माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Wednesday, March 31, 2010
संजय द्विवेदी सर के ब्लाग
भोपाल, 31 मार्च। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी के इस समय कुल दो ब्लाग सक्रिय हैं। साथ ही उनकी एक वेबसाइट भी है। उनकी वेबसाइट है http://sanjaydwivedi.com/ जिस पर आप उनसे जुड़ी व्यक्तिगत जानकारियां पा सकते हैं। इसके अलावा http://www.sanjayubach.blogspot.com/ यह उनका ब्लाग है जिसपर उनके राजनीतिक लेख हैं। मीडया के विषयों पर उनका ब्लाग है http://dwivedisanjay.blogspot.com/
द्विवेदी सर की दो किताबें भी आनलाइन उपलब्ध हैं जिनमें एक है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता http://sampadakmahoday.blogspot.com/
दूसरी किताब है मत पूछ हुआ क्या-क्या http://sampadakmahoday11.blogspot.com/ इस पुस्तक में राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर टिप्पणियां हैं।
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संजय द्विवेदी
तिलक और उसके साथियों को सलाम
राजेश बादल
पच्चीस साल पहले की वो रात शायद ही कोई याद रखना चाहे। लेकिन यह मुमकिन नहीं। वो कयामत की रात थी , जिसे भूलना भी नामुमकिन हैं। मैं इंदौर में नई दुनिया के भोपाल संस्करण को अंतिम रुप देकर प्रेस में भेज चुका था। शायद मशीन ने कुछ हजा़र प्रतियॉ उगल दी थीं। तभी हमारे भोपाल ब्यूरो प्रमुख उमेश त्रिवेदी का फोन आया , ‘राजेश छपाई रोको। ’ इसके बाद उन्होने जो बयान किया ,सुनते ही होश उड़ गए। बोले , भोपाल मर गया। सब कुछ खत्म हो रहा हैं। चारों तरफ लाशें ही लाशें हैं। शहर भाग रहा हैं और मर रहा हैं । कारबाईड कारखाने से जहरीली गैस रिसी है। घंटे भर के अंदर हमारी बस नए बैनर के साथ अखबार लेकर भोपाल दौड रही थी- ‘भोपाल में हाहाकार ’। खबर का एक एक शब्द मैं फोन पर लिख रहा था ,लेकिन हाथों को जैसे किसी ने बांध दिया था। दिमाग सुन्न था । फिर भी जैसे तैसे अखबार निकाला। मन ही मन सोचता रहा , ईश्वरर कभी इस तरह का अखबार दोबारा न निकालना पडे। लेकिन अखबार तो निकालना ही था । रोज निकाला । हर रोज मातमी अखबार । रोता ,तकलीफ से बिलबिलाता और गुस्से से भरा।
दो और तीन दिंसबर की दरम्यानी रात और उसके बाद पूरा सप्ताह । भोपाल हर पल मरता था , हर पल जीता था। शुरु के दो दिन के भयावह और मौत के विकराल तांडव की मैं कल्पना ही कर सकता था। तीसरे दिन मैं उमेश त्रिवेदी े साथ गैस पीडित बस्तियों में भटक रहा था। गीला रुमाल नाक और मुंह पर रखे। कुछ गैस की बदबू और कुछ मौत की सडांध ने हिला दिया। गलियों से ,बंद कमरो सें , घरो से लाशें अभी भी निकल रही थीं। चारो तरफ गैस के शिकार अनगिनत परिवार। प्रशासन और पुलिस पूरी तरह नाकारा साबित हुए। छोटे - बडें अफसर अपने परिवारों को लेकर भाग खडे हुए। मंत्रियों की लाल बत्तियां एकदम गायब थीं और भोपाल को जैसे कुदरत ने उसके हाल पर मरने को छोड दिया था। लाशों के ढेर बगैर मजहबी फर्क के पडे थे। या। नहीं तो सबका एक साथ अंतिम संस्कार लोगों ने कर दिया। हां भोपाल के बड़े अस्पताल में जरुर डाक्टरों ने इंसानी फर्ज निभाया । जहरीली गैंस के खुद शिकार हो गए ,लेकिन पीड़ित मानवता की सेवा करते रहे।
मगर मेरे जे़हन में बार बार उभरता है तिलक तिवारी का मासूम और भोला चेहरा। कोई सत्रह - अठारह साल का किशोर । दाढ़ी -मूंछ भी नहीं आई थी । परिवार का इकलौता बेटा। मैं गलियों में भटकता रिपोंर्टिग कर रहा था , तभी तिलक टकरा गया। मैंने उससे दो मिनट बात की। बोला , ‘ परिवार के सारे लोग अस्पताल में हैं। मोहल्ले से करीब साठ लाशें निकाल चुका हूं और चार पाँच सौ को अस्पताल पहुंचा चुका हूं। उसके साथ कुछ और किशोर थे। उनके मुँह पर गीला रुमाल नहीं था । वे हर पल मौत की हवा खा रहे थे , लेकिन भिडे थे। दो दिन मे तिलक तिवारी अनगिनत लोगों की जिंदगी मे देवदूत बन गया । लेकिन अकेला वो कब तक लडता । तीसरे - चैथे दिन खबर मिली तिलक तिवारी भी मिथाइल आइसो सायनेट का शिकार बन गया। उस समय संभवतया उसके परिवार के सारे लोगो को उसने बचाया था। तिलक का वह चेहरा और अंत में उसका एक वाक्य अभी भी जेहन में गूंजता हैं-‘‘ अंकल। जल्दी है । बाद में सब बताउंगा। अभी देर हो गई, तो कई लोग उपर चले जाएगें ’’मै उसे जाते देखता रहा । यही मेरी तिलक से आ़खिरी मुलाक़ात थी। तिलक को आज कोई याद नहीं करता । उसके जैसे कुछ और भी लोग थे , जो बस्तियों में लोगो को बचाते दम तोड गए। उन बाकी शहीदों को भी कोई याद नहीं करता न ही मरणोंपरांत उन्हें कोई सम्मान या सलाम देने की किसी ने जरुरत समझी । तिलक तुम्हें और तुम्हारे साथियों को मेरा सलाम।
तब दो ढा़ई हजार लोग मरे थे , लेकिन अब तक चालीस हजार से ज्यादा लोग गैस का शिकार होकर अकाल मौत मारे जा चुके हैं। लाखो लोग आज भी जिंदा लाशों की तरह जी रहे हैं। जो बच गए , उनकी शादियां नहीं हुई , जिनकी शादियां हुई उनमें से ज्यादतर मां या पिता बनने की क्षमता खो चुके थे। जो किसी तरह मां या पिता बन गए उनके बच्चे ऐसी बीमारियाँ लेकर बडे हुंए , जो उनकी मौत के साथ ही जाएंगी। न जाने कितनी पीढ़िंयो तक यह सिलसिला चलेगा।
गैस पीडितो की तकलीफ अपनी जगह हैं, उसे कोई मुआवजा या राहत दूर नहीं कर सकता पर उनका गुस्सा ज़रुर शांत किया जा सकता था। अब तो यह भी संभव नहीं। उस समय गैस कांड के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार यूनियन कारबाइड के चेयरमैन वारेन एंडरसन को आज तक पकड़ा नहीं गया। आज भी वो खीसें निपोरता अमेरिका में रह रहा हैं। एक बार वो भोपाल आया। हादसे के तुंरत बाद । भोपाल कलेक्टर और एसपी उसे लेने एयरपोर्ट पहुंचे । उसे बाकायदा गेस्ट हाउस ले जाया गया। वहां उसे गिरफतार करने की ख़बर दी गई । इसके बाद उसने अमेरिकी दूतावास में बात की। भारत सरकार फौरन हरकत में आई और उसे दामाद की तरह वापस उसके मुल्क के लिए विदा कर दिया गया। दुनिया के महान लोकतंत्र में तंत्र ने लोक का गला घोंट दिया । एंडरसन ने अमेरिका जाते ही टाइम मेग्जीन को दिए इंटरव्यू में कहा था , ‘मुझे किसी ने गिरफतार नहीं किया। मैं वहां मेहमान की तरह था । पुलिस ने मुझे कहा था कि आपको सुरक्षा की जरुरत है। बाद में उन्होंने मुझे विमान से भेज दिया। ’-ठेंगा। यह है वारेन एंडरसन । पच्चीस साल में हमारी अदालतों के आदेशों का मखौल उड़ा रहा हैं एंडरसन। मध्यप्रदेश और भारत सरकार संयुक्त रुप से सार्वजनिक माफी भी मांगे तो शायद गैस पीडित उन्हें माफ न करें।
आमिर मिलेंगें प्रेस से
बुधवार, 31 मार्च को दिल्ली में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के कॉन्फ्रेंस रूम में मशहूर अभिनेता आमिर खान पत्रकारों-संपादकों से मिलेंगे। बीईए (ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन) के महासचिव एनके सिंह और अध्यक्ष शाजी जमां की ओर से भेजी गयी सूचना में कहा गया है कि कार्यक्रम की शुरुआत के कुछ समय तक फोटो कवरेज की छूट रहेगी। बीईए ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में साफ कहा है कि यह आयोजन ‘इनफारमल’ और ‘आफ कैमरा’ है। आयोजन में मीडिया के मौजूदा मसलों पर तो बात होगी ही – सिनेमा पर भी बातचीत हो सकती है। कार्यक्रम में टेलीविजन के वरिष्ठ संपादकों सहित पत्रकारों का भरा-पूरा जुटान होगा। कार्यक्रम डेढ़ बजे से शुरू होगा और कब तब चलेगा, इसकी सूचना नहीं दी गयी है। यानी अगर बातचीत जम गयी – तो घंटों जमी रहेगी।
Tuesday, March 30, 2010
इससे क्या हासिल (संदर्भः लव इन रिलेशनशिप)
-देवाशीष मिश्रा
दक्षिण भारतीय अभिनेत्री खुशबू के खिलाफ तमिलनाडु में लगभग चार वर्ष पूर्व मुकदमा दायर किया गया था। केस का आधार उनके उस बयान को बनाया गया था, जिसमें उन्होने एक पत्रिका को दिये गये इंटरव्यू के दौरान कहा था कि उन्हे सेक्स सम्बन्धो से कोई दिक्कत नही जो शादी से पूर्व सुरक्षित रुप से बनाये गये हों। इसी केस की सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के साथ लिव इन रिलेशनशिप का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में आ गया है।
यह अटल सत्य है कि समाज हमेशा बदलाव के दौर में रहता है, हाँ कभी यह बदलाव तेजी से होता है तो कभी धीमे-धीमे। गीता में भी कहा गया है परिवर्तन संसार का नियम है। लेकिन महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हो रहे परिवर्तन का समाज पर क्या प्रभाव पड़ेगा। मानवीय सम्बन्धो और व्यवहार में क्या बदलाव आयेंगे। हम सुख-दुख की बात हमेशा करते है और दुखों से भागते हुये सुख की आस लगाये बैठे रहते हैं और इस दौड़ में यह भूल जाते हैं कि हमारे सुख-दुख के पीछे सबसे बड़ी वजह हमारी जीवन शैली है। लिव इन रिलेशनशिप भी हमारी जीवन शैली का एक हिस्सा बनता जा रहा है और यह समाज में बदलाव का एक ज्वलंत उदाहरण है। समाज के बुध्दिजीवियों में लगातार इस विषय को लेकर विचार विमर्श हो रहा है। समाज का ही अंग होने के कारण यह हमारी भी जिम्मेदारी है कि हम इस पर विचार करें। इस विषय पर सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि समाज को इसकी आवश्यकता कितनी है और वह कहाँ तक तैयार है। अगर पश्चिमी देशों की बात की जाए तो वहाँ यह आम बात है लेकिन भारतीय समाज में आम सहमति बनना अभी दूर का विषय है। इसका सबसे बड़ा कारण भारतीय समाज में विवाह संस्था के महत्व का आज भी प्रभावशाली होना है। विवाह नामक संस्था भारतीय जड़ों में समायी है।
भारत में लिव इन रिलेशनशिप की शुरूआत के कई कारण है जिसमें उदारीकरण प्रमुख कारणों में एक है। उदारीकरण की वजह से प्राइवेट सेक्टरों में नौकरी की बाढ़ आ गयी। जिससे देश के बड़े शहरों में रहने की जगह सीमित हो गयी। इस कमी को पूरा करने के लिए लोगों ने फ्लैट व कमरों को साझा करना शुरू किया, विशेष तौर पर शिक्षा और फिल्म से जुड़े लोगों ने अपने खर्चों को भी साझा कर आय का बड़ा भाग बचाने लगे जिसके कारण भी इस संस्कृति को ज्यादा बढ़ावा मिला। दूसरा कारण महिलाओं का तेजी से होता विकास भी है। कुछ वर्ष पूर्व यह सोचना भी मुश्किल था कि किसी छोटे शहर की लड़की अकेले किसी बड़े शहर में जाकर में जाकर उच्च शिक्षा ग्रहण करे या नौकरी करे, किन्तु आज यह काफी व्यवहारिक हो गया है। इसके अलावा तीसरा कारण युवाओं ज्यादा से ज्यादा आधुनिक दिखने कि प्रवृति भी है। पश्चिमी सभ्यता को आधुनिकीकरण का ठप्पा समझने के कारण कुछ युवा भ्रमित होकर इस चलन में रहकर स्वयं को आधुनिक होने की बात करते हैं। अक्सर इस अंधी दौड़ में वे विवेकहीन लोग जुड़ जाते हैं, जो दूसरों के दिखाये रास्ते पर चलने में ज्यादा विश्वास करते हैं। स्त्री पुरुष के सम्बन्धों को संदेह की दृष्टि से देखना बिल्कुल गलत है, लेकिन समाज की मर्यादा और पवित्रता बनाये रखने के लिए तथा सामाजिक व्यवस्था को विकृत होने से बचाये रखने के लिए लिव इन रिलेशनशिप से दूर रहना होगा।
Monday, March 29, 2010
जाति प्रथा- एक अभिशाप
प्रस्तुतिःशिशिर सिंह
जनसंचार सेमेस्टर-II
आधुनिक भारत के इतिहास के आरंभ से ही समाजसुधारक, राजनेता और चिन्तक यहां तक की अब भारत का सर्वोच्च न्यायालय इस तथ्य को रेखांकित करता रहा है कि भारत के चौतरफा विकास के लिए जाति प्रथा का अंत होना जरूरी है। सर्वोच्च न्यायलय की इस मान्यता के पीछे यह कड़वी सच्चाई काम कर रही है कि, जाति प्रथा और जातिवादी चेतना ने भारतीयों के जीवन के हर क्षेत्र में विध्वंसकारी भूमिका अदा की है। आजादी के साठ वर्ष के बाद भी तथा देश के संविधान और कानून में उसके निराकरण के लिए किए गए प्रावाधानों के बावजूद यह व्यवस्था कमजोर पड़ने के बजाए और ढृढ ही होती दिखाई दे रही है। आज देश में एक भी जाति ऐसी नहीं है जो जातिवादी चेतना से ग्रस्ति न हो। एक आम रुझान यह देखने को मिलता है कि जातिवाद के सभी अभिव्यक्तियों को एक समान मानकर उनकी एक ढंग से निन्दा व आलोचना की जाती है। आवश्यकता इस बात की है कि जातिवादी चेतना के विभिन्न रंग रुपों में अंतर स्पष्ट किया जाए और उनके मूर्त सार तत्व को पकड़ा जाए।
जाति एक विभाजक शक्ति
जाति प्रथा और जातिवाद देश के अंदर एक विभाजनकारी शक्ति के रुप में काम कर रही हैं। इसमें इस व्यवस्था ने देश के अंदर की एकता को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आजादी के बाद से ही बिहार में गुजरात में, हाल ही में राजस्थान, दिल्ली, उत्तर प्रदेश आदि स्थानों पर आरक्षण के सवाल पर एक जाति के लोग दूसरी जाति के विरुद्ध खड़े हो गए हैं। आज बाह्मण हो या क्षत्रिय, वैश्य हो या दलित या पिछड़ी जातियां हों, कोई भी ऐसी जाति नहीं है जिसका अपना एक या एक से अधिक जाति संगठन मौजूद न हो। ब्राह्मण सभा, क्षत्रिय सभा, पाल समाज, खटीक समाज, आदि सभी समाजों के अपने संगठन है और सभी अपनी जाति के तंग दायरे में रहकर ही सोचते हैं।
जाति की विभाजनकारी भूमिका से प्रशासनिक सेवायें भी अछूती नहीं रही है। जाति के आधार पर गोलबंदी पुलिस और प्रशासन के अधिकारियों तथा कर्मचारियों के अंदर भी देखने को मिल जाती है। जातिवादी उभार ने जाति पंचायतों को विशेषकर उत्तर प्रदेश व हरियाणा में सक्रिय तथा मजबूत किया है। ये जाति पंचायतें देश के संविधान, कानून तथा मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए व्यक्ति की स्वतंत्रता व जीवन के अधिकार पर हमला कर बर्बर युग की याद दिला देती है। वह युवक-युवतियों को अंतर्जातीय विवाह करने पर मौत की सजा सुना देती है। गोत्र नियमों के उल्लंघन के नाम पर वह पति-पत्नी को अपना रिश्ता तोड़कर भाई-बहन के रुप में रहने का तुगलकी फरमान जारी कर देती हैं। ऐसा करते समय वह देश के कानून और संविधान को मुंह चिढ़ा रही होती है। जाति पंचायतें जाति की विभाजनकारी भूमिका को और गहरा करने का काम करती है।
सवर्णों के अंदर पाई जाने वाली जाति चेतना
सवर्णों के अंदर पायी जानी वाली जातिवादी चेतना का एक रुप वह है जो उनकी सामंती-शोषक मनोवृत्ति का परिचायक है। एक समय था जब दबंग जातियों के रुप में सवर्ण जमीन के मालिक थे, सरकारी नौकरियों पर एक तरह से उनका एकाधिकार था। उद्योग व्यापार उनके हाथ में थे। सरकार पर उनका वर्चस्व था तथा सामाजिक क्षेत्र में वह विशेष अधिकार संपन्न समुदाय के रुप में थे। आजादी के बाद सीमित रुप में ही सही पर उनकी इस स्थिति में प्रतिकूल बदलाव आया। उनके वर्चस्व और विशेष अधिकरों को चुनौती मिलने लगी। इस परिस्थिति में सामंती-शोषक मनोवृत्ति से ग्रस्त सवर्णों का यह तबका हर कीमत पर अपने राजनीतिक आर्थिक एवं सामाजिक विशेष अधिकरों को बनाये रखने के लिए कृत संकल्प हो आक्रमक रुख अपना लेता है। बराबरी तथा न्याय के लिए दलितों की आवाज को वह बल प्रयोग द्वारा कुचल देना चाहता है। दलितों की ह्त्यायें, उनकी बस्तियों में लूट और आगजनी, उनकी महिलाओं के साथ बलात्कार आदि जघन्य अपराध इसी जातिवादी सोच से निकलते हैं।
दूसरा पहलू है सरकार की गलत नीतियां : आर्थिक तबाही के चलते आजकल अधिकांश सवर्ण नौजवानों के सामने शिक्षा एवं रोजगार की गंभीर समस्या पैदा हो गई है। शिक्षा पाने के अवसरों से वंचित होना और बेरोजगारी का शिकार होना यह वर्तमान सरकार और विकास के सत्यानाशी नीतियों का परिणाम है।
लेकिन जातिवादी नेताओं ने उसे यह कहकर गुमराह कर दिया कि उसे शिक्षा और रोजगार के अवसर से इसलिए वंचित होना पड़ा रहा है क्योंकि आरक्षण के व्यवस्था के चलते यह अवसर दलितों और पिछड़ो को आरक्षित कर दिये गये हैं। जातिवादी ताकतों के बहकावे में आकर यह नौजवान आरक्षण की नीति को अपनी बर्बादी का कारण मान लेता है और अपनी जाति के स्वार्थी नेताओं के द्वारा बहकाया जाकर जातीय दंगो व संघर्षों में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेने लगता है।
पिछड़ो के अंदर जातिगत चेतना
जहां तक पिछड़ो और दलितों का संबंध है यह याद रखना होगा कि वह जातियां तो है ही, लेकिन इसके साथ ही आजादी के साठ वर्ष के अंदर होने वाले सामाजिक, आर्थिक परिवर्तनों ने उनके अंदर भी वर्ग विभाजन को पैदा कर दिया है। आजादी के बाद के भू-सुधारों ने चाहे वह कितने ही अधूरे और सतही क्यों न रहे हो। ग्रामीण क्षेत्र में पिछड़ी जातियों की आर्थिक स्थिति में महत्वपूर्ण बदलाव किया है। आजादी से पूर्व इन पिछड़ी जातियों के पास कृषि भूमि का मात्र आठ प्रतिशत था। लेकिन आजादी के बाद के सुधारों के फलस्वरुप वह वर्तमान में लगभग चालीस फीसदी कृषि भूमि के मालिक हैं। ग्राम सभा, जंगल और नजूल की जमीन पर जो अवैध कब्जा किया हुआ है वह अलग। इसके फलस्वरुप हिन्दी भाषी क्षेत्र में जाट, यादव, कुर्मी आदि भू-स्वामी अर्थात् गांव में वर्चस्ववादी जाति के रुप में उभर कर सामने आये हैं। इन जातियों के इस भू-स्वामी तबके में वही शोषक सामंती जातिवादी सोच पैदा हो गयी है जो ग्रामीण सवर्णों में पाई जाती है।
जातिवाद और राजनीति
जातिप्रथा ने देश की संसदीय जनतांत्रिक पद्धति को प्रदूषित करने का ही काम किया है। उसने एकीकरण की चेतना को कमजोर बना करके उसके स्थान पर जाति आधारित राजनीतिक चेतना को स्थापित किया है। यह राजनीतिक जातिवादी चेतना कई रूपों में काम कर रही है। एक स्वस्थ राजनीति में राजनीतिक दलों की पहचान उनके राजनीतिक कार्यक्रम तथा राजनीतिक विचारधारा से होती है। लेकिन जातिवादी की मेहरबानी के कारण भारत में विशेषकर हिन्दी भाषी क्षेत्र में अधिकांश राजनीतिक दलों को उनके जातीय जनाधार के आधार पर चिन्हित करने और उसी रुप में उनके प्रति रुख अपनाने का रुझान बढ़ा है। इस तरह बहुजन समाज पार्टी मूलतः दलितों की पार्टी हो जाती है जो अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने के लिए दूसरी जातियों के साथ समीकरण बैठाने का काम करती है। समाजवादी पार्टी का मूल जातीय जानाधार पिछड़ों में यादव जाति है। उत्तर प्रदेश में अपना दल कुर्मियों की राजनीतिक पार्टी है। राजनीति में इस क्षेत्र में जाति का आधार कोई नयी बात नहीं है। न केवल हिन्दी भाषी क्षेत्र में बल्कि देश के पैमाने पर सत्ता में अपनी इजारेदारी को कांग्रेस ने जो एक राष्ट्रीय दल कहा जाता है, ब्राह्मण, दलित जातियों के गठजोड़ के साथ अल्पसंख्यकों को लेकर स्थापित किया था। चौधरी चरण सिंह जब कांग्रेस से अलग हुए तो उन्होंने ग्रामीण क्षेत्र में वर्चस्व रखने वाली जातियों अहीर, जाट, गुर्जर तथा राजपूतों को साथ लेकर अपने राजनीतिक दल का गठन किया था। हिन्दुत्व के एजेंडे को लेकर चलने वाली भारतीय जनता पार्टी और उसका आदि रुप जनसंघ पार्टी स्वाभाविक तौर पर सवर्ण जातियों की पार्टी के रुप में पहचान रखती है। जाति आधारित राजनीतिक दल केवल हिन्दी भाषी क्षेत्र की ही विशिष्टता नहीं है। सुदूर दक्षिण में तमिलनाड़ु में पीएमके तथा एनडीएमके पार्टियां भी जातिवादी पार्टिय़ां होने के अलावा और कुछ भी नहीं है। आंध्र प्रदेश हो या कर्नाटक, गुजरात हो या महाराष्ट्र इन सभी स्थानों पर अधिकांश राजनीतिक दल (केवल वामदलों को अपवाद के रुप में छोड़कर) जातिवादी के चश्मे से देखने, संगठित होने और काम करने की बीमारी के शिकार है।
जब राजनीतिक दल ही जाति के विषाणु से ग्रस्त है तो फिर राजनीतिक चुनाव पद्धति कैसे उससे बच सकती है। चुनाव के दौरान, वह चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का हो अथवा स्थानीय संस्थाओं का हो, जाति की अहम भूमिका हो जाती है। राजनीतिक दलों के लिए जातियां वोट बैंक में तब्दील हो जाती है। जिनको अपने कब्जे में लेने के लिए वह किसी भी तरह के अवसरवादी कदम उठाने से नहीं हिचकिचाते हैं। उदाहरण के लिए राजस्थान में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए एक आम चुनाव के दौरान भारतीय जनता पार्टी ने जाटों को आरक्षण का लाभ देने के लिए उन्हें ‘पिछड़ा’ घोषित कर दिया, इसका लाभ उन्हें चुनाव में मिला। अगले अर्थात आगामी चुनाव में इसी कार्यनीति पर अमल करते हुए गुर्जरों को ‘अनुसूचित जाति’ घोषित करने का वायदा किया गया। इस वायदे के पूरा न होने से राजस्थान में सरकार और गुर्जरों के बीच में तो टकराव हुआ ही इसने गुर्जर और मीणा जाति को भी जातियुद्ध में आमने सामने खड़ा कर दिया। समानता पर विश्वास रखने वाले ‘समाजवाद’ में आस्था रखने वाली समाजवादी पार्टी जाति प्रथा को नष्ट करने के लिए संघर्ष न चलाकर, वोट बैंक के खातिर विभिन्न जातियों के ‘समाजवादी’ संगठन बना रही है। इस तरह समाजवादी क्षत्रिय सभा आदि जातिवादी संगठन अस्तित्व में आकर सक्रिय हो जाते हैं। विभिन्न पार्टियां चुनाव के लिए अपने प्रत्याशियों का चयन करते समय उनकी योग्यता से पहले जाति को देखती हैं। यह देखा जाता है कि उस क्षेत्र के मतदाताओं से वह कितने जाति वोट पा सकता है। चुनाव प्रचार के समय चुनाव घोषणा पत्र हाथी के दिखाने के दांत की तरह होते हैं। असली प्रचार स्थानीय स्तर के जाति नेताओं को मोलतोल कर अपने पक्ष में करने का होता है ताकि उनके माध्यम से एकमुश्त जाति वोट प्राप्त हो सके। इसलिए एक चुनाव विश्लेषक ने टिप्पणी की थी भारत में लोग वोट नहीं करते हैं अपितु अपनी जाति के लिए वोट करते हैं (Do Not Caste vote but vote their caste).
जाति आधारित उत्पीड़न और अपराध
जाति प्रथा के बढ़ते कुप्रभाव ने समाजिक न्याय के प्रश्न को एक महत्वपूर्ण प्रश्न बना दिया है। संविधान के प्रावधानों तथा देश के कानूनों को मुंह चिढ़ाते हुए दलितों के प्रति अत्याचार, अपराध और भेदभाव कम होने के स्थान पर बढ़ ही रहे हैं। गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकडे इस कड़वी सच्चाई को सामने लाते हैं। 2006 के लिए गृह मंत्रालय द्वारा जारी किए गए आंकडे दलितों पर अपराधों की एक भयावह तस्वीर पेश करते हैं। इस वर्ष उत्तर प्रदेश में अनसूचित जातियों के खिलाफ दर्ज अपराधों की संख्या 4960 थी, जो देश में सबसे अधिक थी। दूसरे स्थान पर मध्यप्रदेश था जहां 4214 अपराध दर्ज किए गए। पूरे देश में दर्ज किए गए अपराधों में से आधे से अधिक हिन्दी भाषी क्षेत्र में ही थे। दक्षिण और पश्चिम भारत भी कोई अपवाद नहीं रहे। दक्षिण भारत में सबसे ज्यादा अपराध आंध्र प्रदेश में हुए जहां इनकी संख्या 3891 थी। चिन्ता की बात यह है कि अपराधों की यह संख्या साल-दर-साल कम होने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश में 2004 में यह संख्या 3785 थी, 2005 में बढ़कर 4397 हो गयी और जैसा कि उल्लेख किया जा चुका है 2006 में 4960 पहुंच गयी है।
उ.प्र. में इटावा के एक गांव में पूरे दलित परिवार की हत्या करने की, फतेहपुर में ग्राम प्रधान दलित महिला की हत्या की घटना चर्चा में रही तो आगरा में दलित बस्ती में आग लगाये जाने का काम हुआ। उत्तर प्रदेश के बाहर महाराष्ट्र के खेरालांजी में दलित हत्याकांड़ ने पूरे देश को ही एक तरह से हिलाकर रख दिया था।
इन अपराधों का सबसे क्रूर पहलू दलित महिलाओं के प्रति अपनायी गयी विकृत मानसिक सोच है। भारतीय समाज में महिला को जाति और परिवार की प्रतिष्ठा का प्रतीक माना जाता है। अतः दलितों पर हमले करते समय उनकी मान प्रतिष्ठा को धूल-धूसारित करने के लिए महिलाओं को खासतौर पर निशाना बनाया जाता है। दलित महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनायें हिन्दी भाषी क्षेत्र में आए दिन की बात है। पश्चिम उत्तर प्रदेश और उससे सटे हुए इलाके में दलित महिलाओं के प्रति प्रचलित वाक्य ‘बकरी को कभी भी दुहा जा सकता है और दलित महिला के साथ कहीं भी और कभी भी सोया जा सकता है’ इस इलाके की दलित और महिला विरोधी विकृत रुग्ण मानसिकता को उजागर करने के लिए पर्याप्त है। दलितों को सिर्फ अत्याचार, उत्पीड़न और अनाचार का ही सामना नहीं करना पड़ रहा है। छूआछूत निवारक कानून के बावजूद वह आज भी समाजिक भेदभाव और असमानता के शिकार है। यह भेदभाव कई रुपों में देखने को मिलता है। आज भी उन्हें कई स्थानों पर मंदिरों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है। यदि कानून की शक्ति के बल पर एक कद्दावर राष्ट्रीय नेता जगजीवन राम बनारस में विश्वनाथ के मंदिर में प्रवेश कर भी जाते हैं तो उस मंदिर को धार्मिक अनुष्ठानों के द्वारा पुनः पवित्र किया जाता है। तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश में सार्वजनिक ढाबों और चाय की दुकानों में दो ग्लास की परंपरा(दलितों के लिए अलग ग्लास, उच्च जातियों के लिए अलग ग्लास) का आज भी पालन होता है। राजस्थान के अंदरुनी ग्रामीण इलाकों के स्कूलों में दलित बच्चों को आज भी घड़े से सीधे पानी निकालकर पीने की अनुमति नहीं है। हिन्दी भाषी क्षेत्र के लगभग सभी प्रदेशों में यह देखने को मिला है कि जहां भी स्कूलों में ‘मिड़ डे मील’ योजना के अंतर्गत दलित महिला के द्वारा भोजन पकाया गया तो उसे ऊंची जाति के छात्रों ने खाने से इंकार कर दिया। उड़ीसा में एक दलित छात्रा को साइकिल पर सवार होकर स्कूल जाने की अनुमति उच्च जाति के लोगों ने नहीं दी। पुलिस के संरक्षण में ही लड़की साइकिल से यात्रा कर सकी। दलितों के साथ भेदभाव यहीं तक सीमित नहीं है। नौकरियों के मामले में भी उनके साथ भेदभाव हो रहा है। अकसर यह तर्क दिया जाता है कि नौकरियां योग्यता के आधार पर होती है और भेदभाव योग्यता उन्नमुख होता है जाति उन्नमुख नहीं। इस ढकोसले का पर्दाफाश हाल ही में किए गए एक शोध से हो जाता है। इस शोध में एक ही योग्यता को दर्शाने वाले आवेदन पत्र दलित, अल्पसंख्यक और सवर्ण आवेदनकर्ता के रुप में भेजे गए। साक्षात्कार के लिए अधिकांश जगह से केवल सवर्णों को बुलाया गया । उसी योग्यता के होने के बावजूद दलित को साक्षात्कर के लिए भी नहीं बुलाया गया। यह समाज में मौजूद भेदभाव पर आधारित दलित विरोधी चेतना का परिचायक है। यही चेतना है जसके चलते आरक्षण की व्यवस्था के बावजूद आज भी सरकारी और सार्वजनिक संस्थाओं में दलितों को जितनी नौकरियां प्राप्त होना चाहिए थी उसकी आधी भी प्राप्त नहीं हुई है।
जातिवादी उभार का लाभ उठाकर दलितों एवं पिछड़ो के अंदर के बुर्जुआ सामंती शोषक तत्व अपनी जनता के अधिकांश को अपने पीछे लामबंद करने में सफल हो जाते हैं, इस शोषित जनता के वास्तविक हितों और संघर्षों की उपेक्षा करते हुए सामाजिक न्याय के नारे से भ्रमित कर अपने पीछे गोल बंद कर लेते हैं। देश में सामाजिक न्याय तथा समानता पर आधारित समाज की स्थापना की कल्पना भी जाति प्रथा के रहते नहीं की जा सकती ह। जातिप्रथा अपने जन्म से ही शोषण का हथियार रही है। जातिप्रथा का इतिहास इसका गवाह है ।
जातिवाद से लड़ने का रास्ता
जातिप्रथा और जातिवाद के विरुद्ध प्राचीनकाल से ही आवाज उठती रही है। प्राचीन भारत में गौतम बुद्ध और महावीर मध्यकाल में कबीर और नानक जैसे संत तथा आधुनिक भारत में 19वीं सदी के समाजसुधारक एवं 20वीं सदी में अम्बेडकर जैसे योद्धा जातिप्रथा के विरुद्ध संघर्ष करते आये हैं। किन्तु इन सभी संघर्षों के बावजूद जातिप्रथा आज भी बनी हुई है। यह बताता है इन सुधारकों के प्रयास निष्फल रहे। इन प्रयासों की निष्फलता का कारण यह था कि वह जाति प्रथा की वास्तविकता की पूर्णरुप से ग्रहण नहीं कर सके। उन्होंने इसे केवल विकृत चेतना के रुप में देखा और यह माना कि उसके विरुद्ध मात्र वैचारिक संघर्ष चलाकर उसे समाप्त किया जा सकता है। यह मानते समय वह यह भूल गए कि जातिप्रथा की जड़े शोषणमूलक समाज में मौजूद संपत्ति के संबंधों पर आधारित है तथा संपत्ति के इन संबंधों को समाप्त किए बगैर जाति प्रथा को समाप्त नहीं किया जा सकता। वैचारिक संघर्ष जाति प्रथा को कुछ सीमा तक उदार और कमजोर भर बना सकता है उसे समाप्त नहीं कर सकता।
यह भी मानना कि जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए संपत्ति के संबंधों पर चोट करना ही पर्याप्त है यह एक संकीर्णतावादी रुख होगा। जाति प्रथा सामाजिक आर्थिक संरचना का हिस्सा होने के साथ-साथ उससे पैदा होने वाली ऐसी वैचारिक चेतना है जो हजारों वर्षों से लोगों को मिलती रही है और इस तरह वह अपने आप में एक मजबूत शक्ति के रुप में स्थापित हो गयी है। अतःएक स्वस्थ शिक्षा ही इस बुराई को खत्म करने में सहायक हो सकती है।
Biblography:-
Loksambaad fortnightly Newspaper
Caste: A social evil, Author: S.R.TOPPO; Rajat publication
Saturday, March 27, 2010
शेयर बाजार पर दुनिया का पहला हिंदी पोर्टल
मुंबई, 26 मार्च। मोलतोल डॉट इन www.moltol.in शेयर बाजार और कारोबार जगत पर दुनिया की पहली हिंदी वेबसाइट आज 26 मार्च 2010 को नए रंग रुप और अनेक नई खासियत के साथ लांच की गई। दो साल से भी कम के सफर में इस वेबसाइट ने शेयर बाजार के हिंदी भाषी निवेशकों के बीच खास जगह बनाई है एवं यह प्रगति जारी है।
मोलतोल के कार्यकारी शुभम शर्मा का कहना है कि मोलतोल डॉट इन आम आदमी को ऐसी सूचनाएं देने का प्रयास है जिससे वह वित्तीय रुप से मजबूत बनने के साथ देश को भी आर्थिक महासत्ता बनाने में अपना योगदान दे सकता है। असल में इस वेबसाइट का उद्देश्य आम आदमी की आर्थिक ताकत को बढ़ाना है।
मोलतोल डॉट इन के नए संस्करण की जानकारी देते हुए शुभम शर्मा ने बताया कि नई साइट नए फ्रेमवर्क पर आधारित है। वर्तमान साइट पुरानी साइट से अधिक तेज है और उपयोग में आसान है। यह अधिक सुरक्षित भी है। इस साइट के एकदम ऊपर दायी तरफ दो बटन हैं। बायां बटन दबाकर आप मोलतोल का रंगरूप अपनी पसंद के हिसाब से बना सकते हैं। यदि आपको मोलतोल के वर्तमान रंग पसंद नहीं हैं तो चाहे उसे बदल दें. दायां बटन मोलतोल की फीड का है।
इसी तरह नया शेयर बाज़ार मोड्यूल लगाया गया है जहां एशिया, अमरीका और यूरोप के सभी प्रमुख बाज़ार एक साथ हैं। साथ में आकर्षक ग्राफ और सभी जरूरी आंकड़े। किसी भी इंडेक्स पर माउस कर्ज़र को ले जाकर और विस्तृत जानकारी पाई जा सकती है। नए मौसम मोड्यूल. में सेटिंग दबाकर अपने शहर का नाम डालिए और मौसम की जानकारी पाई जा सकती है। नया ऑल इन वन मोड्यूल. जिसमें हैं मार्केट गैनर/लूजर, एनएसई/बीएसई तथा म्युचुअल फंड की समस्त जानकारी एक ही स्थान पर है। सबस्क्राइब मोड्यूल. बाएं से - फीड सबस्क्राइब करें, ट्विटर पर फोलो करें, फेसबुक फैन बनें, ईमेल में प्राप्त करें, यूट्यूब चैनल देखें। नया चर्चास्थल. यहां डिबेट कीजिए, राय मांगिए, बातचीत कीजिए... विकल्प अनेक हैं।
शर्मा ने बताया कि मोलतोल डॉट इन जल्दी ही देश के कुछ मुख्य मीडिया घरानों से रणनीतिक गठबंधन कर सकता है। रणनीतिक गठबंधन के लिए बातचीत चल रही है। मोलतोल डॉट इन को देश की कुछ क्षेत्रीय भाषाओं में भी जल्दी ही लाया जाएगा। गुजराती भाषा में इस साइट को तैयार करने का कार्य शुरु हो गया है। इसके अलावा शेयर बाजार में किन शेयरों में तकनीकी एवं फंडामेंटल के आधार पर निवेश किया जाए की जानकारी, मुफ्त में मोबाइल पर एसएमएस के रुप में शुरु की जाएगी। इस सेवा के तहत शेयर बाजार की खबरें अमरीकी शेयर बाजार, यूरोपीयन शेयर बाजार, एशियाई शेयर बाजार, सिंगापुर निफ्टी का हाल। भारतीय शेयर बाजार की भावी चाल और प्रमुख ब्रोकरेज फर्मों की निवेश राय मोबाइल पर रजिस्टर्ड यूजर को मुफ्त भेजी जाएगी।
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मोलतोल डॉट इन के नए संस्करण की जानकारी देते हुए शुभम शर्मा ने बताया कि नई साइट नए फ्रेमवर्क पर आधारित है। वर्तमान साइट पुरानी साइट से अधिक तेज है और उपयोग में आसान है। यह अधिक सुरक्षित भी है। इस साइट के एकदम ऊपर दायी तरफ दो बटन हैं। बायां बटन दबाकर आप मोलतोल का रंगरूप अपनी पसंद के हिसाब से बना सकते हैं। यदि आपको मोलतोल के वर्तमान रंग पसंद नहीं हैं तो चाहे उसे बदल दें. दायां बटन मोलतोल की फीड का है।
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Friday, March 26, 2010
कानू सान्यालः विकल्प के अभाव की पीड़ा
- संजय द्विवेदी कुछ ही साल तो बीते हैं कानू सान्याल रायपुर आए थे। उनकी पार्टी भाकपा (माले) का अधिवेशन था। भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चौरे ने मुझे कहा तुम रायपुर में हो, कानू सान्याल से बातचीत करके एक रिपोर्ट लिखो। खैर मैंने कानू से बात की वह खबर भी लिखी। किंतु उस वक्त भी ऐसा कहां लगा था कि यह आदमी जो नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरकों में रहा है कभी इस तरह हारकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएगा। जब मैं रायपुर से उनसे मिला तो भी वे बस्तर ही नहीं देश में नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा और काम करने के तरीके पर खासे असंतुष्ट थे। हिंसा के द्वारा किसी बदलाव की बात को उन्होंने खारिज किया था। मार्क्सवाद-लेलिनवाद-माओवाद ये शब्द आज भी देश के तमाम लोगों के लिए आशा की वैकल्पिक किरण माने जाते हैं। इससे प्रभावित युवा एक समय में तमाम जमीनी आंदोलनों में जुटे। नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी उनमें एक था। जिस नक्सलबाड़ी से इस रक्तक्रांति की शुरूआत हुई उसकी संस्थापक त्रिमर्ति के एक नायक कानू सान्याल की आत्महत्या की सूचना एक हिला देने वाली सूचना है, उनके लिए भी जो कानू से मिले नहीं, सिर्फ उनके काम से उन्हें जानते थे। कानू की जिंदगी एक विचार के लिए जीने वाले एक ऐसे सेनानी की कहानी है जो जिंदगी भर लड़ता रहा उन विचारों से भी जो कभी उनके लिए बदलाव की प्रेरणा हुआ करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में कानू बहुत विचलित थे। यह आत्महत्या (जिसपर भरोसा करने को जी नहीं चाहता) यह कहती है कि उनकी पीड़ा बहुत घनीभूत हो गयी होगी, जिसके चलते उन्होंने ऐसा किया होगा।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की सभी तीन नायकों का अंत दुखी करता है। जंगल संथाल,मुठभेड़ में मारे गए थे। चारू मजूमदार, पुलिस की हिरासत में घुलते हुए मौत के पास गए। कानू एक ऐसे नायक हैं जिन्होंने एक लंबी आयु पायी और अपने विचारों व आंदोलन को बहकते हुए देखा। शायद इसीलिए कानू को नक्सलवाद शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे। उनकी आंखें कहीं कुछ खोज रही थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस इस बात का है कि I could not produce a communist party although I am honest from the beginning.यह सच्चाई कितने लोग कह पाते हैं। वे नौकरी छोड़कर 1950 में पार्टी में निकले थे। पर उन्हें जिस विकल्प की तलाश थी वह आखिरी तक न मिला। आज जब नक्सल आंदोलन एक अंधे मोड़पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, कानू की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।”
देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है।
कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं। आप देखें तो आखिरी दिनों तक वे सक्रिय दिखते हैं, सिंगुर में भूमि आंदोलन शुरू हुआ तो वे आंदोलनकारियों से मिलने जा पहुंचते हैं। जिस तरह के हालत आज देखे जा रहे हैं कनु दा के पास देखने को क्या बचा था। छत्रधर महतो और वामदलों की जंग के बीच जैसे हालात थे। उसे देखते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा शायद उन्हें कचोटती होगी। अब आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत हो चुकी है। नक्सलवाद का विकृत होता चेहरा लोकतंत्र के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है कानू सान्याल का जाना विकल्प के अभाव की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। इसे वृहत्तर संबंध में देखें तो देश के भीतर जैसी बेचैनी और बेकली देखी जा रही है वह आतंकित करने वाली हैं। आज जबकि बाजार और अमरीकी उपनिवेशवादी तंत्र की तेज आंधी में हम लगभग आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं तब कानू की याद हमें लड़ने और डटे रहने का हौसला तो दे ही सकती है। इस मौके पर कानू का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है जिसे भरने के लिए कोई नायक नजर नहीं आता।
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Thursday, March 25, 2010
मीडिया का चरित्र और उसकी मजबूरियां
- वर्तिका नंदा
अंग्रेजी के एक अखबार के पत्रकार ने जब अपने यहां छपने वाली किसी स्टोरी विशेष की विश्वसनीयता पर आपत्ति जताई तो उसे जवाब संपादक से नहीं,बल्कि अखबार के मार्केटिंग हेड की तरफ से मिला. वैसे वह जवाब कम और सख्त हिदायत ज्यादा थी। उक्त महोदय ने जुझारू पत्रकार से कहा कि अखबार एक धंधा है. हम सब यहां पर धंधा करने बैठे हैं, अगरबत्ती जलाने नहीं. इसलिए आप वही लिखिए और वही देखिए जो बिकने लायक हो. अगर आपकी स्टोरी बिकने लायक नहीं होगी तो आप भी अखबार के लायक नहीं होंगे. दूसरी बात, हम भी कई बार आपको स्टोरी बताएंगे. वो स्टोरीज आपको करनी होंगी और याद रखिए, हम नहीं चाहेंगें कि उन स्टोरीज पर काम करते हुए आप अपने दिमाग को भी इस्तेमाल में लाएं. यह नए समय की पत्रकारिता की सच्ची तस्वीर है.
टैगलाइन चाहे जो भी कहे, अंदरूनी सच यही है कि पत्रकारिता अब पूरा सच नहीं बल्कि काफी हद तक व्यापार है. अखबार व्यापार कर रहा हो, इससे शायद किसी को बड़ी आपत्ति न हो लेकिन अफसोस इस बात पर तो हो सकता हो जब अखबार सिर्फ व्यापार ही बन कर रह जाए. हाल के महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव के तुरंत बाद द हिंदू के ग्रामीण संपादक पी साईंनाथ की खोजपरक रिपोर्ट ने जब यह साबित किया कि कैसे उस समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण के पक्ष में सरकारी खर्च पर सकारात्मक स्टोरीज छापी गईं, तो राजनीतिक हलकों में इसे लेकर तनाव पैदा हुआ. कई खबरों में अशोक चव्हाण की तुलना सम्राट अशोक तक से की गई थी. यह खबरें उस समय पर छपीं थीं जब कि चुनाव की घोषणा हो चुकी थी और जाहिर तौर पर आचार संहिता लागू हो गई थी. इन खबरों को नियम के मुताबिक कहीं भी एडवरटोरियल के रूप में छापा नहीं गया (ताकि पाठक को इस बात का अहसास तक न हो कि उन्हें खबर के रूप में जो दिया जा रहा है, वह असल में एक प्रायोजित मामला है). इस तरह जनता के जो पैसे सरकारी खजाने में जमा होते रहते हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा इन दिनों राजनेता अपनी इमेज एंड लुक को चमकाने में खर्च करने लगे हैं, वो भी कुछ इस अंदाज में कि जेब जनता की ढीली हो औप मकसद वे साधें. यह ठीक है कि बाजार में टिके रहने के लिए व्यापार तो करना ही होगा लेकिन व्यापार की भी कुछ शर्तें और मर्यादाएं होती हैं. ऐसा कतई नहीं है कि कोला से कीटनाशक उड़नछू हो गए हैं. वे आज भी उन्हीं बोतलों में मौजूद हैं. इनमें कीटनाशक होने की जो छोटी-मोटी खबरें कुछ साल पहले हुईं थीं, उनका सीधा फायदा यह हुआ कि कई गांवों में किसानों ने कोला को अपने खेतों पर एक कीटनाशक के तौर पर इस्तेमाल करना शुरू कर दिया (और इससे खूब लाभान्वित भी हुए) लेकिन मीडिया को क्या हुआ. इन कीटनाशकों को मीडिया ने क्यों हजम किया. क्या मीडिया इस बात आश्वस्त हो गया कि कोला स्वास्थ्यवर्धक है, हानिकारक नहीं. यहां मीडिया की चुप्पी की वजह तर्क और प्रमाण पर आधारित परिणाम नहीं था, बल्कि सिक्कों की खनक और मुंह से टपकती लार थी. स्वाद और ठंडे के नाम पर कीटनाशक देने वाली ये कंपनियां चैनलों और अखबारों को बने रहने के लिए मोटी रकम देती हैं.कुछ दिनों तक हाथी के दांतों से गुस्सा दिखाने के बाद मीडिया सहमत हो गया कि कीटनाशकों के चक्कर में मोटे लालाओं और आकाओं से नाराजगी मोल लेने से जन हित सुखाय पत्रकारिता भले ही हो जाएगी लेकिन मीडिया मालिक सुखाय नहीं. वैसे भी यह दौर 1940 का नहीं है जब महात्मा गांधी सरीखे व्यक्तितत्व सोचते थे कि मीडिया और विज्ञापन एक-दूसरे से जितना दूर रहें, उतना ही भला है. तो फिर किया क्या जाए. पूरा सच कहीं भी नहीं है और पसरे हुए पूरे झूठ को ढूंढना मुश्किल नहीं. ऐसे में जरूरी हो जाती है मीडिया शिक्षा जो किसी को भी दी जा सकती है. सूचना क्रांति के इस विस्फोटक दौर में मीडिया के चरित्र और उसकी मजबूरियों को समझाने के लिए कुछ प्रयास किए ही जाने चाहिए. जब तक ऐसा हो पाता है, तब तक एक आम दर्शक और पाठक को इतना तो जान ही लेना चाहिए कि वह जो देखे-पढ़े, उस पर विश्वास करने से पहले अपनी समझ को भी इस्तेमाल में लाए. सीधा मतलब यह कि अगर वह खुद भी थोड़ा पत्रकार बन सके तो कोई हर्ज नहीं. यह किसने कहा कि हथियार की समझ तभी बढ़ानी चाहिए जब खुद के पास हथियार हो.
यह लेख दैनिक भास्कर में प्रकाशित हुआ है.
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Monday, March 22, 2010
संदीप भट्ट का जन्मदिन मनाया छात्र-छात्राओं ने
भोपाल,22मार्च। जनसंचार विभाग के व्याख्याता संदीप भट्ट का जन्मदिन विभाग के छात्र-छात्राओं ने उत्साह से मनाया। इस मौके पर सभी ने श्री भट्ट के सुखद जीवन की कामना की। श्री भट्ट ने इस मौके पर सबकी शुभकामनाएं स्वीकारते हुए छात्र- छात्राओं के सफल जीवन की आशा जताई। इस अवसर पर विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, व्याख्याता मीता उज्जैन, शलभ श्रीवास्तव खास तौर पर मौजूद रहे।
गांव और विकास की खबरें- ढूंढते रह जाओगे
विभाग में छात्रों ने की चर्चा
भोपाल, 22 मार्च। गाँव और विकास से जुड़ी खबरों को आज के दौर में अख़बार कितना स्थान दे रहे हैं। इस विषय पर माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के छात्र-छत्राओं ने प्रस्तुतिकरण दिया।
इसमें देश के विभिन्न प्रमुख हिन्दी तथा अंग्रेजी भाषाओं के अख़बारों को शामिल किया गया था। अख़बारों में विकास से जुड़ी ख़बरों का कम होना व विज्ञापनों के बढ़ते स्थान की चिंता व्यक्त की गयी। विकास से जुड़ी खबरों में भी किस विषय को, किस पृष्ठ पर कितनी जगह दी गयी है व इसके साथ ही भाषा सम्बन्धी त्रुटियों की भी चर्चा कार्यक्रम में की गयी। गाँवों से जुड़ी ख़बरों का कम होना व उनका सिर्फ अपराध से जुड़ा होना भी प्रस्तुतिकरण के दौरान प्रमुख तथ्य के रुप में सामने आया। दो सदस्यीय दल के रूप में गठित छात्र-छत्राओं के समूह में सबसे बेहतर प्रस्तुतिकरण देने के लिए श्रेया मोहन व कृष्ण मोहन तिवारी को प्रथम स्थान मिला।
इसके अलावा एनी अंकिता व साकेत नारायण को द्वितीय तथा नितिशा कश्यप व देवाशीष मिश्रा को तृतीय स्थान प्राप्त हुआ। कार्यक्रम के अंत में छात्र कुंदन पाण्डेय, कृष्णकुमार तिवारी और दीपक त्यागी ने प्रस्तुतिकरण पर अपनी टिप्पणी दी।
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Wednesday, March 17, 2010
खबर की कीमत
ओम थानवी
हरियाणा के मुख्यमंत्री भूपेंद्रसिंह हुड्डा ने राज्य की बागडोर फिर संभाल ली है। मगर यह प्रसंग उनके पिछले कार्यकाल का है। चंडीगढ़ में उनके निवास के पिछवाड़े की बगिया में हम धूप में बैठे थे। चौटाला के लोकदल और भारतीय जनता पार्टी के सफाये की खुशी माहौल पर तारी थी। पर इधर-उधर की बातों के बीच एक बात से वे आहत जान पड़े। अखबार वाले से मुखातिब थे, शायद इसलिए भीतर की टीस छलक आयी होगी। बोले अखबारों की तादाद (हरियाणा में) बहुत बढ़ गयी है, लेकिन पता नहीं किस दिशा में जा रहे हैं!
इसरार पर बगैर झिझक उन्होंने बताया : रोहतक में विरोधी दल की छोटी-सी सभा थी। उसकी खबर एक हिंदी दैनिक में पहले पेज पर छपी, जिसमें सभा की भीड़ की तादाद कई गुना बढ़ाकर बतायी गयी थी। मैंने अखबार के मालिक को फोन किया। उन्होंने जवाब दिया कि वह तो विज्ञापन था। जिसने पैसा दिया, उसका मजमून छप गया। यह जवाब सुनकर हुड्डा हैरान हुए और पूछा कि पैसा देकर क्या कोई कुछ भी छपवा सकता है? जवाब मिला – बिलकुल, सामग्री का जिम्मा उसी का होता है। मैं सकते में आ गया – हुड्डा बता रहे थे – और उनसे कहा, कल के अंक में पहला पूरा पृष्ठ हमारे लिए बुक कीजिए और एक पंक्ति बड़े-बड़े हर्फों में हमारे खर्च पर छापिए: ‘यह अखबार झूठा है’। छापेंगे न? अखबार के मालिक बोले, आप कैसी बात कर रहे हैं?
हुड्डा के मुताबिक उन्हें मालिक को यह सुनाते देर नहीं लगी कि पैसा देकर जब कोई भी झूठ छप सकता है, तो यह इबारत क्यों नहीं? इसे भी हमारे जिम्मे पर छापिए!
हुड्डा विनम्र स्वभाव के हैं, आसानी से खीझ जाहिर नहीं करते। मगर मुझे जरा संदेह नहीं हुआ कि चुनावी जद्दोजहद के बीच अखबारी गलतबयानी पर उन्होंने अपनी प्रतिक्रिया इसी तल्खी में जाहिर की होगी।
तब यही लगा कि यह इक्के-दुक्के अखबार की कारगुजारी होगी। ज्यादातर अखबारों पर ऐसी तोहमत शायद नहीं लगायी जा सकती थी। मगर आगे बिहार-उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों और फिर लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में ऐसी शिकायतें आम हो गयीं। देखते-देखते ‘पेड न्यूज’ का सिलसिला एक ओढ़ी गयी बीमारी की तरह छोटे-मोटे अनेकानेक अखबारों को घेरता दिखाई देने लगा।सब जानते हैं, बरसों से हर चुनाव में प्रादेशिक अखबार उम्मीदवारों से कैसे प्रचार या समर्थन के इजहार वाले इश्तहार दबाव से हासिल करते थे। बदले में उनकी चुनावी रैलियों का बेहतर कवरेज मुहैया करवाया जाता था। हाल के चुनावों में बड़ा फर्क यह आया कि उम्मीदवारों से मनचाहे बयान और सभाओं के ब्योरे कीमत लेकर जस-के-तस छापे गये। इश्तहार के साथ छपे बयान का ज्यादा असर नहीं होता। यह बयानबाजी असरदार साबित हुई। जिसने ज्यादा रकम देकर प्रचार पाया, उसका झूठ विरोधियों को तिलमिला गया। वसूली चौड़े में आ गयी। लेकिन क्या उसे शह भी नेताओं ने नहीं दी?कहने का यह मतलब न निकालें कि यह पत्रकार बिरादरी की तरफदारी करते हुए नेताओं को कसूरवार ठहराने की कोशिश है। लेकिन ताली एक हाथ से नहीं बजती। आयोग के हर कायदे को धता बताते हुए हमारे उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं। पैसा पानी की तरह बहता है। सोचते होंगे, थोड़ा पानी अखबारों की तरफ बह जाए तो हर्ज क्या है। इससे दोनों की प्यास बुझती है। एक ही शर्त कि भरपाई इश्तहार की शक्ल में न हो। इसका उनको दोहरा लाभ है। एक तो यह चुनावी खर्च, खर्च नहीं ठहराया जाएगा। दूसरा, ज्यादा बड़ा, फायदा यह कि खबर की शक्ल में प्रचार अधपढ़ समुदाय को ज्यादा प्रभावित करेगा, बनिस्बत इश्तहारी प्रचार के।हुड्डा तो खैर उस चुनाव से पहले सत्ता में नहीं थे। जो सत्ता में रहते हैं, उनके अखबारों से राग-विराग के अपने रिश्ते बनते हैं। ऐसे रागियों की प्रतिक्रियाएं बड़ी दिलचस्प रहीं। बताते हैं, उत्तर प्रदेश के भाजपा नेता लालजी टंडन ने एक अखबार को कोसते हुए कहा कि कानपुर में उनके दल ने अखबार के दिवंगत मालिक के नाम पर पुल का नाम रखवाया, जमीनें दिलवायीं। उसी अखबार ने खबरों के लिए पैसे मांगे, ‘ऐसी निर्लज्जता?’
कोई पूछे कि भाजपा ने पुल का नामकरण पत्र के मालिक के नाम पर किस मकसद से किया होगा? किस भाव से नेता अखबारों को सस्ती जमीनें देते हैं?कुछ रोज पहले मुंबई में पी साईनाथ के साथ एक संगोष्ठी में शरीक था। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के विधानसभा क्षेत्र में बेनामी इश्तहारों की पोल कई अखबारों के पन्ने दिखाते हुए खोली। मजे की बात यह थी कि संगोष्ठी के अगले दौर में मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण खुद आने वाले थे। वे आये। पर संभवत: शिष्टाचार में किसी पत्रकार ने उनसे जिरह नहीं की। एक ने सवाल पूछ लिया : जवाब मिला – मामला चुनाव आयोग के सामने विचाराधीन है, अभी इस पर बात करना मुनासिब न होगा। कब होगा?पिछले साल आम चुनाव में बिहार में प्रभाषजी जब पूर्व विदेश राज्यमंत्री दिग्विजय सिंह के चुनाव क्षेत्र में थे, उन्हें प्रायोजित चुनावी कवरेज के लिए नामी अखबारों के रेट-कार्ड मिले। मेरे मित्र अनुराग चतुर्वेदी ने उन्हें मनचाही खबरें और तस्वीरें छपवाने के लिए तय दरों के ‘पैकेज’ और ‘रीचार्ज पैकेज’ की पुख्ता जानकारी दी। दिल्ली लौट कर उन्होंने इस भ्रष्टाचार के खिलाफ जिहाद बोला। धुआंधार लिखा, प्रेस काउंसिल गये, सरकार से भिड़े। हृदय ने असमय दगा न किया होता तो मुहिम को वे किसी तार्किक परिणति के करीब पहुंचता देखते।पर प्रभाषजी और साईनाथ आदि जुझारू पत्रकारों की कोशिशें अब रंग ला रही हैं। पैसे लेकर खबरें छापने की प्रवृत्ति के खिलाफ विवेकशील पत्रकार और संगठन एकजुट हो गये हैं। प्रेस काउंसिल, एडीटर्स गिल्ड, सूचना-प्रसारण मंत्रालय, सार्वजनिक और स्वैच्छिक संगठन अपनी दो टूक राय रख रहे हैं। हर दूसरे दिन किसी संगोष्ठी की सूचना देखने में आती है। उम्मीद बंधती है कि इसका असर होगा।लेकिन ‘पेड न्यूज’ अकेली बीमारी नहीं है। नयी और ज्यादा मुखर जरूर है। कुछ चीजें और हैं, जिन्हें लगे हाथ निराकरण प्रयासों के दायरे में ले आना चाहिए। जैसे राजनीतिक दलों और व्यापारिक प्रतिष्ठानों के हाथों मीडिया के जाने-अनजाने इस्तेमाल होने का कुचक्र। मीडिया को कीमत मिलती है और समाज के सामने प्रायोजित सामग्री परोस दी जाती है। यह काम इतनी चतुराई से होता है कि उसे आसानी से नहीं पकड़ा जा सकता। हालांकि पकड़ना नामुमकिन नहीं है।एक पूरा तंत्र विकसित है, जो पेशेवराना तौर पर मीडिया को ‘मैनेज’ करता है। निजीकरण के दौर में भी नेहरू जी की रूसी प्रेतछाया सरकारी प्रचार तंत्र पर कायम है। अपने रेडियो स्टेशन, टीवी चैनल और पत्रिकाओं के बावजूद ‘मीडिया मैनेजमेंट’ के लिए जिला प्रशासन से लेकर प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति कार्यालय तक प्रचार अधिकारी तैनात हैं। राजनीतिक दलों और सार्वजनिक व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के पास अपने प्रचार प्रबंधक हैं। उन पर होने वाले खर्च का जोड़ लगाएंगे तो अरबों का हिसाब बैठेगा। उनका काम क्या है? डायरी-कैलेंडर से लेकर शराब, मकान, जमीन, देश-परदेस के सैर-सपाटे जैसे लालच भुगता कर मनमाफिक चीजें शाया करवाने के प्रयास करना। प्रयासों की सफलता पाठक, दर्शक या श्रोता के कितने हक में काम करती है, कितने खिलाफ – इसकी हकीकत समझने की कोशिश होनी चाहिए।चुनाव के दौरान संपादकों और संवाददाताओं के अपने आग्रह-दुराग्रह अपनी जगह होते हैं, उन्हें मिलने वाली सामग्री हमेशा क्या जरूरी खोजबीन के बाद छपती है? मसलन कुछ दल अपने पसंदीदा सर्वेकार से चुनावी सर्वे कराते हैं और उसे ठीक मतदान से पहले जारी करवाते हैं। कुछ संपादक उसे नजरअंदाज कर देते हैं, कुछ प्रमुखता से प्रकाशित करते हैं। चतुरसुजान जानते हैं कि कौन अखबार किस चीज को छापेंगे, किसको नहीं।बड़ा मुद्दा समाज को झूठी या कच्ची खबरों से गुमराह न होने देना है। ‘पेड न्यूज’ उसका एक साफ दिखने वाला रूप है, जिससे टीवी भी बचा नहीं है। अखबार ‘जगह’ बेचते हैं, टीवी ‘वक्त’। यहां तक कि इंटरनेट भी इसकी गिरफ्त में आ चुका है। टीवी पर मतदान से पहले सर्वेक्षण और नमूने के नतीजे भी खूब प्रसारित होते रहे हैं। इतने बड़े देश में चुनाव एक साथ नहीं हो पाते। एक जगह के नतीजे से दूसरी जगह हवा बन या बिगड़ सकती है। मगर सिर्फ ‘वैज्ञानिक’ अंदाजे वाले नतीजे जिज्ञासा के मारे हुए दर्शकों को परोसने का क्या सबब हो सकता है? लोग हार-जीत और सरकार बनने गिरने के फैसलाकुन अनुमानों – जिन्हें भरोसेमंद लोग पेश करते हैं – को देखने-सुनने को उमड़ पड़ते हैं। उनके साथ उमड़े आते हैं बेतहाशा इश्तहार। मानो व्यवसाय जगत की सब थैलियां इसी तरफ खुल गयी हों।‘पेड न्यूज’ न सही, धन का लोभ टीवी को भी अपनी ओर कम नहीं खींचता। चुनावी सर्वे और उनके आकलन का सिलसिला पहले पत्र-पत्रिकाओं ने शुरू किया था। इससे उन्हें ज्यादा पाठक मिलते थे। टीवी को दर्शक और विज्ञापन दोनों का फायदा है। लेकिन दर्शकों को गुमराह करने की कीमत पर। उचित ही है कि चुनाव आयोग ने मतदान को प्रभावित करने वाली सभी गतिविधियों पर तो नहीं, मगर ‘एग्जिट पोल’ पर बंदिश लागू कर दी है।मीडिया का काम जानकारी देना माना जाता है। पाठक या दर्शक-श्रोता की समझ बढ़ाना भी उसका काम है। धन लेकर प्रायोजित सामग्री में भागीदार बनने से भ्रमित करने वाली जानकारी का प्रसार होता है तो इसे भी समस्या मानकर सरोकारों में शामिल करना चाहिए। ऐसे ही उठाने-गिराने वाली राजनीतिक खबरों और बाजार को हवा देने वाली व्यापारिक खबरों के निहितार्थ और प्रयोजन पकड़े जाने चाहिए।खुशी की बात है कि एडीटर्स गिल्ड ने ‘पेड न्यूज’ के मामले को बहुत गंभीरता से लिया है। ‘खबरों के भेस में राजनीतिक विज्ञापनों’ को लेकर गिल्ड का प्रतिनिधिमंडल चुनाव आयोग से भी मिला है। मेरे खयाल में इन कोशिशों का दायरा बढ़ाना चाहिए। चुनावों के अलावा आम दिनों में भी ‘पेड न्यूज’ छपती हैं। एक उदाहरण लीजिए। पिछले महीने – 4 फरवरी को दिल्ली के एक नये हिंदी दैनिक में विश्व पुस्तक मेले पर एक पूरा पृष्ठ निकला। पुस्तक प्रेमियों ने उसे चाव से पढ़ा होगा। सामग्री क्या थी? पहले कॉलम में पहला आलेख : ‘पुस्तकों की दुनिया में बदलाव आना स्वाभाविक है। ये बदलाव अब लाएगा पेजिस बुक स्टोर। नोएडा सेक्टर 18 के रायल पैलेस में स्थित पेजिस बुक स्टोर…’। दूसरे आलेख का शीर्षक : ‘शैक्षिक पुस्तकों का उच्च प्रकाशन: वृंदा पब्लिकेशन’। तीसरा : ‘सफलता का पर्याय है उपकार प्रकाशन’। चौथा : ‘आकार बुक्स: पुस्तक प्रकाशन में नया आयाम’।शीर्षक देखकर ही समझ में आ गया कि पैसे के बदले छापी गयी सामग्री है। इसका सबूत भी पृष्ठ पर मौजूद था – उन्हीं प्रकाशकों के इश्तहार जिनकी दुकानों के बारे में आलेख या चित्र खबर की शक्ल में, बगैर किसी हवाले या स्रोत के, प्रकाशित किये गये थे।चुनावी खबर हो तो शोर भी मच सकता है, मगर क्या कोई पुस्तक-प्रेमी ऐसी सामग्री से गुमराह नहीं हुआ होगा? वह कैसे जानेगा कि किसी प्रकाशक या किताब को महान बताना महज एक सौदा है? माना जा सकता है कि शायद विज्ञापन विभाग खबरों-लेखों को इश्तहार बताना भूल गया हो। लेकिन यह भी सच है कि इश्तहार को खबर की शक्ल में छपवाने के ज्यादा दाम मिलते हैं। इसे ही कहते हैं – इस हाथ ले, उस हाथ दे!
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Monday, March 15, 2010
भारतीय नववर्ष पर जनसंचार विभाग का आयोजन
कुछ गाना भी जरूरी है नववर्ष पर
भारतीय नववर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं
नए साल की क्लास
भारतीय नववर्ष उत्सव में शामिल हुए डा. पवित्र
नए साल की बधाई सर
नए साल की शुभकामनाएं देते छात्र
हर्षोल्लास से मना भारतीय नववर्ष
भोपाल,15 मार्च। सोमवार को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में भारतीय नववर्ष की पूर्व संध्या पर एक कार्यक्रम आयोजित किया गया। कार्यक्रम में जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों ने भारतीय नववर्ष से जुड़े ऐतिहासिक, पौराणिक व वैज्ञानिक तथ्यों के बारे में चर्चा की।
इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलपति बृजकिशोर कुठियाला ने विभिन्न उदाहरणों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के गौरवमय इतिहास को बताया और कहा कि हमें गर्व होना चाहिए कि हम भारतीय हैं। उन्होंने इसकी व्यवहारिकता एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी छात्रों को अवगत कराया। योग व आयुर्वेद के वैश्विक प्रसार का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि हमें अपनी श्रेष्ठ चीजें को विश्व को देने का कोशिश करनी चाहिए। श्री कुठियाला ने कहा कि हमें अपनी सांस्कृतिक वैभव से जुड़ी जानकारियों का वैश्वीकरण करना होगा तथा विदेशी ज्ञान-विज्ञान का भारतीयकरण करना होगा।
जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि ये काफी दुःखद है कि नयी पीढ़ी भारतीय नववर्ष के बारे में कम जानती है। उन्होंने कहा कि हमें अपनी तरफ से इसको प्रोत्साहित करने की कोशिश करनी चाहिए फिर तो बाजार इसका अपने आप ही वैश्वीकरण कर देगा। इस मौके पर छात्र-छात्राओं ने नववर्ष पर स्वनिर्मित शुभकामना पत्र कुलपति श्री कुठियाला को भेंटकर उन्हें नए साल की शुभकामनाएं दीं। कार्यक्रम में पवित्रा भंडारी और एन्नी अंकिता ने कविताएं प्रस्तुत कीं तो बिकास कुमार शर्मा एवं पंकज साव ने गीत प्रस्तुत कर माहौल को सरस बना दिया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ पवित्र श्रीवास्तव ने की। इस अवसर पर सर्वश्री संदीप भट्ट, पूर्णेदु शुकल, शलभ श्रीवास्तव, देवेशनारायण राय, साकेत नारायण, कुंदन पाण्डेय सहित विभाग के छात्र मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन शिशिर सिंह व आभार प्रदर्शन सोनम झा ने किया।
Saturday, March 13, 2010
आओ भारतीय नववर्ष मनाएं
भारतवर्ष वह पावन भूमि है जिसने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपने ज्ञान से आलोकित किया है। इसने जो ज्ञान का निदर्षन प्रस्तुत किया है वह केवल भारतवर्ष में ही नहीं अपितु संपूर्ण विश्व के कल्याण का पोषक है। यहाँ संस्कृति का प्रत्येक पहलू प्रकृति व विज्ञान का ऐसा विलक्षण उदाहरण है जो कहीं और नहीं मिलता। नये वर्ष का आरम्भ अर्थात् भारतीय परम्परा के अनुसार ‘वर्ष प्रतिपदा’ भी एक ऐसा ही विलक्षण उदाहरण है।भारतीय कालगणना के अनुसार इस पृथ्वी के सम्पूर्ण इतिहास की कुंजी मन्वन्तर विज्ञान मे है। इस ग्रह के संपूर्ण इतिहास को 14 भागों अर्थात् मन्वन्तरों में बाँटा गया है। एक मन्वन्तर की आयु 30 करोड़ 67 लाख और 20 हजार वर्ष होती है। इस पृथ्वी का संपूर्ण इतिहास 4 अरब 32 करोड़ वर्ष का है। इसके 6 मन्वन्तर बीत चुके हैं। और सातवाँ वैवस्वत मन्वन्तर चल रहा है। हमारी वर्तमान नवीन सृष्टि 12 करोड़ 5 लाख 33 हजार 1 सौ 4 वर्ष की है। ऐसा युगों की भारतीय कालगणना बताती है। पृथ्वी पर जैव विकास का संपूर्ण काल 4,32,00,00,00 वर्ष है। इसमें बीते 1 अरब 97 करोड़ 29 लाख 49 हजार 1 सौ 11 वर्षों के दीर्घ काल में 6 मन्वन्तर प्रलय, 447 महायुगी खण्ड प्रलय तथा 1341 लघु युग प्रलय हो चुके हैं। पृथ्वी व सूर्य की आयु की अगर हम भारतीय कालगणना देखें तो पृथ्वी की शेष आयु 4 अरब 50 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष है तथा पृथ्वी की संपूर्ण आयु 8 अरब 64 करोड़ वर्ष है। सूर्य की शेष आयु 6 अरब 66 करोड़ 70 लाख 50 हजार 9 सौ वर्ष तथा सूर्य की संपूर्ण आयु 12 अरब 96 करोड़ वर्ष है।
विश्व की प्रचलित सभी कालगणनाओं मे भारतीय कालगणना प्राचीनतम है। इसका प्रारंभ पृथ्वी पर आज से प्राय: 198 करोड़ वर्ष पूर्व वर्तमान श्वेत वराह कल्प से होता है। अत: यह कालगणना पृथ्वी पर प्रथम मानवोत्पत्ति से लेकर आज तक के इतिहास को युगात्मक पद्वति से प्रस्तुत करती है। काल की इकाइयों की उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास के लिए कालगणना के हिन्दू विषेषज्ञों ने अंतरिक्ष के ग्रहों की स्थिति को आधार मानकर पंचवर्षीय, 12वर्षीय और 60 वर्षीय युगों की प्रारम्भिक इकाइयों का निर्माण किया। भारतीय कालगणना का आरम्भ सूक्ष्मतम् इकाई त्रुटि से होता है। इसके परिमाप के बारे में कहा गया है कि सूई से कमल के पत्ते में छेद करने में जितना समय लगता है वह त्रुटि है। यह परिमाप 1 सेकेन्ड का 33750वां भाग है। इस प्रकार भारतीय कालगणना परमाणु के सूक्ष्मतम इकाई से प्रारम्भ होकर काल की महानतम इकाई महाकल्प तक पहँचती है।
पृथ्वी को प्रभावित करने वाले सातों ग्रह कल्प के प्रारम्भ में एक साथ एक ही अश्विन नक्षत्र में स्थित थे। और इसी नक्षत्र से भारतीय वर्ष प्रतिपदा का प्रारम्भ होता है। अर्थात् प्रत्येक चैत्र मास के शुक्ल पक्ष के प्रथमा को भारतीय नववर्ष प्रारम्भ होता है जो वैज्ञानिक दृष्टि के साथ-साथ सामाजिक व सांस्कृतिक संरचना को प्रस्तुत करता है। भारत में अन्य संवत्सरों का प्रचलन बाद के कालो में प्रारम्भ हुआ जिसमें अधिकांष वर्ष प्रतिपदा को ही प्रारम्भ होते हैं। इनमे विक्रम संवत् महत्वपूर्ण है। इसका आरम्भ कलिसंवत् 3044 से माना जाता है। जिसको इतिहास में सम्राट विक्रमादित्य के द्वारा शुरु किया गया मानते हैं। इसके विषय में अलबरुनी लिखता है कि ”जो लोग विक्रमादित्य के संवत का उपयोग करते हैं वे भारत के दक्षिणी एवं पूर्वी भागो मे बसते हैं।”
इसके अतिरिक्त भगवान श्रीराम का जन्म भी चैत्र शुक्लपक्ष में तथा वरुण देवता (झूलेलाल) का जन्म भारतीय मान्यताओं के अनुसार वर्ष प्रतिपदा को माना जाता है। आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा आर्य समाज की स्थापना तथा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के संस्थापक प.पू.डॉ0 केशव राम बलिराम जी का जन्म 1889 में इसी पावन दिन (वर्ष प्रतिपदा) को हुआ था।
इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी भारतीय नववर्ष उसी नवीनता के साथ देखा जाता है। नये अन्न किसानों के घर में आ जाते हैं, वृक्ष में नये पल्लव यहाँ तक कि पशु-पक्षी भी अपना स्वरुप नये प्रकार से परिवर्तित कर लेते हैं। होलिका दहन से बीते हुए वर्ष को विदा कहकर नवीन संकल्प के साथ वाणिज्य व विकास की योजनाएं प्रारम्भ हो जाती हैं। वास्तव में परम्परागत रुप से नववर्ष का प्रारम्भ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से ही प्रारम्भ होता है।
-बालमुकुन्द पाण्डेय
हिमालय की वादी में यात्रा, पेंग्विन और दून लाइब्रेरी का शब्द मेला
उत्तराखंड पर्यटन विकास बोर्ड, गेल (इंडिया) लिमिटेड और पेंगुइन बुक्स इंडिया के सहयोग से यात्रा बुक्स और दून लाइब्रेरी एंड रिसर्च सेंटर, ‘दून रीडिंग्सः हिमालय की गूंज’ कार्यक्रम के दूसरे आयोजन में 2, 3 और 4 अप्रैल को देहरादून में करने जा रहा है। पहली बार मई 2008 में इस तरह का आयोजना शुरू हुआ था और उसकी मास अपील शानदार रही थी। इस वर्ष साहित्योत्सव मुख्य रूप से उत्तराखंड पर केंद्रित है। राज्य भर के कवियों के काव्य पाठ और गायकों के गायन के साथ साहित्योत्सव शुरू होगा। लीलाधर जगूड़ी, मंगलेश डबराल, गिरदा, शेखर पाठक, नरेंद्र नेगी, बटरोही, डॉ अतुल शर्मा, जगदीश जोशी सरीखे कुछ जाने-माने उत्तरांचली लेखकों, कवियों और गायकों समेत गीतकार, पटकथा लेखक और एड गुरु प्रसून जोशी देहरादून के इस तीन दिवसीय साहित्योत्सव में शिरकत करेंगे। इनके अलावा कई और अग्रणी लेखक चर्चा-परिचर्चा, अंश पाठ और सांस्कृतिक संध्या के आयोजन के दौर में शामिल होंगे।
मशहूर इतिहासकार, लेखक और शिक्षाविद डॉ शेखर पाठक उत्तराखंड गाथा : द स्टोरी ऑफ उत्तराखंड शीर्षक से एक मॉन्टाश/कोलाज प्रस्तुत करेंगे। इस संवादपरक प्रस्तुति में अंचल की साहित्यिक परंपराओं पर खासतौर पर विचार-विमर्श के साथ उत्तराखंड की भूराजनैतिक स्थिति, पर्यावरण और सामाजिक-आखथक इतिहास पर भी बातचीत होगी। हिंदी के सुप्रसिद्ध दलित लेखक, जो अपनी आत्मकथा जूठन (1997) के लिए विख्यात हैं, ओम प्रकाश वाल्मीकि की दलित लेखन पर केंद्रित सत्र ‘द विंड्स ऑफ चेंज’ में नमिता गोखले के संग परिचर्चा होगी। भारतीय साहित्यकारों और बाल साहित्य लेखकों में सुविख्यात और चोटी के उपन्यासकार रस्किन बॉन्ड अपने प्रकृति संबंधी लेखन के बारे में बताएंगे। पेंगुइन बुक्स इंडिया के रवि सिंह के संग उनकी परिचर्चा होगी।
इस मौके पर यात्रा बुक्स दो नये काव्य-संग्रहों, विश्वजीत की कुछ शब्द कुछ लकीरें और विकी आर्य की बंजारे ख़्वाब का लोकार्पण कर रहा है। विश्वजीत पृथ्वीजीत सिंह राज्य सभा के माननीय पूर्व सांसद हैं और विकी आर्य दिल्ली के विज्ञापन जगत की एक युवा प्रोफेशनल हैं। दोनों ने ही अपने जीवन के शुरुआती वर्ष देहरादून में बिताये हैं और उनके दिलों में इस शहर की एक ख़ास जगह है। पत्रकार, टीवी शख़्सियत और लेखिका मृणाल पांडे अपनी पुस्तक देवी, टेल्स ऑफ द गॉडेस इन अवर टाइम के बारे में बात करेंगी।
मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास टटा प्रोफेसर के अंग्रेज़ी अनुवाद के लिए जानी-मानी लेखिका, संपादिका और अनुवादिका इरा पांडे को 2009 में क्रॉसवर्ड ट्रांसलेशन प्राइज़ से नवाज़ा गया। वे महोत्सव में टटा प्रोफेसर के कुछ अनूदित अंश का पाठ करेंगी।
पेंगुइन बुक्स इंडिया और यात्रा बुक्स देहरादून में अपनी संगीत शृंखला की पुस्तकों का भी लोकार्पण करेंगे। इस शृंखला में जाग उठे ख़्वाब कई : साहिर लुधियानवी, सुर की बारादरी बिस्मिल्ला खां : यतींद्र मिश्र, यादें जी उठीं : मन्ना डे, ज़र्रा जो आफताब बना : नौशाद, गुलाब बाई : दीप्ति प्रिया महरोत्रा; कुंदन लाल सहगल का जीवन और संगीत : शरद दत्त की किताबें शामिल हैं। इस सत्र में यतींद्र मिश्र और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह संगीत पर लेखन के विषय में मंगलेश डबराल के साथ बातचीत करेंगे।
इस साहित्योत्सव में ‘पेंगुइन श्रेष्ठ कहानियां’ शृंखला के संदर्भ में ‘आज की हिंदी कहानी’ पर भी एक सत्र होगा। इस शृंखला में सुप्रसिद्ध हिंदी लेखकों के कहानी-संग्रह शामिल हैं। इनमें कुछ प्रमुख शीर्षक हैं : अगला यथार्थ, हिमांशु जोशी; थिएटर रोड के कौवे, ममता कालिया; तैंतीबाई, चंद्रकांता; स्वप्न घर, अरुण प्रकाश; आधी सदी का सफरनामा, स्वयं प्रकाश; आरोहण, संजीव; अरेबा परेबा, उदय प्रकाश; दोहरी ज़िंदगी, विजयदान देथा; चेहरे, चित्रा मुद्गल; ख़ाली
लिफाफा, राजी सेठ; घर बेघर, कमल कुमार।
साहित्योत्सव में अगली पीढ़ी के प्रतिनिधि के तौर पर युवा लेखक आदित्य सुदर्शन भी शामिल होंगे। आदित्य अपने पहले उपन्यास ए नाइस क्वाइट हॉलीडे से अंश पाठ करेंगे और उस पर चर्चा करेंगे। यह उत्तराखंड के एक काल्पनिक हिल स्टेशन भैरवगढ़ की पहाड़ियों के बीच हत्या की एक सोची-विचारी साज़िश की कहानी है। माया जोशी संग उनकी परिचर्चा होगी। नमिता गोखले और मालाश्री लाल द्वारा संपादित किताब इन सर्च ऑफ सीताः रीविज़िटिंग माइथोलॉजी भारतीय नारीत्व की पहचान कही जाने वाली सीता पर आधारित निबंधों, विचार-विमर्शों और टीकाओं का पहला संग्रह है। यह किताब सीता के नारीत्व और शक्ति से जुड़े विभिन्न पहलुओं की पड़ताल करती है। अंग्रेज़ी लेखन की दुनिया में जानी-मानी नमिता गोखले इस पुस्तक का परिचय देंगी।
इस साहित्योत्सव में पारंपरिक उत्तरांचली लोक संगीत और संस्कृति पर भी विशेष प्रस्तुतियां होंगी। बसंती बिष्ट गायन की एक प्रचलित लोकशैली ‘जागर’ की प्रस्तुति करेंगी। बसंती उत्तराखंड की इस लोक परंपरा की एक सुप्रसिद्ध कलाकार हैं। उत्सव में भाग लेने आए लेखकों और साहित्यकारों की किताबें भी प्रदर्शित की जाएंगी, श्रोता-दर्शक किताबें ख़रीद भी सकेंगे और अपने पसंदीदा लेखकों से उनके ऑटोग्रॉफ भी ले सकेंगे।
यादों से रची यात्राः एक बेहतरीन किताब
-अरुण माहेश्वरी
पूरन चंद जोशी की नयी किताब ‘यादों से रची यात्रा’ किसी उपन्यास की तरह एक सांस में पढ़ गया। सभ्यता के भविष्य को लेकर गहरे सात्विक आवेग से भरी यह एक बेहद विचारोत्तेजक किताब है। मनुष्यता का भविष्य समाजवाद में है, इसमें उन्हें कोई शक नहीं है। पूंजीवाद उन्हें कत्तई काम्य नहीं है। ‘समाजवाद या बर्बरता’ के सत्य को वे पूरे मन से स्वीकारते हैं। वे समाज में समता चाहते हैं और साथ ही मूलभूत मानवतावादी मूल्यों की भी प्राणपण से रक्षा करना चाहते हैं। समाजवाद और मानव–अधिकारों में कोई अन्तर्विरोध नहीं, बनिश्बत एक दूसरे के पूरक है, इसीलिये दोनों के एक साथ निर्वाह को ही स्वाभाविक भी मानते हैं। सभ्यता का रास्ता समाजवाद की ओर जाता है, इसमें उनका पूरा विश्वास है। ‘इतिहास का अंतिम पड़ाव’ होने के दावे के साथ अमेरिका की धरती से जो उदार जनतंत्र के झंडाबरदार निकलें, उनका तो दो कदम चलते ही दम फूलने लगा है। यह उदार जनतंत्र कुछ जरूरी प्रश्नों को उठाने के बावजूद पूंजीवाद के क्षितिज के बाहर सोचने में असमर्थ है और इसीलिये सभ्यता की मूलभूत समस्याओं का समाधान नहीं दे सकता, इसे वे भलीभांति समझते हैं।
त्रासदी यह है कि समाजवाद भी अपने प्रयोग की पहली भूमि पर विफल हो गया। रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक पार्टी) के नेतृत्व में वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के आधार पर रूस में जिस समाजवाद की स्थापना हुई, वह ‘अर्थनीतिशास्त्र’ और मानवतावाद की कई कसौटियों पर खरा न उतर पाने के कारण टिक नहीं पाया, नाना प्रकार की विकृतियों का शिकार हुआ। और, इसमें सबसे बड़ी परेशानी का सबब यह है कि सोवियत संघ में पनपने वाली विकृतियों को समय रहते पहचानने में बुद्धिजीवियों का एक खास, माक्र्सवाद की वैज्ञानिक विचारधारा से लैस कम्युनिस्ट तबका क्यों बुरी तरह चूक गया? माक्र्सवादी बुद्धिजीवियों की इस कमी का कारण क्या था और इससे उबरने का उपाय क्या हो सकता है, श्री जोशी की पुस्तक की बेचैनी का सबसे प्रमुख विषय यही है। अपनी इसी तलाश को वे ‘विकल्प की तलाश’ कहते हैं।
जोशीजी ने इस सिलसिले में खास तौर पर हिंदी के मार्क्सवादी लेखकों और बुद्धिजीवियों को, जिन्हें सोवियत जमाने में रूस जाने और वहां रहने तक के अवसर मिले, अनेक प्रश्नों से बींधा है और साथ ही जिन चंद लोगों ने अपनी अंतर्दृष्टि का परिचय देते हुए सोवियत समाज में पनप रही विद्रूपताओं को देखा, अपने परिचय के ऐसे कम्युनिस्ट और गैर–कम्युनिस्ट लोगों के अनुभवों का जीवंत चित्र खींचते हुए उनकी भरपूर सराहना भी की है।
तथापि, यह भी साफ जाहिर है कि समाजवाद पर आस्था के बावजूद श्री जोशी कम्युनिस्ट नहीं है। वे मूलत: एक मानवतावादी है। कम्युनिस्ट वर्ग संघर्ष को इतिहास की चालिका शक्ति मानते हैं। कम्युनिस्टों के लिये वर्ग संघर्ष इतिहास का एक अन्तर्निहित नियम होने के बावजूद सर्वहारा के वर्ग संघर्ष का अर्थ इस सत्य के आगे की चीज है। वह कोई ऐतिहासिक परिघटना अथवा इतिहास का ब्यौरा भर नहीं है। यह ऐसा वर्ग संघर्ष है जिसका लक्ष्य वर्ग संघर्ष का ही अंत और एक ऐसी समाज–व्यवस्था का उदय है जो किसी भी प्रकार के शोषण को नहीं जानती। वे सर्वहारा क्रांति से निर्मित उत्पीड़कों और उत्पीडि़तों से रहित समाज–व्यवस्था में ही मनुष्य की गरिमा देखते है। आर्थिक परनिर्भरता मानव गरिमा के विरुद्ध है और इसीलिये माक्र्स की शब्दावली में ‘आर्थिक ताकतों की अंधशक्ति’ को तोड़ कर वे ऐसी उच्चतर शक्ति को समाज का नियामक बनाना चाहते हैं जो मानव गरिमा के अनुरूप हो। जबकि मानवतावादी जोशीजी के लिये वर्ग संघर्ष नहीं, मनुष्य की मुक्ति और गरिमा का रास्ता सभ्यता द्वारा अर्जित कुछ सार्वदेशिक मानव मूल्यों के संचय का, भारत में गांधी और नेहरू का समन्वयवाद का रास्ता है।
समाजवाद की स्थापना के मामले में कम्युनिस्ट किसी ऐतिहासिक नियतिवाद पर विश्वास नहीं करते। वे यह मानते हैं कि समाजवाद सभ्यता के इतिहास की एक अनिवार्यता होने पर भी अपने आप अवतरित होने वाली सच्चाई नहीं है। इसे लाने के लिये मजदूर वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी क्रांति जरूरी है। कम्युनिस्ट पार्टी इसी मजदूर वर्ग के सबसे सचेत हिस्से, इसके हरावल दस्ते का प्रतिनिधित्व करती है, क्रांति के लिये जरूरी सम्यक रणनीति और कार्यनीति को निर्धारित करती है। इसीलिये पार्टी की अधीनता, उसका अनुशासन किसी भी कम्युनिस्ट की मजबूरी नहीं, उसका आत्म–चयन है।
कम्युनिस्ट पार्टी, उसका समूचा ढांचा, उसका अनुशासन और खास तौर पर ‘बुद्धिजीवियों’ द्वारा स्वीकार ली जाने वाली उसकी अधीनता – यही वे बिंदु है, जो जोशी जी की इस पुस्तक की सारी परेशानियों के मूल में है।
पाठकों को अपनी इन्हीं परेशानियों के घेरे में लेते हुए जोशी जी उन्हें अपने निजी अनुभवों और विचारों की एक लंबी ‘चित्ताकर्षक’ यात्रा पर ले चलते हैं। सोवियत संघ की यात्राओं के समृद्ध अनुभवों, सभ्यता के संकट के बरक्स समाजवादी विकल्प के पहले प्रयोग की भूमि के प्रति रवीन्द्रनाथ, बर्टेंड रसेल, जवाहरलाल नेहरू आदि की तरह के कई मनीषियों के आंतरिक आग्रह, विस्मय और संशय की रोशनी में सोवियत संघ के बारे में अपने जमाने में सामने आये ख्रुश्चेव–उद्घाटनों, बे्रजनेव काल के गतिरोध संबंधी तथ्यों का ब्यौरा देते हुए जोशी जी कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों पर अनेक सवालों की बौछार करते हैं कि आखिर किस गरज से उन्होंने समाजवाद के इस पहले प्रयोग के अंदर की कमजोरियों और विकृतियों को देख कर भी नहीं देखा; क्यों समाजवाद की विकृतियों की निर्मम आलोचना करने का अपना ‘बौद्धिक धर्म’ निभाने के बजाय उन विकृतियों के लिये ही लगभग बचकाने प्रकार के तर्कों को जुटाते रहे?
उनका निष्कर्ष यह है कि बुद्धिजीवियों की ऐसी दुर्दशा और किसी वजह से नहीं, कम्युनिस्ट पार्टी की अधीनता को स्वीकारने की वजह से हुई। धूर्जटि प्रसाद मुखर्जी के हवाले से कहते हैं : क्या बुद्धिजीवी के राजनीति में प्रवेश और हस्तक्षेप की यह जरूरी शर्त है कि वह किसी राजनैतिक पार्टी का सदस्य बने और उसका अनुशासन स्वीकार करे। ऐसा भी तो संभव है कि वह सदस्य न बने या उसके अनुशासन में न बंध कर भी उसके बुनियादी सिद्धांतों को ही नहीं उसके कार्यक्रम और नीतियों को स्वीकार करे।
अनुभव बताता है कि पार्टीबद्ध, अनुशासनबद्ध बुद्धिजीवी अंत में एक स्वतंत्र बुद्धिजीवी नहीं पार्टी का प्रवचनकार और व्याख्याता बन कर बुद्धिजीवी के रूप में समाप्त हो जाता है। कम्युनिस्ट पार्टी का संगठन और उसका अनुशसान तो और भी कठोर है, जो बुद्धिजीवी को स्वतंत्र चिंतन की दिशा में नहीं, कम्प्लायेंस और कन्फॉर्मिटी और अंत में ‘सबमिशन’ के रास्ते पर धकेलता है।
आज की तमाम परिस्थितियों में जोशी जी के इस कथन ने कितने ‘स्वतंत्रजनों’ को गदगद किया होगा, इसे आसानी से समझा जा सकता है। कोलकाता से निकलने वाली पत्रिका ‘वागर्थ’ ने तो अपने ताजा अंक के द्वितीय मुखपृष्ठ पर इस उद्धरण को किसी आप्तकथन की तरह प्रकाशित किया है।
इस बारे में जोशी जी से हमारा एक छोटा सा अनुरोध है कि वे सिर्फ यह बतायें कि एक शोषण–विहीन समाज की स्थापना के लिये कम्युनिस्ट पार्टी की जरूरत भी है या नहीं? इसी एक प्रश्न के जवाब से स्वत: बाकी सारे सवालों का जवाब मिल जायेगा। ध्यान देने की बात है कि अपनी इसी पुस्तक में उन्होंने ऐतिहासिक नियतिवाद की तरह के किसी भी विचार से खुद को सचेत रूप में अलग किया है।
जहां तक कम्युनिस्ट पार्टी के सांगठनिक ढांचे, समय–समय पर तय होने वाली उसकी कार्यनीतियों का सवाल है, वे किसी ईश्वरीय विधान से तय नहीं हुए हैं; यह एक लगातार विकासमान प्रक्रिया है; और इसीलिये बहस और विवादों से परे नहीं है।
और जहां तक इतिहास की गति को पकड़ने में बुद्धिजीवियों की असमर्थता का सवाल है, इसका ठेका अकेले कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों ने ही नहीं ले रखा है। बौद्धिक कर्म का पूरा इतिहास ऐसी तमाम कमजोरियों, भूलों और असंख्य मूर्खताओं से ही तो पटा हुआ है! इतिहास और वर्तमान, दोनों में ही किसे ग्रहण करे और किसे त्यागे, इसकी स्वतंत्रता सबके पास है और सभी अपनी–अपनी जरूरतों और प्राथमिकताओं (सही कहे तो अपने स्वार्थों) के अनुरूप यह काम करते रहते हैं। देखने की बात यह है कि किसका स्वार्थ किस बात से जुड़ा है?
इस संदर्भ में ‘पूंजी’ के पहले खंड की भूमिका में माक्र्स की यह बेहद सारगर्भित टिप्पणी देखने लायक है, जिसमें जर्मन अर्थशास्त्रियों की विडंबनां का चित्र खींचते हुए वे कहते हैं: जिस समय ये लोग राजनीतिक अर्थशास्त्र का वस्तुगत अध्ययन कर सकते थे, उस समय जर्मनी में आधुनिक आर्थिक परिस्थितियां वास्तव में मौजूद नहीं थीं। और जब ये परिस्थितियां वहां पैदा हुईं, तो हालत ऐसी थी कि पूंजीवादी क्षितिज की सीमाओं में रहते हुए उनकी वास्तविक ओर निष्पक्ष छानबीन करना असंभव होगया। जिस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र इस क्षितिज की सीमाओं के भीतर रहता है, अर्थात् जिस हद तक पूंजीवादी व्यवस्था को सामाजिक उत्पादन के विकास की एक अस्थायी ऐतिहासिक मंजिल नहीं, बल्कि उसका एकदम अंतिम रूप समझा जाता है, उस हद तक राजनीतिक अर्थशास्त्र केवल उसी समय तक विज्ञान बना रह सकता है, जब तक कि वर्ग–संघर्ष सुषुप्तावस्था में है या जब तक कि वह केवल इक्की–दुक्की और अलग–अलग परिघटनाओं के रूप में प्रकट होता है।
फ्रांस और इंगलैंड में बुर्जुआ वर्ग ने राजनीतिक सत्ता पर अधिकार कर लिया था। उस समय से ही वर्ग–संघर्ष व्यावहारिक तथा सैद्धांतिक दोनों दृष्टियों से अधिकाधिक बेलाग और डरावना रूप धारण करता गया। इसने वैज्ञानिक बुर्जुआ अर्थशास्त्र की मौत की घंटी बजा दी। उस वक्त से ही सवाल यह नहीं रह गया कि अमुक प्रमेय सही है या नहीं, बल्कि सवाल यह हो गया कि वह पूंजी के लिए हितकर है या हानिकारक, उपयोगी है या अनुपयोगी, राजनीतिक दृष्टि से खतरनाक है या नहीं। निष्पक्ष छानबीन करने वालों की जगह किराये के पहलवानों ने ले ली; सच्ची वैज्ञानिक खोज का स्थान दुर्भावना तथा पक्षमंडन के कुत्सित इरादे ने ग्रहण कर लिया।
…जर्मनी में उत्पादन की पूंजीवादी प्रणाली उस वक्त सामने आयी, जब उसका विरोधी स्वरूप इंगलैंड और फ्रांस में वर्गों के भीषण संघर्ष में अपने को पहले ही प्रकट कर चुका था। इसके अलावा इसी बीच जर्मन सर्वहारा वर्ग ने जर्मन बुर्जुआ वर्ग की अपेक्षा कहीं अधिक स्पष्ट वर्ग–चेतना प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार, जब आखिर वह घड़ी आयी कि जर्मनी में राजनीतिक अर्थशास्त्र का बुर्जुआ विज्ञान संभव प्रतीत हुआ, ठीक उसी समय वह वास्तव में फिर असंभव हो गया।
अज्ञेय की जन्मशती : कवि की कविता, कवि की आवाज़
दिल्ली। अज्ञेय को उनकी आवाज़ में सुनना एक आह्लादकारी अनुभव था। सात मार्च, रविवार की शाम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के एनेक्सी सभागार में उनकी कविताओं को सुनने के लिए लगभग सौ बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, संगीतकार, नाट्यकर्मी और पत्रकार जुटे थे। अज्ञेय के श्वेत-श्याम चित्रों एक एक करके पर्दे पर आ रहे थे और पार्श्व से उनकी विनम्र आवाज़ हॉल के अंधेरे में फैल रही थी। उनकी आवाज़ की रेकार्डिंग उपलब्ध हुईं रमेश मेहता और अज्ञेय के निकट रहे ओम थानवी के सौजन्य से। कविताओं का चुनाव और संयोजन ओम थानवी ने किया; चित्र उनके निजी संग्रह से थे। अज्ञेय की जन्मशती का यह पहला आयोजन था। इस तरह का आयोजन साल भर तक चलेगा।
इस अवसर पर दर्शकों को बांटे गये एक फोल्डर में अशोक वाजपेयी ने लिखा है, ‘आप जानते ही हैं कि 2011 में हमारे तीन मूर्धन्यों शमशेर बहादुर सिंह, अज्ञेय और नागार्जुन की जन्म शताब्दियां क्रमश: 13 जनवरी, 7 मार्च और ज्येष्ठ पूर्णिमा को होने जा रही है। यह अवसर होगा, जब हम इन कृतिकारों के अवदान और उनके विभिन्न पक्षों का पुनराकलन करें और हिंदी लेखक समाज की ओर से उन्हें प्रणति दें।’
(मोहल्ला लाइव डाट काम की टिप्पणी)
“मीडिया महिलाओं के मसले मर्द के चश्मे से देखता है”
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर संगोष्ठी आयोजित
आज एक महिला पत्रकार को पूरी दुनिया के बीच काम करना पड़ता है। खुले आकाश के नीचे और लोगों की भीड़ के बीच काम करना पड़ता है। उनकी सुरक्षा के कोई उपाय नहीं हैं। दिखावे के लिए ‘विशाखा गाइडलाइंस’ अगर है भी तो वह केवल ऑफिसों की चहारदीवारी के भीतर की बात करती है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस की सौवीं वर्षगांठ के मौके पर शनिवार को दिल्ली स्थित केरल भवन में ‘मीडिया में महिलाओं की छवि-प्रस्तुति और स्थिति’ के मुद्दे पर आयोजित सेमिनार में ये बातें सामाजिक कार्यकर्ता और वकील नंदिता राव ने कहीं। उन्होंने कहा कि आजादी के छह दशक बीत जाने के बावजूद श्रम की जगहों पर महिलाओं को दोहरे शोषण का शिकार होना पड़ता है। राव का कहना था कि ट्रेड यूनियनों के रूप में महिलाओं के हकों की आवाज उठाने वाले जो संगठन थे, उन्हें भी साजिशन खत्म कर दिया गया। आज हालत यह है कि पितृसत्ता के ढांचे में ढले बिना मीडिया में भी महिलाओं को उनका हक नहीं मिल पाता। एक तरह से यह महिला शक्ति की सबसे बड़ी हार है।
संगोष्ठी को संबोधित करते हुए अंग्रेजी के पूर्व प्राध्यापक और वरिष्ठ स्तंभकार बद्री रैना ने कहा कि आधुनिक मीडिया का सामाजिक संदेश सौ साल पीछे का है। उन्होंने कहा आज अगर प्रमुख टीवी चैनल वेलेंटाइन डे मौके पर दीवाने होकर इससे संबंधित खबरें दिखाते हैं, तो यह उनकी आधुनिक मानसिकता नहीं, बाजार से माल उगाहने का एक जरिया है। बद्री रैना ने मीडिया की राजनीति की ओर इशारा करते हुए कहा कि आज अगर अपने बुनियादी हकों के लिए कोई संगठन आंदोलन करता है, तो मीडिया उसे आम जनजीवन में एक बाधा के रूप में पेश करता है। लेकिन दूसरी ओर वह कांवरियों की भीड़ को वह हिंदू संस्कृति के तौर पर पेश करता है। उन्होंने टीवी कार्यक्रमों पर सवाल उठाते हुए कहा कि चैनलों पर पूजा-पाठ, संयुक्त परिवार, सास-बहू की कहानियों के नाम पर महिलाओं की पारंपरिक छवि को महिमामंडित किया जा रहा है और इस तरह मीडिया महिलाओं के मुद्दे को सौ साल पीछे धकेल रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ता और दलित लेखक संघ की महासचिव अनिता भारती ने मीडिया में छिपे तौर पर काम कर रहे जातीय और लैंगिक पूर्वाग्रहों पर सवाल उठाते हुए कहा कि मीडिया जगत के समूचे परिदृश्य को देख कर लगता है कि ब्राह्मणवाद और बाजार ने आपस में साठ-गांठ कर लिया है। उन्होंने कहा कि क्या कारण है कि खैरलांजी में उतनी बड़ी घटना हो जाती है और मीडिया को यह कोई महत्त्वपूर्ण खबर नहीं लगती। उन्होंने खबरों की प्रस्तुति के मामले में दलित और पिछड़े तबकों के प्रति मीडिया के दुराग्रहों का हवाला देते हुए कहा कि ऐसा क्यों होता है मायावती या राबड़ी देवी के चाय बनाने के तरीके मीडिया के लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण होते हैं, बनिस्बत इसके कि इन नेताओं के संघर्षों के बारे में भी कुछ बता दिया जाए। अनिता भारती ने दलित मीडिया के दोहरे चरित्र पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि यह अपने ऊपर दूसरे अत्याचारों का तो ब्योरा देता है, लेकिन अपने घर की औरतों के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।
लेखिका और इग्नू में प्राध्यापक सविता सिंह ने समूचे स्त्रीवादी संघर्षों को आत्मालोचन की प्रक्रिया से गुजरने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि हमारी सबसे बुनियादी समस्या पितृसत्ता है और इससे मुक्ति पाने के लिए हमें अपने आंख-कान खुले रखने चाहिए। दूसरे देशों में जहां सरकारें अपनी पहल से स्त्रियों की भागीदारी तय करना अपनी जवाबदेही मानती है, वहीं हमारे देश में महिलाओं के लिए आरक्षण जैसे हक भी अधर में लटके होते हैं।
पाक्षिक पत्रिका ‘ग्रासरूट’ की संपादक रही अन्नू आनंद ने मीडिया में महिलाओं के प्रतिनिधित्व से संबंधित एक सर्वेक्षण के आधार पर महिलाओं के मुद्दों के उठने या न उठने के कारणों पर प्रकाश डाला और कहा कि जब तक इस क्षेत्र में ईमानदारी नहीं बरती जाएगी, प्रतिनिधित्व और उसके मुताबिक महिलाओं के मुद्दों को मीडिया में जगह मिलने में दिक्कतें आएंगी ही।
सामाजिक कार्यकर्ता और लेखिका शीबा असलम फहमी ने मौजूदा आधुनिकता को कठघरे में खड़ा करते हुए कहा कि आधुनिकता क्या केवल वस्त्रों में दिखनी चाहिए, या फिर वह हमारे भीतर विचारों के स्तर पर उतरने का पर्याय होना चाहिए। उन्होंने कहा कि महिला दिवस का सौवां साल हमारे लिए महत्त्वपूर्ण होना चाहिए, लेकिन अगर दलित समाज की महिलाएं पच्चीस दिसंबर को अपना महिला दिवस अलग से मनाती हैं, तो क्या हमें उन तक नहीं पहुंचना चाहिए। बहुत आधुनिक हो चुके हमारे मीडिया में खासतौर पर अल्पसंख्यकों के मुद्दे को एक फैशन की तरह लिया जाता है।
उर्दू एडिटर्स गिल्ड के अध्यक्ष असगर अंसारी ने कहा कि मीडिया महिलाओं की समस्याओं को मर्द के चश्मे से देखने की आदी है। अफगानिस्तान के मुद्दे पर वह मौन रहता है, मजहबी मामलों को उठाने से परहेज करता है। उन्होंने साफ लहजे में कहा कि उर्दू मीडिया दरअसल बेहतर तालीम और व्यावसायिक अवधारणा की कमी से जूझ रहा है।
पत्रकार और लेखिका मृणाल वल्लरी ने कहा कि दरअसल, मीडिया पर निशाना साधते समय हमें यह देखना चाहिए कि हम किस माइंडसेट से लैस समाज में रह रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम जिस विचार, संस्कृति और अवधारणाओं-आग्रहों की जमीन पर खड़े होते हैं, हमारे काम में वही उभर कर सामने आता है। मीडिया में अगर स्त्रियों की छवि ऐसी परोसी जा रही है, जिससे उनकी गरिमा का नाश होता है, तो इससे बाजार और सामाजिक संस्कारों का कुछ नहीं बिगड़ता। बिगड़ता है सिर्फ स्त्री की अस्मिता का। उन्होंने निजी व्यवहारों तक में स्त्री और पुरुष के समान व्यवहारों के लिए दोहरे मानदंड के लिए पितृसत्तात्मक बुनियाद पर खड़ी सामाजिक संस्कृति को जिम्मेदार ठहराया, जो मीडिया जैसे प्रसार माध्यमों में विस्तार पाता है।
संगोष्ठी में दिल्ली यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट के अध्यक्ष एसके पांडेय, सुजाता मधोक और अंजलि देशपांडे आदि ने भी अपने विचार रखे और नए सिरे से मीडिया में संघर्ष करने की बात की।
रोड टू संगम : एक अच्छी फिल्म की अकाल मौत
मधुकर पांडेय
अभी कुछ दिनों पहले “रोड टू संगम” नामक फिल्म आयी थी, आजकल वह रिलायंस के डीटीएच में दिखायी जा रही है।
मैंने यह फिल्म कुछ ही हफ्तों पहले मुंबई के एक सिनेमाघर में देखी। इस फिल्म को देखने के दो मुख्य कारण थे, जिन्होंने मुझे इस मंहगाई के दौर में भी नजदीक के एक मल्टीप्लेक्स में देखने को विवश किया। एक इसलिए कि यह फिल्म मेरे प्रिय शहर इलाहाबाद में ही फिल्मायी गयी थी और इसके पोस्टर में वहां यमुना नदी के ऊपर बने नये पुल का चित्र था, जो बहुचर्चित एवं बहुगर्वित “बांद्रा-वर्ली सी लिंक” के बरसों पहले उसी तकनीक से वहां बना था। दूसरा कारण था कि इस फिल्म के पोस्टर पर बहुत सारे पुरस्कारों की सूचना भी छपी थी। मुझे इस फिल्म के बारे में ज़रा भी जानकारी नहीं थी कि यह फिल्म किस विषय पर आधारित है लेकिन ओमपुरी एवं परेश रावल को देख कर समझा कि कुछ अच्छा ही होगा।
फिल्म देखने के बाद मैं धन्यवाद देना चाहता हूं इस फिल्म के लेखक एवं निर्देशक “अमित राय” को, जिन्होंने इस असंवेदनशील और पूरी तरह व्यावसायिक मानसिकता वाले फिल्म उद्योग में अपनी पहली फिल्म के लिए इस सशक्त एवं बहुप्रतीक्षित विषय को चुना एवं धन्यवाद उस निर्माता को भी देना चाहूंगा जिन्होंने बिना किसी भी लाभ-हानि की परवाह करते हुए इस तरह की असाधारण फिल्म बनाने का जोखिम लिया।
विषय बहुत ही संवेदनशील, आज के मुस्लिम समाज के अपने धर्म एवं राष्ट्र के अंतर्द्वंद्व एवं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से संबंधित है। परेश रावल ने जिस तरह से एक मुस्लिम मैकेनिक की भूमिका में राष्ट्र एवं अपने मुस्लिम भाई बंधुओं के बीच फंसे एवं साफ-सपाट बात कहने वाले व्यक्ति की भूमिका की है, वह अविस्मरणीय है। साधारणत: किसी भी फिल्म में मुस्लिम समाज के उन संवेदनशील आंतरिक मामलों, खास तौर से जब वह कौम से एवं मस्जिद से संबंधित हों, को कभी नहीं दिखलाया गया है। लेकिन इस फिल्म में लेखक निर्देशक अमित राय ने जिस सावधानी से, आत्मा की गहराइयों तक इस अंतर्द्वंद्व को दिखाया है, वह किसी भी फिल्मकार के लिए एक बड़ी चुनौती से कम नहीं था और इस चुनौती को अमित ने बहुत ही धीरता, गहराई एवं संतुलन से निभाया है। मस्जिद के अंदर की बातचीतों, रणनीतियों एवं धर्म के नाम पर साधारण मुस्लिमों की भावनाओं से होने वाले खेल को भी पहली बार बेबाकी से दर्शाया गया।
पूरी फिल्म में यह कहीं भी एहसास नहीं होता है कि किसी भी धर्म के आंतरिक एवं नाज़ुक मसलों हम कुठाराघात कर रहे हैं, उस भी पर महात्मा गांधी एवं राष्ट्र को इसमें जोड़कर।
फिल्म देखते हुए ऐसा लगता है कि हम स्वयं (दर्शक) ही उन परिस्थितियों में, अंतर्द्वंद्व में फंसा हुआ एक सामान्य मुस्लिम हैं जो धर्म के ठेकेदारों एवं राष्ट्र के बीच छटपटा रहा है। संवाद बेहद सीधे, स्पष्ट एवं तीखे भी हैं, जो किसी भी व्यक्ति के अंतरतम को झकझोर देते हैं। संवाद, आज के मुस्लिम समाज के अंतर्द्वंद्व एवं उनके कारणों तथा निवारण पर एक बेहद स्वीकार्य वातावरण बनाते हैं।
फिल्म का तकनीकी पक्ष बेहद अच्छा है। गीत फिल्म की गरिमा के अनुसार तथा स्तरीय है। फिल्म में एक और अहम किरदार है फिल्म की सच्ची लोकेशन, जो कि इलाहाबाद के उन मोहल्लों की है, जहां मुस्लिम समुदाय बहुतायत में न केवल रहते हैं बल्कि वहां अपना व्यवसाय भी करते हैं। लोकेशन ने फिल्म के विषय एवं अनुभूति को बेहद सजीव बनाया है। इसका भी श्रेय निर्देशक एवं निर्माता को जाता है कि उन्होंने फिल्म को सच्चाई के समीप लाने में किसी भी प्रकार का परहेज नहीं किया।
अब हम बात करते हैं इस फिल्म के प्रति हुए गंभीर दुर्व्यवहार की। मेरे आकलन के अनुसार इस फिल्म को सारे देश में मनोरंजन कर से मुक्त कर देना चाहिए था। लेकिन न तो उत्तर प्रदेश में ऐसा हुआ और न ही महात्मा गांधी को अपनी व्यक्तिगत विरासत मानने एवं मुस्लिम समुदाय के हितचिंतन का दम भरने वाली कांग्रेस ने उसके द्वारा शासित किसी भी राज्य में इसे मनोरंजन कर मुक्ति की सुविधा प्रदान की।
बेसिरपैर एवं वाहियात फिल्मों के दौर में इस फिल्म का विषय सोचना तथा इसका बनना एक बहुत बड़ी सुखद घटना है। अफ़सोस है कि लोग विदेशों में अपने को “खान” एवं अमेरिकी राष्ट्र भक्त नागरिक साबित करने वाली फिल्मों पर 80-90 करोड़ खर्च कर देते हैं लेकिन अपने ही देश में इस संवेदनशील फिल्म का वो शायद नाम भी नहीं जानते होंगे।
आश्चर्य है कि तमाम मुद्दों पर काम करने वाले एनजीओ ने भी इस फिल्म के लिए कोई अभियान किया। इससे भी बड़ी बात यह है कि हमारे फिल्म के बड़े-बड़े तीरंदाजों ने भी इस फिल्म को देखने की कोई भी सार्वजनिक अपील जनता से नहीं की, हालांकि यह बाध्यता नहीं थी परन्तु अपेक्षित अवश्य था और वह भी स्वयं से आगे बढ़ कर। फ़िल्मी सितारे एवं सितारे निर्माता निर्देशक, अपने निजी प्रचारक सलाहकारों की सलाह पर अपना जन्मदिन विकलांगों, कैंसर पीड़ितों एवं ऐसी ही अन्य जगहों पर उपस्थित हो कर अपनी छवि बनाने के लिए जो एक तमाशा करते हैं जो कि ज्यादातर अविश्वसनीय ही लगता है, यदि वे इस फिल्म को देखने की अपील करते, तो यह बहुत बड़ा योगदान होता एवं उनकी अपने ही सह व्यवसायियों के प्रति उनकी सदभावनाओं को दर्शाता और एक सशक्त, सार्थक फिल्म की असामयिक, अनावश्यक और अकाल दुर्गति टल सकती थी।
यह बात सभी पर लागू होती है। चाहे वह खान हो या पाण्डेय या चोपड़ा या ठाकरे।
और अंत में यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि यह लेख इस फिल्म की कोई व्यावसायिक एवं अविश्वसनीय समीक्षा नहीं है बल्कि एक संवेदनशील नागरिक एवं फिल्मकार के हृदय से निकली संवेदना है और इस फिल्म के प्रति मेरी आत्मा से निकली एक अनुभूति है।
(मधुकर पांडेय। एक संवेदनशील लेखक। फिल्मकार। सादा जीवन उच्च विचार। आध्यात्मिक रुझान। अघोर मत के व्यावहारिक एवं मानवीय पक्ष के पथ का एक पथिक। औघड़ वाणी ब्लॉग के मॉडरेटर। उनसे madhukarpanday@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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‘द हर्ट लॉकर’ जिंदाबाद, छह ऑस्कर झटके
कैथरीन बिग्लो ने ऑस्कर में सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार जीतकर इतिहास रच दिया है। उन्हें फ़िल्म द हर्ट लॉकर के लिए ये पुरस्कार दिया गया है।
82वें ऑस्कर समारोह में द हर्ट लॉकर ने कुल छह पुरस्कार जीते जबकि ऑस्कर की बड़ी दावेदार माने जाने वाली अवतार की झोली में तीन ऑस्कर गए।
ऑस्कर पुरस्कारों के इतिहास में अभी तक सिर्फ़ चार महिलाओं को सर्वश्रेष्ठ निर्देशक श्रेणी में नामांकन मिला था लेकिन पहली बार ऑस्कर जीतने का गौरव मिला है कैथरीन बिग्लो को।
हॉलीवुड के कोडक थिएटर में हुए समारोह में सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार जेफ़ ब्रिजिज़ के नाम रहा है. उन्होंने ये अवॉर्ड फ़िल्म क्रेज़ी हार्ट के लिए जीता. वहीं सेंड्रा बुलोक सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री बनीं ( फ़िल्म द ब्लाइंड साइड)।
सेंड्रा को एक दिन पहले ही सबसे बुरी अभिनेत्री के लिए रैज़ी पुरस्कार दिया गया था।
अवतार को तीन पुरस्कार
वहीं सर्वश्रेष्ठ सह अभिनेता का पुरस्कार क्रिस्टॉफ़ वाल्ट्ज़ को फ़िल्म इनग्लोरियस बासटर्ड्स के लिए दिया गया है. जबकि सह अभिनेत्री वर्ग में पुरस्कार मोनीक ने नाम रहा।
द हर्ट लॉकर और अवतार दोनों को नौ-नौ नामांकन मिले थे।
द हर्ट लॉकर ने सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म, सर्वश्रेष्ठ ऑरिजनल स्क्रीनप्ले, साउंड मिक्सिंग, साउंड एडिटिंग और फ़िल्म संपादन का अवॉर्ड मिला।
अवतार की झोली में सर्वश्रेष्ठ कला निर्देशन, सिनेमेटोग्राफ़ी और विज़ुयल इफ़ेक्ट का ऑस्कर गया।
विदेशी भाषा की श्रेणी में सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का अवॉर्ड अर्जेंटीना की द सिक्रेट इन देयर आइज़ को दिया गया।
वहीं बेस्ट एनिमेटिड फ़िल्म की श्रेणी में अप विजयी रही।
सौजन्य : बीबीसी हिंदी डॉट कॉम
शोमा और मोनालिसा को 2009 का चमेली देवी पुरस्कार
2009 का चमेली देवी जैन पुरस्कार तहलका की कार्यकारी संपादक शोमा चौधुरी और दीमापुर से निकलने वाली पत्रिका नागालैंड पेज की संपादक मोनालिसा चांगकीजा को देने का एलान किया गया है। ये दोनों अंग्रेजी पत्रकार साहसिक पत्रकारिता की एक मिसाल हैं। इसकी घोषणा मीडिया फाउंडेनशन ने की। पुरस्कार की जूरी में स्तंभकार और लेखिका मधु जैन, पूर्व सूचना और प्रसारण सचिव भास्कर घोष और नेहरु मेमोरियल म्यूजियम और लाइब्रेरी के सीनियर फेलो प्रो दीपांकर गुप्ता थे। पुरस्कार समारोह का आयोजन 17 मार्च को किया जाएगा। पुरस्कार समारोह में एक पत्रकारिता पर एक पैनल डिस्कशन होगा, जिसमें आउटलुक के संपादक विनोद मेहता, एनडीटीवी इंडिया के संपादक (विशेष रिपोर्ट) पंकज पचौरी और दिलीप चेरियन होंगे। इस डिस्कशन का संचालन पत्रकार प्रांजय गुहा ठाकुरता करेंगे।
विकासमूलक संचार की तलाश
- जगदीश्वर चतुर्वेदी
विकासमूलक सम्प्रेषण का लक्ष्य है शोषण से मुक्ति दिलाना। व्यक्तिगत और सामुदायिक सशक्तिकरण। इस अर्थ में विकासमूलक सम्प्रेषण सिर्फ संदेश देने का काम नहीं करता बल्कि ‘मुक्तिकामी सम्प्रेषण’ है। आम लोगों में यह भाव पैदा करता है कि वे स्वयं भविष्य निर्माता बनें। इस प्रक्रिया में सभी शामिल हों। न कि सिर्फ लक्ष्यीभूत ऑडिएंस। इस परिप्रेक्ष्य की समझ यह है कि जब लोग शोषण और शक्ति को जान जाते हैं तो अपने आप समाधान खोज लेते हैं।
मुक्तिकामी विकासमूलक सम्प्रेषण की प्रकृति सब जगह एक जैसी नहीं होती। बल्कि इसमें अंतर भी हो सकता है। विकासमूलक सम्प्रेषण में मास कम्युनिकेशन और सूचना तकनीकी रूपों का कनवर्जन या समावेशन होता रहता है। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि विकासमूलक सम्प्रेषण रणनीति में धार्मिक और आध्यात्मिक रणनीति मददगार साबित हो सकती है। विकासमूलक सम्प्रेषण में सभी किस्म के सवाल शामिल किए जा सकते हैं।
के.बालिस ने ”डिसपोजेविल पीपुल’ न्यू स्लेवरी इन दि ग्लोबल इकोनॉमी” में विभिन्न अनुसंधान निष्कर्षों को आधार बनाकर लिखा है कि सारी दुनिया में अभी दो करोड़ सत्तर लाख लोग गुलामी में जी रहे हैं। इनमें बच्चे और औरतें शामिल हैं जिन्हें हिंसा या हिंसा की धमकी के आधार पर गुलाम बनाया हुआ है। इनमें ऐसे लोग भी हैं जो वस्तु पाने के दले गुलामी में जी रहे हैं।
बालिस ने अपनी पुस्तक में एक अध्याय में बताया है कि थाईलैण्ड में जबरिया जिस्म की तिजारत हो रही है। पुस्तक में इसका शीर्षक ही रखा है ‘वन डॉटर इक्वल्स वन टेलीविजन। ‘यदि 21वीं शताब्दी में दुनिया का अभी भी यह हाल है तो हमें गंभीरता से भारत के संदर्भ में विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी परिप्रेक्ष्य का निर्माण करना होगा। हमें यह तय करना होगा कि भारत के लिए विकासमूलक सम्प्रेषण धार्मिक मुक्ति का नजरिया प्रासंगिक है या मुक्ति का मार्क्सवादी नजरिया प्रासंगिक है।
विकासमूलक सम्प्रेषण के मुक्तिकामी धार्मिक नजरिए की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इसमें सामाजिक इकाईयों को धार्मिक इकाईयों के रूप में देखा जाता है। वैषम्य को समाधानरहित मान लिया गया है। विकास की सफलता का श्रेय ईश्वर को दिया जाता है। विकास की सफलता के लिए ईश्वरोपासना को महत्वपूर्ण करार दिया जाता है। भारत में विकास के लिए धर्म का इस तरह का इस्तेमाल कारपोरेट घरानों से लेकर तमाम धार्मिक स्वैच्छिक संगठनों की आम रणनीति का हिस्सा है। वे इसे मनोबल बढ़ानेवाली रणनीति के रूप में व्याख्यायित करते हैं। साथ ही विकास के केन्द्र में मनुष्य की केन्द्रीय भूमिका की बजाए ईश्वर या ईश्वरोपासना को प्रतिष्ठित करते हैं।
नए कारपोरेट जगत के साथ पैदा हुए कारपोरेट धर्म की उत्पत्ति का यही रहस्य है। यह रणनीति अंतत: साम्प्रदायिक सामाजिक विभाजन और तनावों को जन्म देती है। यहां व्यक्ति का महत्व है। वह एक अनैतिहासिक कोटि के रूप में सामने आता है। इस मॉडल पर आधारित संचार संकीर्णताओं और अविवेकपूर्ण मानसिकता में इजाफा करता है। ग्राम्शी ने इटली में प्रेस में इसी तरह की प्रवृत्तियों का जिक्र करते हुए लिखा कि ‘लोकप्रिय प्रेस पाठक की संस्कृति को नियंत्रित करने के लिए भूत-प्रेत की कहानियों,अंधविश्वास आदि पर केन्द्रित कथाएं छापते रहते हैं;परिणामत: ये पत्र मौजूदा राष्ट्र का गैर-प्रान्तीकरण करते हैं। इसे रोकने के लिए विज्ञान की खबरें बेहद जरूरी हैं। ”
विकासमूलक मीडिया का नजरिया मनोरंजन के व्यवसायीकरण अथवा मनोरंजन प्राप्ति के अधिकार को लेकर उतना चिन्तित नहीं है। क्योंकि यह दोनों तत्व- व्यवसाय और मनोरंजन- पहले के समाजों में भी थे। विकासमूलक संचार मॉडल की चिन्ता है उच्च कला का वर्तमान आम जनता से अलगाव और दुराव कैसे दूर हो। लम्बे समय से पूंजीवादी समाज में उच्च कलाओं की मौजूदगी सिर्फ कलाकारों के लिए रह गई है। आज हममीडिया में जो कला रूप देख रहे हैं उनमें जनता के प्रति सम्मान का दिखावटी भाव है।
मजेदार बात यह है कि हमारे समाज में दो तरह के आलोचक हैं पहली कोटि ऐसे आलोचकों की है जो मीडिया की आदर्श भूमिका की बातें करते हैं। समाज में घटित प्रत्येक अच्छी-बुरी चीज के लिए मीडिया को कोसते रहते हैं। असल में ये ऐसे लोग हैं जो सामाजिक अलगाव के शिकार हैं। वे ऐसी भाषा और तर्क का इस्तेमाल करते हैं जो किसी के गले नहीं उतरता। इन्हें आदर्शवादी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। दूसरी ओर ऐसे भी आलोचक हैं जो मीडिया को गरियाते हुए कलाओं के अतीत में जीते हैं। इन्हें अतीतजीवी माध्यम विशेषज्ञ कह सकते हैं। ये दोनों ही नजरिए मीडिया के वस्तुगत अध्ययन,समझ और अंतर्वस्तु के मूल्यांकन से वंचित हैं। इन दोनों ही रूझानों से बचा जाना चाहिए।
आमतौर पर मीडिया के मालिक या उत्पादक के खिलाफ यह आरोप लगाया जाता है कि वे तो वही दिखाते हैं जो जनता मांग करती है। साथ ही यह भी आरोप लगाया जाता है कि मीडिया नई तरह की चीजों के लिए नकली मांग पैदा कर रहा है। अर्थात उपभोग में वृद्धि के लिए मांग पैदा कर रहा है। प्रसिध्द कला सिद्धान्तकार गेओर्ग जीम्मल ने लिखा है ‘ऐसा नहीं है कि चीजें पहले पैदा हों फिर फैशन में आएं; चीजें पैदा ही फैशन चालू करने के लिए की जाती हैं। ‘
अर्नाल्ड हाउजर ने लिखा कि ”जिन तथ्यों पर ध्यान देना है,जिन मुद्दों पर निर्णय लेना है,जन समाधानों को स्वीकार करना है -ये सब जनता के सामने इस रूप में परोसे जाते हैं कि वह इन्हें पूरी तरह निगल ले। सामान्य तौर पर उसके समक्ष चुनाव का कोई अवसर नहीं है और वह इससे संतुष्ट भी है। ”
”भीड़ संस्कृति के उत्पाद केवल यही नहीं करते कि लोगों की रूचि बरबाद कर दें,उन्हें स्वयं के बारे में सोचने न दें,समरूपता की शिक्षा दें;वे बहुसंख्यक लोगों की आंखों के सामने पहलीबार जीवन के उन क्षेत्रों को भी खोल देते हैं जिनके सम्पर्क में वे पहले कभी नहीं आए थे। अकसर उनके पूर्वाग्रहों का अनुमोदन होता है। फिर भी आलोचना और विरोध का एक रास्ता तो खुलता ही है। जब कभी कला के उपभोक्ताओं का घेरा विस्तृत हुआ है,उसका तात्कालिक परिणाम कला उत्पादन के स्तर में गिरावट ही निकला है। ”
आम तौर पर मीडिया के बारे में जिस कॉमनसेंस का हमारा हिन्दी बुद्धिजीवीवर्ग शिकार है और मीडिया के मूल्यांकन के नाम पर गैर-मीडिया सैध्दान्तिकी के रास्ते पर चल रहा है वह विकास का सही लक्षण नहीं कहा जा सकता। मीडिया मूल्यांकन के नाम पर साहित्यिक पत्रिकाओं में जिस तरह का दृष्टिकोण परोसा जा रहा है वह मीडिया समीक्षा का घटिया नमूना है। ये लोग मीडिया को षडयंत्रकारी और शैतान के रूप में चित्रित कर रहे हैं। ऐसी आलोचना का मीडिया की सही समझ से कोई लेना-देना नहीं है।
(लेखक प्रख्यात संचार चिंतक एवं कोलकाता विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर हैं)
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