्तान का कसाई कहा जाता है। उन्होंने गाजर-मूली की तरह बलूचियों को काटा और हवाई हमलों से उनकी नींद हराम कर दी। यह सिलसिला आज भी जारी है। तब न वहाँ अलक़यादा था, न आतंकवाद, न ओसाम और न अमेरिका। भारत ने तो कभी काश्मीर में ऐसा नहीं किया।बलूचिस्तान के लोग पाकिस्तान से कब्ज़ा छोड़ने की माँग वैसे ही कर रहे हैं, जैसे हिंदुस्तान अँगरेज़ों से भारत छोड़ने की माँग कर रहा था।
अगर हम पाकिस्तान की तरफ से एक बार यह सोचें भी कि बलूचिस्तान उनका अटूट हिस्सा है तो सवाल यह है कि अपने नागरिकों पर हवाई हमलों और लगातार फौजी कार्रवाई के लिए पाकिस्तानी हुक्मरानों को किसने मजबूर किया था?क्या कोई देश अपने ही नागरिकों पर इस तरह की कार्रवाई करता है? और याद कीजिए 1970 को-पाकिस्तान ने ही अपने देश के एक टुकड़े पूर्वी पाकिस्तान(अब बांग्लादेश) में सिर्फ छह महीनों के दौरान सीधी फौजी कार्रवाई करते हुए तीन लाख से ज़्यादा लोगों को मार डाला था। यह आँकड़ा खुद पाकिस्तान के अपने जाँच अधिकारी हमीद उर रहमान की रिपोर्ट में दिया गया है। तब भी दुनिया भर के चौधरी चुप्पी साधे-सिवाय भारत के। आज मनमोहन सिंह के रवैये पर काँग्रेस पार्टी में छाती पीट-पीटकर विलाप किया जा रहा है। हाय! मनमोहन!तुमने ये क्या कर दिया?बलूचिस्तान का उल्लेख क्यों होने दिया?
हैरत की बात है कि कश्मीर में आतंकवाद को पाकिस्तान खुले-आम कश्मीरियों की आज़ादी की जंग बताता है और नैतिक समर्थन देता है। वह कश्मीर जो कल्हम की राजतरंगिणी की भूमि है, वह कश्मीर जो 1947 तक हिंदू राजा की रियासत था, वह कश्मीर जो 1947 से ही हमारे साथ विलय कर चुका था, अगर वह हिंदुस्तान का नहीं है तो बलूचिस्तान पाकिस्तान का कैसे है?एक स्वतंत्र देश पर फौज के दम पर कब्ज़ा कितना जायज़ है?उसका विलय तो कभी पाकिस्तान में हुआ ही नहीं। पाकिस्तान का कब्ज़े का यह देश क्षेत्रफल में पाकिस्तान के सभी राज्यों से बड़ा है, सबसे अमीर भी है। वहाँ के लोग बासठ साल से अपनी आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे हैं। हमें बलूचिस्तान की आज़ादी के आंदोलन को खुला समर्थन क्यों नहीं देना चाहिए?कश्मीर के मसले पर पाक को इससे अच्छा उत्तर नहीं दिया जा सकता। भले ही मनमोहन सिंह या हमारे अफसरों से अनजाने में ही बलूचिस्तान का उल्लेख हुआ हो,लेकिन वास्तव में हमारे हाथ अब एक ऐसा हथियार है, जिसे हमें पाकिस्तान को सबक सिखाने के लिए इस्तेमाल करना ही होगा। पाकिस्तान की अखंडता अगर पाकिस्तान को प्यारी हो सकती है तो भारत को क्यों नहीं?अगर हिंदुस्तान के लोग एक बार पाकिस्तान की अखंडता अगर पाकिस्तान को प्यारी हो सकती है तो भारत को क्यों नहीं? अगर हिंदुस्तान के लोग एक बार पाकिस्तान की अखंडता को स्वीकार कर भी लें, तो यह देखना होगा कि उससे पहले हमें हमारी अखंडता प्रिय है। हमारी अखंडता की क़ीमत पर यदि पाकिस्तान बिखरता है तो किसी को इस पर ऐतराज़ क्यों होना चाहिए।
एक और उदाहरण सीमांत गाँधी ख़ान अब्दुल गफ्फार ख़ान और उनके खुदाई खिदमतगार भारत से अलग होना ही नहीं चाहते थे। उन्हें आत्म निर्णय का अधिकार ही नहीं दिया गया। अलग होने की सूरत में वे अपना देश चाहते थे। वे पाकिस्तान में विलय नहीं चाहते थे. जाने माने पत्रकार स्व.राजेंद्र माथुर ने करीब पचास साल पहले यह सवाल उठाया था कि पख्तून सूबे का ज़बरन विलय पाकिस्तान में अंतिम क्यों है और कश्मीर का भारत में विलय अंतिम क्यों नहीं है?
लब्वो-लुआब यह है कि भारत को मौजूदा हालात में अपनी विदेश नीति और पाकिस्तान नीति में बदलाव करना ही होगा। बलूचिस्तान की आज़ादी के लिए खुलकर सामने आना ही होगा। कमज़ोरी छोड़नी होगी और विलाप को विजय में बदलने का प्रयास करना होगा। दुनिया में कमज़ोर कभी नहीं जीतते। अब तक की नीति का अनुभव यही है कि भारत ने खोया ही खोया ही खोया है। पाया कुछ नहीं। 1947-48 में एक तिहाई कश्मीर पाकिस्तान ने छीन लिया। हम वापस नहीं ले पाए। 1962 में चीन हज़ारों किलोमीटर ज़मीन छीन ली। हम वापस नहीं ले पाए। 1965 में कच्छ की ज़मीन पाकिस्तान ने हड़प ली। और तो और 65और 71 में हमने चीती हुई ज़मीन भी वापस कर दी। चीन ने 1959 में तिब्बत हड़पा। दुनिया जानती है कि आध्यात्मिक सांस्कृतिक और सामाजिक नज़रिए से तिब्बत पर हमारी दावेदारी बनती थी। हम वह भी नहीं कर पाए। पाकिस्तान ने हमारे कश्मीर का एक हिस्सा चीन को तोहफे के तौर पर दे दिया। हम देखते रहे। तो अब बलूचिस्तान प्रसंग पर हम रक्षात्मक क्यों हैं? दुनिया के नक्शे पर भारत की आवाज़ अब सुनी जाती है। बलूचिस्तान की आज़ादी हमारी पाक-नीति का अस्त्र होना चाहिए। जान-बूझकर साहस हम शायद न दिखाते, लेकिन अनजाने में कुदरत ने बलूचिस्तान का ब्रम्हास्त्र भारत को दे दिया है।
( प्रख्यात पत्रकार राजेश बादल का यह लेख देशकाल डाट काम ने प्रकाशित किया है.)

3 comments:

  1. बहुत महत्व के मुद्दे पर आपने इशारा किया है, हम तो यह बात जानते ही नहीं थे। अद्बुत विश्लेषण है मान्यवर।

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  2. Achcha laga aapke blog par aakar.Shubkamnayen.

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  3. bahut badhiya jankari hai.. sahi hai yah desh hare huon ki nasl ban gaya hai..ab hamen pura pakistan lena hi hoga.. sir apke pas aisi hi aur jankariyan ho to jaaroor sajha karen..
    Dr Shailesh G
    brahmnad@gmail.com

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