Sunday, December 25, 2011

तिब्बत के प्रधानमंत्री करेंगें अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन

27,28 दिसंबर को भोपाल में अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में जुटेंगें जनसंचार क्षेत्र के दिग्गज
भोपाल,25 दिसंबर,2011। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा ‘मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब’ विषय पर आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह के मुख्यवक्ता तिब्बत के प्रधानमंत्री लाबसेंग सेंग्ये होंगें। यह आयोजन 27 एवं 28 दिसंबर, 2011 को शाहपुरा स्थित प्रशासन अकादमी के सभागार में सम्पन्न होगा। 28 दिसंबर को अपराह्न 2 बजे आयोजित समापन समारोह के मुख्यअतिथि मध्य प्रदेश के वित्तमंत्री राधव जी होंगें। इस सत्र में खासतौर पर परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश के स्वामी चिदानंद सरस्वती महाराज का व्याख्यान होगा। देश में पहली बार इस महत्वपूर्ण विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो रहा है। इस संगोष्ठी में देश और दुनिया के जाने माने दार्शनिक, समाजशास्त्री, मीडिया विशेषज्ञ, पत्रकार, मीडिया प्राध्यापक एवं मीडिया शोधार्थी हिस्सा ले रहे हैं। आयोजन की तैयारियां लगभग अंतिम चरण में हैं।
विश्वविद्यालय के कुलसचिव डा. चंदर सोनाने ने बताया कि संगोष्ठी का शुभारंभ सत्र 27 दिसंबर को पूर्वान्ह 11 बजे प्रारंभ होगा, जिसमें प्रख्यात पत्रकार एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी मुख्यवक्ता होंगें। इस सत्र के मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव तथा अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। विशिष्ट अतिथि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोशिएसन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग एवं हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति डा. ए.डी.एन. वाजपेयी होंगें।
27 दिसंबर दोपहर दो बजे विशेष सत्र में काठमांडू विश्वविद्यालय के प्रो. निर्मलमणि अधिकारी, प्रख्यात समाजवैज्ञानिक डा. बी.आर.पाटिल, प्रो. राममोहन पाठक, वरिष्ठ पत्रकार प्रो. एनके त्रिखा ‘संचार एवं पत्रकारिता की भारतीय परिकल्पनाएं’ विषय पर अपने विचार रखेंगें। सत्र के मुख्यअतिथि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोसिएशन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग होंगें।
संगोष्ठी के दूसरे दिन 28 दिसंबर को आयोजित विशेष सत्र में प्रातः 9.30 बजे साहित्यकार नरेंद्र कोहली एक खास व्याख्यान देंगें। जिसका विषय है “एकात्म मानवदर्शन के संदर्भ में पत्रकारिता के कार्यों व भूमिका का पुर्नवलोकन” इस विशेष सत्र की अध्यक्षता शिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा करेंगें तथा मुख्यअतिथि कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सच्चिदानंद जोशी होंगे।
संगोष्ठी के डायरेक्टर प्रो. देवेश किशोर के अनुसार इस अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में लगभग 100 से अधिक शोधपत्र तथा 200 से अधिक शोध संक्षेप आ चुके हैं। इस अवसर पर एक स्मरिका का प्रकाशन भी किया जा रहा है जिसमें प्राप्त शोध संक्षेपों का प्रकाशन किया जाएगा। साथ ही प्राप्त शोध पत्रों को विश्वविद्यालय के एक अन्य प्रकाशन में पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा।

Tuesday, December 20, 2011

International Conference on “Diversity and Plurality in Media: Reflections of Society” at MCU, Bhopal

Bhopal, 20 December, 2011. Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication is organizing an international conference on “Diversity and Plurality in Media: Reflections of Society” on 27 and 28 December, 2011. The two day conference will be held in the seminar hall of the Administrative Academy at Shahpura. An international conference on this important topic is being held for the first time in the country. The specialty of India lies in its philosophy of Unity in Diversity. That is why media professionals from the different corners of India and the world have shown deep interest on this topic. Renowned philosophers, sociologists, media experts, journalists, media teachers and media researchers from across the world will be participating in this conference.
The co-ordinator of the conference, Prof. Amitabh Bhatnagar informed that the programme will be inaugurated by the Governor, His excellency Ram Naresh Yadav, on the 27th December 2011. The inaugural session would be addressed by Shri. Arun Shourie, acclaimed journalist and former central cabinet minister. Talking about this, the Vice- Chancellor, Prof. Brij Kishore Kuthiala informed that the central subject of this conference is about, the way our media is expressing diversity and plurality in the Indian society. In this two day conference, discussion would revolve around the way media is presenting the realistic reflections of the various aspects of social life and also suggestions would be given if it is not so. He told that debates are going on the diversity and plurality on international level as every country is facing the challenges related to this issue. India is facing comparatively more challenges than other countries. Despite multiple languages, communities, castes, and cultures, India has set a rare example of national unity and co existence, due to which it has become a matter of research for all other countries. But how our media is expressing the reflection of this diversity is an issue of concern. Prof. Kuthiala opines that the media has the potential to build up better communication in the society and is responsible for presenting social issues. And this is why, its accountability becomes greater than any other section of the society.
The Registrar of the university told that more than 100 research papers and 200 research abstracts have already been received. These research papers would be published by the publication of the university. Media and Mass communication experts from Kenya, Indonesia, Australia, Oman, Sudan, Britain, Nepal, America, Sri Lanka and the Maldives would participate in this conference. Mr.Richard Linning, President, International Public Relations Association, UK would give a special lecture in this conference. Mrs. Jacqline, business partner of Mr. Linning would also be present here.

माखनलाल विश्वविद्यालय में मीडिया में विभिन्नताएं विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

भोपाल,20 दिसंबर,2011। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 27 एवं 28 दिसंबर,2011 को किया गया है। यह दो दिवसीय आयोजन भोपाल के शाहपुरा स्थित प्रशासन अकादमी के सभागार में होगा। कार्यक्रम का उद्घाटन 27 दिसंबर को प्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव करेंगें। इस सत्र के मुख्यवक्ता प्रख्यात पत्रकार एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी होंगें। देश में पहली बार इस महत्वपूर्ण विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो रहा है। भारत की विशेषता ही है अनेकता में एकता। इस दृष्टि से देश एवं विदेश के मीडियाकर्मियों ने इस विषय में गहरी रूचि दिखाई है। इस संगोष्ठी में देश और दुनिया के जाने माने दार्शनिक, समाजशास्त्री, मीडिया विशेषज्ञ, पत्रकार, मीडिया प्राध्यापक एवं मीडिया शोधार्थी हिस्सा ले रहे हैं।
यह जानकारी देते हुए कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने बताया भारतीय समाज की विविधताओं और अनेकताओं को हमारा मीडिया कितना अभिव्यक्त कर पा रहा है, यह सेमिनार की चर्चा का केंद्रीय विषय है। इस दो दिवसीय संगोष्ठी में समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों पर मीडिया की वास्तविक प्रस्तुति पर चर्चा होगी। अगर मीडिया में इनका वास्तविक प्रतिबिंब नहीं है तो उसे ठीक करने के उपायों पर भी सुझाव दिए जाएंगें। उन्होंने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुनिया के सभी देशों में विविधताओं और अनेकताओं को लेकर बहस चल रही है, दुनिया के सारे देश इससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। भारत के सामने इससे जुड़ी हुयी चुनौतियां तुलनात्मक रूप से अधिक हैं। अनेक भाषाओं, पंथों, जातियों, संस्कृतियों का देश होने के बावजूद भारत ने राष्ट्रीय एकता और सहजीवन की अनोखी मिसाल पेश की है। ऐसे में भारत आज दुनिया के तमाम देशों के लिए शोध का विषय है। किंतु इस पूरी विविधता का हमारा मीडिया कैसा अक्स या प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रहा है, यह एक विचार का मुद्दा है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि मीडिया पूरे समाज में परस्पर संवाद बनाने की क्षमता रखता है और विभिन्न सामाजिक विषयों को भी प्रस्तुत करने का दायित्व लिए है, ऐसे में उसकी जिम्मेदारियां किसी भी क्षेत्र से ज्यादा और प्रभावी हो जाती हैं।

विश्वविद्यालय के कुलसचिव डा. चंदर सोनाने ने बताया कि इस अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में लगभग 100 से अधिक शोधपत्र तथा 200 से अधिक शोध संक्षेप आ चुके हैं। इन शोध पत्रों को विश्वविद्यालय के प्रकाशन में प्रकाशित किया जाएगा। केन्या, इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, ओमान, सूडान, ब्रिटेन, नेपाल, अमेरिका, श्रीलंका, मालदीव आदि देशों से इस अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार में जनसंचार विशेषज्ञ हिस्सा लेंगें ।

संगोष्ठी के समन्वयक प्रो. अमिताभ भटनागर ने जानकारी दी कि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोशिएसन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग विशेष रूप से इस संगोष्ठी को संबोधित करेंगें। श्री लिंनिंग की बिजनेस पार्टनर श्रीमती जैक्लीन भी इस अवसर मौजूद रहेंगीं।

Thursday, December 1, 2011

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के नाम एक पत्र



भोपाल, 1 दिसंबर, 2011। युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी ने खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के सवाल पर कांग्रेस महासचिव श्री राहुल गांधी के नाम एक पत्र भेज कर इस अन्याय को रोकने की मांग की है। संजय ने अपने पत्र के महात्मा गांधी लिखित ‘हिंद स्वराज्य’ की प्रति भी श्री गांधी को भेजी है। अपने पत्र में संजय द्विवेदी ने केंद्र की सरकार पर जनविरोधी आचरण के अनेक आरोप लगाते हुए राहुल गांधी से आग्रह किया है कि वे इस ऐतिहासिक समय में देश की कमान संभालें अन्यथा देश के हालात और बदतर ही होंगें। अपने पत्र में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद दिलाते हुए संजय द्विवेदी ने साफ लिखा है कि महंगाई के सवाल पर हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास जादू की छड़ी नहीं हैं, किंतु अमरीका के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है कि जिसके चलते हमारी सरकार के मुखिया वही कहने और बोलने लगते हैं जो अमरीका चाहता है। क्या हमारी सरकार अमरीका की चाकरी में लगी है और उसके लिए अपने लोगों का कोई मतलब नहीं है? प्रस्तुत है इस पत्र का मूलपाठ-



प्रति,
श्री राहुल गांधी
महासचिव
अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी,
12, तुगलक लेन, नयी दिल्ली-110011


आदरणीय राहुल जी,
सादर नमस्कार,
आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद होंगें। देश के खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की मंजूरी देने के सवाल पर देश भर में जैसी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे आप अवगत ही होंगे। आपकी सरकार के प्रधानमंत्री आदरणीय मनमोहन सिंह जी अपने पूरे सात साल के कार्यकाल में दूसरी बार इतनी वीरोचित मुद्रा में दिख रहे हैं। आप याद करें परमाणु करार के वक्त उनकी देहभाषा और भंगिमाओं को, कि वे सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। उनकी यही मुद्रा इस समय दिख रही है। निश्चय ही अमरीका की भक्ति का वे कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते। किंतु सवाल यह है कि इन सात सालों में देश में कितने संकट आए, जनता की जान जाती रही, वह चाहे आतंकवाद की शक्ल में हो या नक्सलवाद की शक्ल में, बाढ़-सूखे में हो, किसानों की आत्महत्याएं या इंसीफ्लाइटिस जैसी बीमारियों से मरते लोगों पर, हमारे प्रधानमंत्री की इतनी मुखर संवेदना कभी व्यक्त नहीं होती।
अमरीकी जादू की छड़ीः
महंगाई के सवाल पर हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास जादू की छड़ी नहीं हैं, किंतु अमरीका के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है कि जिसके चलते हमारी सरकार के मुखिया वही कहने और बोलने लगते हैं जो अमरीका चाहता है। क्या हमारी सरकार अमरीका की चाकरी में लगी है और उसके लिए अपने लोगों का कोई मतलब नहीं है? आखिर क्या कारण है कि जिस सवाल पर लगभग पूरा देश, देश के प्रमुख विपक्षी दल, आम लोग और कांग्रेस के सहयोगी दल भी सरकार के खिलाफ हैं, हम उस एफडीआई को स्वीकृति दिलाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं। एक दिसंबर, 2011 को भारत बंद रहा, संसद पिछले कई दिनों से ठप पड़ी है। क्या जनता के बीच पल रहे गुस्से का भी हमें अंदाजा नहीं है? क्या हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं ? आखिर हमारी क्या मजबूरी है कि हम अपने देशी धंधों और व्यापार को तबाह करने के लिए वालमार्ट को न्यौता दें?
वालमार्ट के कर्मचारी हैं या देश के नेताः
अगर इस विषय पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पा रही है, तो पूरे देश की आकांक्षाओं को दरकिनार करते हुए हमारे प्रधानमंत्री और मंत्री गण वालमार्ट के कर्मचारियों की तरह बयान देते क्यों नजर आ रहे हैं? आप इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि आप इन दिनों गांवों में जा रहे हैं और गरीबों के हालात को जानने का प्रयास कर रहे हैं। आपको जमीनी सच्चाईयां पता हैं कि किस तरह के हालात में लोग जी रहे हैं। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट से लेकर सरकार की तमाम रिपोर्ट्स हमें बताती हैं कि असली हिंदुस्तान किस हालात में जी रहा है। 20 रूपए की रोजी पर दिन गुजार रहा 70 प्रतिशत हिंदुस्तान कैसे और किस आधार पर देश में वालमार्ट सरीखी दानवाकार कंपनियों को हिंदुस्तान की जमीन पर पैर पसारने के लिए सहमत हो सकता है?
भूले क्यों गांधी कोः
आप उस पार्टी के नेता हैं जिसकी जड़ों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संस्कार, पं. जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा, आदरणीया इंदिरा गांधी जी का अप्रतिम शौर्य और आदरणीय राजीव गांधी जी संवेदनशीलता और निष्छलता है। क्या यह पार्टी जो हिंदुस्तान के लोगों को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्त करवाती है,वह पुनः इस देश को एक नई गुलामी की ओर झोंकना चाहती है ? मेरा निवेदन है कि एक बार देशाटन के साथ-साथ आपको बापू (महात्मा गांधी) को थोड़ा ध्यान से पढ़ना चाहिए। बापू की किताब ‘हिंद स्वराज्य’ की प्रति मैं आपके लिए भेज रहा हूं। इस किताब में किस तरह पश्चिम की शैतानी सभ्यता से लड़ने के बीज मंत्र दिए हुए हैं, उस पर आपका ध्यान जरूर जाएगा। मैं बापू के ही शब्दों को आपको याद दिलाना चाहता हूं, वे कहते हैं-“ कारखाने की खूबी यह है कि उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लोग हिंदुस्तान में या दुनिया में कहीं भूखे मर रहे हैं। उसका तो बस एक ही मकसद होता है, वह यह कि दाम उंचे बने रहें। इंसानियत का जरा भी ख्याल नहीं किया जाता।” जिस देश में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और नौजवान बड़ी संख्या में बेरोजगार हों, वहां इस तरह की नीतियां अपनाकर हम आखिर कैसा देश बनाना चाहते हैं?क्या इसके चलते देश में हिंसाचार और अपराध की घटनाएं नहीं बढ़ेगीं, यह एक बड़ा सवाल है।
धोखे का लोकतंत्रः
महात्मा गांधी इसीलिए हमें याद दिलाते हैं कि – “अनाज और खेती की दूसरी चीजों का भाव किसान नहीं तय किया करता। इसके अलावा कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन पर उसका कोई बस नहीं चलता है और फिर मानसून के सहारे रहने की वजह से साल में कई महीने वह खाली भी रहता है। लेकिन इस अर्से में पेट को तो रोटी चाहिए ही।” राहुल जी क्या हमारी व्यवस्था किसानों के प्रति संवेदनशील है? हमारे कृषि मंत्री के बयानों को याद कीजिए और बताइए कि क्या हमने जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने का एक अभियान सरीखा नहीं चला रखा है। एक लोकतंत्र में होने के हमारे मायने क्या हैं? इसीलिए राष्ट्रपिता हमें याद दिलाते हैं कि “बड़े कारखानों में लोकराज्य नामुमकिन है। जो लोग चोटी पर होते हैं,वे गरीब मजदूरों पर उनके रहन-सहन के तरीकों पर –जिनकी तादाद प्रति कारखाना चार-पांच हजार तो होती ही है –एक दबाव डालते हैं और मनमानी करते हैं। ......राष्ट्रजीवन में ऐसे धंधों की एक बहुत बड़ी जगह होनी चाहिए, जिससे लोग लोकशाही की तरफ झुकें। बड़े कारखानों से राजनीतिक तानाशाही ही बढ़ेगी। नाम के लोक –राज्यवाले देश तक जैसे अमरीका, रूस वगैरह लड़ाई के दबाव में सचमुच तानाशाह बन जाते हैं। जो कोई देश भी अपनी जरूरत का सामान केंद्रीय कारखानों से तैयार करेगा, वह आखिर में जरूर तानाशाह बन जाएगा। लोकराज्य वहां केवल दिखावे का रहेगा जिससे लोग धोखे में पड़े रहें। ”

क्या हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लोकतंत्र के लिए लड़ी थीः
सवाल यह भी है क्या हमारी आजादी की लड़ाई देश में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए थी? जाहिर तौर पर नहीं, हमारी लड़ाई तो सुराज, स्वराज्य और आजादी के लिए थी। आजादी वह भी मुकम्मल आजादी। क्या हम ऐसा बना पाए हैं? यहां आजादी चंद खास तबकों को मिली है। जो मनचाहे तरीके से कानूनों को बनाते और तोड़ते हैं। यही कारण है कि हमें लोकतंत्र तो हासिल हो गया किंतु सुराज नहीं मिल सका। इस सुराज के इंतजार में हमारी आजादी ने छः दशकों की यात्रा पूरी कर ली किंतु सुराज के सपने निरंतर हमसे दूर जा रहे हैं।
चमकीली दुनिया के पीछे छिपा अंधेराः
सवाल यह है कि गांधी-नेहरू-सरदार पटेल-मौलाना आजाद- इंदिरा जी जैसा देश बनाना चाहते थे,क्या हम उसे बना पा रहे है ? इस नई अर्थनीति ने हमारे सामने एक चमकीली दुनिया खड़ी की है,किंतु उसके पीछे छिपा अंधेरा हम नहीं देख पा रहे हैं। आपकी चिंता के केंद्र में अगर हिंदुस्तान की तमाम ‘कलावतियां’ हैं तो आपकी पार्टी की सरकार का नेतृत्व मनमोहन सिंह जी जैसे लोग कैसे कर सकते हैं? जिनके सपनों में अमरीका बसता है। हिंदुस्तान को न जानने और जानकर भी अनजान बनने वाले नेताओं से देश घिरा हुआ है। यह चमकीली प्रगति कितने तरह के हिंदुस्तान बना रही है,आप देख रहे हैं।
संभालिए नेतृत्व राहुल जीः
आपकी संवेदना और कही जा रही बातों में अगर जरा भी सच्चाई भी है तो इस वक्त देश की कमान आपको तुरंत संभाल लेनी चाहिए। क्योंकि आप एक ऐतिहासिक दायित्व से भाग रहे हैं। मनमोहन सिंह न तो देश का, न ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं। उनकी नियुक्ति के समय जो भी संकट रहे हों किंतु समय ने साबित किया कि यह कांग्रेस का एक आत्मघाती फैसला था। जनता के मन में चल रहे झंझावातों और हलचलों को आपको समझने की जरूरत है। देश के लोग व्यथित हैं और बड़ी आशा से आपकी तरफ देख रहे हैं। किंतु हम सब आश्चर्यचकित हैं कि क्या सरकार और पार्टी अलग-अलग दिशाओं में जा सकती है? कांग्रेस संगठन का मूल विचार अगर आम आदमी के साथ है तो मनमोहन सिंह की सरकार खास आदमियों की मिजाजपुर्सी में क्यों लगी है? महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालों पर सरकार बगलें क्यों झांक रही है ? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अहिंसक प्रतिरोधों को भी कुचला जा रहा है ? क्या कारण है आपकी तमाम इच्छाओं के बावजूद भूमि अधिग्रहण का बिल इस सत्र में नहीं लाया जा सका ? क्या आपको नहीं लगता कि यह सारा कुछ कांग्रेस नाम के संगठन को जनता की नजरों में गिरा रहा है। कांग्रेस पार्टी को अपने अतीत से सबक लेते हुए गांधी के मंत्र को समझना होगा। बापू ने कहा था कि जब भी आप कोई काम करें,यह जरूर देखें कि इसका आखिरी आदमी पर क्या असर होगा।
सादर आपका

( संजय द्विवेदी)
40, शुभालय विहार, ई-8 एक्सटेंशन, बावड़ियाकलां, भोपाल-402039 (मध्यप्रदेश)

Wednesday, November 30, 2011

ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को

नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश
-संजय द्विवेदी
नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?
मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।
राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।
छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?
देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

Friday, November 25, 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम
- संजय द्विवेदी
या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.
महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ‘ओबामा के लोकतंत्र’ की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।
रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।
खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-
‘दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,
दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।’

याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।
राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस ‘कलावती’ का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- “जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। ” सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि “पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”

Thursday, November 24, 2011

विश्वविद्यालय के संस्थापक महानिदेशक के साथ जनसंचार विभाग के छात्र-छात्राएं





देश के जाने माने पत्रकार, ट्रिब्यून-चंढ़ीगढ़ के पूर्व संपादक और माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के प्रथम महानिदेशक (बाद में यह पदनाम कुलपति हुआ) डा. राधेश्याम शर्मा के साथ जनसंचार विभाग के एमए-जनसंचार के विद्यार्थियों ने बातचीत की। श्री शर्मा ने छात्र-छात्राओं के साथ अपने पत्रकार जीवन के अनुभव बांटें और कहा कि पत्रकारिता का काम बहुत जिम्मेदारी व जवाबदेही का है। हमें इस जवाबदेही के धर्म का निर्वहन करना है, इससे ही हमारे पेशे को सार्थकता मिलेगी।

Saturday, November 19, 2011

नेतृत्व ईमानदार हो तो भारत बनेगा सुपरपावरः डा. गुप्त


पत्रकारिता विश्वविद्यालय में “विविधता और अनेकता में एकता के सूत्र” पर व्याख्यान
भोपाल,19 नवंबर। प्रख्यात अर्थशास्त्री व दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे डा. बजरंगलाल गुप्त का कहना है कि भारत को अगर ईमानदार, नैतिक और आत्मविश्वासी नेतृत्व मिले तो देश सुपरपावर बन सकता है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में "विविधता व अनेकता में एकता के सूत्र" विषय पर आयोजित व्याख्यान में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे । उन्होंने कहा कि दुनिया के अंदर बढ़ रहे तमाम तरह के संघर्षों से मुक्ति का रास्ता भारतीय संस्कृति ही दिखलाती है क्योंकि यह विविधता में विश्वास करती है। सबको साथ लेकर चलने का भरोसा जगाती है। सभी संस्कृतियों के लिए परस्पर सम्मान व अपनत्व का भाव ही भारतीयता की पहचान है। उनका कहना था कि सारी विचारधाराएं विविधता को नष्ट करने और एकरूपता स्थापित करने पर आमादा हैं, जबकि यह काम अप्राकृतिक है।
उन्होंने कहा कि एक समय हमारे प्रकृति प्रेम को पिछड़ापन कहकर दुत्कारने वाले पश्चिमी देश भी आज भारतीय तत्वज्ञान को समझने लगे हैं । जहाँ ये देश एक धर्म के मानक पर एकता की बात करते हैं, वहीं भारत समस्त धर्मों का सम्मान कर परस्पर अस्मिता के विचार को चरितार्थ करता आया है । शिकागो में अपने भाषण में स्वामी विवेकानंद ने भी इसी बात की पुष्टि की थी । उन्होंने कहा कि भारत की संस्कृति की प्रासंगिकता आज भी है, क्योंकि यह वसुधैव कुटुम्बकम की बात करती है। जबकि पश्चिमी देश तो हमेशा से पूंजीवाद व व्यक्तिवाद पर जोर देते आए हैं जो 2007 के सबसे बड़े आर्थिक संकट का कारण बना । वाल स्ट्रीट के खिलाफ चल रहे नागरिक संघर्ष भी इसकी पुष्टि करते हैं। सोवियत संघ का विघटन भी साम्यवाद की गलत आर्थिक पद्धति को अपनाने से ही हुआ। श्री गुप्त ने यह भी कहा कि गरीबों का अमीर देश कहा जाने वाला भारत जैव-विविधता से संपन्न है, जिस पर पश्चिम की बुरी नज़र है । अपनी इसी निधि का संरक्षण हमारा कर्तव्य है, जिससे हम भविष्य में भी स्वावलंबी व मज़बूत बने रहेंगे ।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि हमें विकास का नया रास्ता तलाशना होगा। भारतीय जीवन मूल्य ही विविधता स्वीकार्यता और सम्मान देते हैं। इसका प्रयोग मीडिया, मीडिया शिक्षा और जीवन में करने की आवश्यक्ता है। उनका कहना था कि मानवता के हित में हमें अपनी यह वैश्विक भूमिका स्वीकार करनी होगी। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। कार्यक्रम के प्रारंभ में कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने शाल-श्रीफल पुष्पगुच्छ एवं पुस्तकों का सेट भेंट करके डा.बजरंगलाल गुप्त का अभिनदंन किया। व्याख्यान के बाद डॉ. गुप्त ने श्रोताओं के प्रश्नों के भी उत्तर दिए । कार्यक्रम में प्रो. अमिताभ भटनागर, प्रो. आशीष जोशी, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. आरती सारंग, दीपेंद्र सिंह बधेल, डा. अविनाश वाजपेयी मौजूद रहे।

Friday, November 18, 2011

डा. बजरंगलाल गुप्त का व्याख्यान 19को


भोपाल. देश के जाने माने विचारक एवं चिंतक डा. बजरंगलाल गुप्त का व्याख्यान 19 नवंबर, 2011 को पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पंचम तल पर आयोजित है। आप सब सादर आमंत्रित हैं।

ब्रितानी हिन्दी

डॉ. गौतम सचदेव
42 Headstone Lane, Harrow, Middlesex HA2 6HG (U.K.) मो.-00-(44)-7752 269 257 (mobile)
drGsachdev@aol.com


ब्रिटेन के उन मुट्ठी भर लोगों को छोड़कर, जो व्यावसायिक अथवा शैक्षिक आवश्यकताओ के लिये हिन्दी सीखते और उसका प्रयोग करते हैं, शेष हिन्दी भाषा-भाषी वे भारतवंशी और उनकी सन्तानें हैं, जो सांस्कृतिक, धार्मिक या निजी कारणों से हिन्दी को बचाये हुए हैं । ब्रिटेन अंग्रेज़ी का गढ़ है और व्यापक ब्रितानी समाज हिन्दी का प्रयोग नहीं करता । कुछ अपवादों को छोड़कर हिन्दी प्रचार और प्रसार के माध्यमों में भी दिखाई नहीं पड़ती । यहाँ रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति के लिये अंग्रेज़ी जानना, समझना और बोलना अनिवार्य है । जो ऐसा नहीं करता या कर पाता, वह सामान्य जनजीवन से कट जाता है ।

भौगोलिक दृष्टि से ब्रितानी हिन्दी भारत से आयातित और ब्रिटेन में प्रतिरोपित पौधे जैसी या चौहद्दी में घिरे तालाब जैसी है। जिन थोड़े-से वर्गों द्वारा परस्पर व्यवहार में हिन्दी का प्रयोग किया जाता है, वहाँ भी हिन्दी भाषा-भाषियों का कोई सघन या व्यापक क्षेत्र नहीं है । इस लिये भाषा के परिवर्तन में जिस तरह से स्थानभेद की भौगोलिक और सामाजिक भूमिका होती है, यथा चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बोली – वह ब्रिटेन के सन्दर्भ में सही नहीं है ।

हिन्दी यहाँ पर अपने स्वरूप और विकास में उसके बोलने वालों की योग्यता और ज्ञान, रेडियो और टेलिविजन के उपग्रहों से प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों और अत्यल्प तथा त्रुटिपूर्ण ढंग से कराये गये अनुवादों के द्वारा परिचालित होती है, भौगोलिक कारणों से नहीं । जो अध्येता ब्रितानी हिन्दी के विकास और परिवर्तनों का अध्ययन करना चाहते हैं, उनके लिये यह एक रोचक विषय है । ब्रिटेन में हिन्दी का एक भी समाचारपत्र नहीं है । एक त्रैमासिक पत्रिका पुरवाई को छोड़कर (जो अब समय पर प्रकाशित नहीं होती) यहाँ से और कोई हिन्दी पत्रिका नहीं निकलती । हिन्दी का शिक्षण केवल कुछ संस्थाएँ और उत्साही व्यक्ति ही कर रहे हैं और उनसे हिन्दी सीखने वाले बच्चों को छोड़कर यहाँ की युवा पीढ़ी हिन्दी में कोई रुचि नहीं रखती । इस लिये ब्रिटेन में हिन्दी का भविष्य कदापि उज्ज्वल नहीं है ।

विदेशों में पनपने वाली हिन्दी को जो व्यापक अन्तरराष्ट्रीय आयाम प्राप्त होता है, उसके सीमित रूप से ब्रिटेन में भी दर्शन किये जा सकते हैं । इसका मुख्य कारण यह है कि ब्रिटेन में भारतवंशियों की काफ़ी बड़ी संख्या मौजूद है । उन्होंने अपने घरों, धार्मिक स्थलों और संस्थाओं में भारत के जो छोटे-छोटे द्वीप बसा रखे हैं, उनसे हिन्दी भाषा समेत भारतीय संस्कृति और भारतीयता के बहुविध पक्षों का विकास होना स्वाभाविक है, लेकिन चूँकि उनपर ब्रिटेन के सामाजिक और सांस्कृतिक दबाव भी काफ़ी प्रबल रूप से पड़ते हैं, इस लिये यहाँ भारत वाली शुद्ध भारतीयता के दर्शन शायद नहीं होंगे ।

ब्रिटेन में भारतीय उपमहाद्वीप के अनेक भागों से आये लोग बसे हुए हैं । उनमें भारतीय पंजाबी तो मुख्यतः पंजाबी भाषा की दोआबी बोली और गुरुमुखी लिपि का प्रयोग करते हैं, जबकि पाकिस्तानी पंजाबी टक्साली या उर्दू मिश्रित पंजाबी बोलते हैं और उसे लिखने के लिये नस्तालीक यानि उर्दू लिपि काम में लाते हैं । इसी तरह से भारतीय बंगाली बंगला भाषा का प्रयोग करते हैं, जबकि बंगलादेशी बंगाली उसकी उपभाषा सिल्हटी का । ब्रिटेन के भारतवंशियों में अपनी-अपनी क्षेत्रीय या प्रादेशिक भाषा और बोली की रक्षा का भाव इतना प्रबल है कि राष्ट्रभाषा हिन्दी प्रायः उपेक्षित हो जाती है । लेकिन भला हो हिन्दी फ़िल्मों और भारतीय टी.वी. चैनलों से प्रसारित धारावाहिकों तथा समाचारों का, जिनके कारण हिन्दी समझने वालों का दायरा काफ़ी व्यापक है और हिन्दी भाषा जीवित है ।

ब्रिटेन में हिन्दी के जीवित रहने का दूसरा मुख्य कारण है भारतवंशियों का भारत प्रेम और इस नाते उनका अपनी राष्ट्रीय पहचान बनाये रखना । तीसरा कारण धर्म या संस्कृति है। धार्मिक अनुष्ठानों, त्योहारों, पर्वों, उत्सवों और समारोहों आदि में हिन्दी को उसका परम्परागत आदर एवं स्थान मिल ही जाता है, लेकिन वह समूचे भारतवंशियों के सामाजिक और धार्मिक व्यवहार की प्रथम भाषा नहीं है । उसकी वैसी सामाजिक या भाषिक पहचान भी नहीं है, जैसी भारतवंशियों की स्वयं अपनी पहचान है और उनकी प्रान्तीय या क्षेत्रीय भाषाओं की है । चौथा कारण सामूहिक कारण है । ब्रिटेन में हिन्दी को जीवित और लोकप्रिय बनाये रखने में भारतीय उच्चायोग काफ़ी सक्रिय है, जो हिन्दी सेवियों को सम्मान और अनुदान प्रदान करता है । उसके अलावा यू.के. हिन्दी समिति, गीतांजलि, भारतीय भाषा संगम, कृति यू.के., वातायन और कथा यू.के. जैसी अनेक हिन्दी सेवी संस्थाएँ हैं, जो हिन्दी का प्रचार-प्रसार करती हैं, सम्मेलनों और समारोहों का आयोजन करती हैं और सम्मान आदि प्रदान करती हैं। इन सबके साथ आर्य समाज, भारतीय विद्या भवन, हिन्दू सोसाइटियाँ और स्थानीय काउंसिलें यानि नगर परिषदें हैं तथा बहुत-से उत्साही शिक्षक हैं, जो अपने-अपने ढंग से हिन्दी की शिक्षा, प्रचार और प्रसार में योगदान करते हैं ।

व्यावसायिक स्तर पर कुछ प्रकाशकों ने हिन्दी सिखाने वाली पुस्तकें तथा दृश्य और श्रव्य कैसेट प्रकाशित किये हैं, जिनके आलेख भारतीयों ने भी रचे हैं और अंग्रेज़ों ने भी । इनके लक्ष्य भिन्न-भिन्न हैं, कुछ पर्यटकों के लिये हैं, कुछ बच्चों के लिये और कुछ सामान्य शिक्षार्थियों के लिये हैं । इनमें हिन्दी व्याकरण का जैसा ध्यान रखा जाना चाहिये, वह प्रायः नहीं मिलता । जो संस्थाएँ और व्यक्ति हिन्दी शिक्षण का कार्य कर रहे हैं, उनके पास कोई मानक या सर्वमान्य और वैज्ञानिक पाठ्यक्रम नहीं है । उनके अध्यापक भी प्रशिक्षित हिन्दी अध्यापक नहीं हैं । सब अपने-अपने ढंग और सूझबूझ से हिन्दी सिखाते हैं । मैंने स्वयं अनेक व्यक्तियों को हिन्दी की शिक्षा दी है, जिनमें अधिकतर बीबीसी के वे अंग्रेज़ संवाददाता थे, जिनको भारत में नियुक्त किया गया था । मैंने हिन्दी सिखाने के लिये व्यावहारिक, भाषा-वैज्ञानिक और आधुनिक रीतियों का पालन किया और प्रायः वह मानक ब्रितानी पद्धति अपनाई, जो अंग्रेज़ी को विदेशी भाषा के रूप में सिखाने वाली स्वीकृत पद्धति है । प्रत्येक विद्यार्थी के अनुरूप मैंने स्वयं पाठ और पाठ्य सामग्री तैयार की तथा उच्चारण के लिये प्रायः रोमन, पंजाबी, उर्दू तथा अन्य लिपियों का प्रयोग किया ।

हिन्दी शिक्षण सामग्री में व्याकरण की जो भूलें मेरे देखने में आईं, उनमें कुछ के उदाहरण हैं, आपने शादी किया, ग़रीब लोग क्या करना और न्यू डेल्ही स्टेशन कितने पैसे हैं, आदि । कैसेटों में प्रायः अंग्रेज़ी-हिन्दी का मिश्रण मिलता है, जैसे – फ़्लाइट कब चलती है, पहले रिपोर्ट हिन्दुस्तान जाएगी और क्लियरैन्स के बाद ही पासपोर्ट मिल सकता है, और हम बीवी, बच्चे यानी कि पूरी ट्राइब के साथ भारत जा रहे हैं । केम्ब्रिज विश्वविद्यालय के एक विख्यात प्रोफ़ैसर ने जो हिन्दी का व्याकरण लिखा है, उससे हिन्दी के कुछ उदाहरण देखिये – वह विजय की मुस्कराहट मुस्कराया, तालाब में कुछ पानी नहीं है, मुझे बहुत बड़ी खुशी है, हमें समय नहीं है और किन्हीं-किन्हीं गाँवों में तालाब नहीं हैं । हिन्दी के एक अन्य अंग्रेज़ प्राध्यापक ने जो चर्चित और उपयोगी हिन्दी स्वयं शिक्षक लिखा है, उसमें भी त्रुटियों का अभाव नहीं है । कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं – यात्रियों को तो यात्रा की कहानियाँ दिलचस्प होती हैं, वह चश्मा वाला लड़का जो बीड़ी पी रहा था, अभी तो मुझे मुक्ति पाने की कोई विशेष इच्छा तो नहीं है । उपर्युकत विवेचन के आधार पर ब्रितानी हिन्दी के ये सन्दर्भ विचारणीय हैं – भारतीय हिन्दी बनाम विदेशी हिन्दी, मौलिक हिन्दी बनाम अनूदित हिन्दी, मानक हिन्दी बनाम अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी और व्यवसायिक हिन्दी बनाम बोलचाल की सामान्य हिन्दी आदि।

भाषावैज्ञानिक आधार पर भारतीय और विदेशी हिन्दी में तात्त्विक अन्तर नहीं मिलता, लेकिन ब्रिटेन में अंग्रेज़ी के दबाव के कारण कुछ अन्तर अवश्य मिलता है । यद्यपि आज यह दबाव भारतीय हिन्दी पर भी कम नहीं है, क्योंकि शिक्षित और सम्भ्रान्त समाज हिन्दी के स्थान पर अंग्रेज़ी बोलने या हिन्दी को अंग्रेज़ीनुमा बनाने में प्रतिष्ठा का अनुभव करता है, लेकिन ब्रितानी हिन्दी पर यह दबाव अन्य कारणों से भी पड़ता है, जिनमें सांस्कृतिक और भौगोलिक कारण मुख्य हैं । ब्रिटेन जैसे अंग्रेज़ी के महासागर में हिन्दी जैसी भारतीय भाषाओं के द्वीप बहुत छोटे हैं, जिनपर अंग्रेज़ी के ज्वारभाटे और तूफ़ान आते ही रहते हैं । एक इस रूप में कि भारतीय माता-पिताओं के बच्चे यहाँ शिक्षित होने के कारण अपनी मातृभाषा का बहुत कम प्रयोग करते हैं या करते ही नहीं ।

इससे हिन्दी का क्षेत्र और भी संकुचित हो जाता है और उसमें केवल अंग्रेज़ी शब्दों और उसकी उच्चारण शैली का ही मिश्रण नहीं होता, रोमन लिपि के कारण हिन्दी के नामों और शब्दों का अंग्रेज़ीकरण भी होता है । इसके उदाहरण कभी-कभी बड़े रोचक होने लगते हैं, लेकिन ब्रितानी हिन्दी में उन्हें सहज रूप से स्वीकार किया जाता है, जैसे कीर्ति का कर्टी, गुरुमूर्ति का गुरुमर्टी, धवन का डवन या डॉवन और कान्ता का काँटा या कैंटा सुनाई पड़ना आम बात है । यहाँ भारतीय नामों को छोटा करके या बदलकर अंग्रेज़ी ढंग से बोलने-बुलवाने की प्रवृत्ति भी मिलती है, जो अंग्रेज़ों के नामों से मेल खाती है – जैसे सरस्वती का सेरा या सारा, हर्ष का हार्श, हरी या हर्षित का हैरी और कृष्ण का क्रिस हो जाना ।

अंग्रेज़ी से प्रभावित वाक्यों के कुछ उदाहरण देखिये – मेरे सनी को टायलेटें लग गई हैं, ज़रा डोर शट कर दो, मैंने संडे को टैम्पल में वर्शिप करने जाना है, आदि । इसी तरह से जब ब्रितानी हिन्दी में अंग्रेज़ी-हिन्दी व्याकरणों का मिश्रण होता है, तो टेबले, चेयरें, डिशें, डिबेटें, डेकोरेशनें, स्पीचें, हैबिटें और ट्रांसलेशनें जेसे बहुवचन सुनाई पड़ते हैं और ‘उसने कहा, यू नो जो वो हमेशा कहा करता है, दैट हीज़ बिज़ी, वो बिज़ी है, इस लिये नहीं आ सकता’ तथा ‘उसने ख़बर सुनते ही, ऐज़िज़ हिज़ हैबिट, रिऐक्ट किया अपने उसी पर्सनल स्टाइल में कि हाउ डेयर यू, तुम्हारी यह हिम्मत’ जैसे वाक्य सुनने को मिलते हैं । इस मिश्रण से आगे की स्थिति वह है, जब अनुवाद करते समय या तो अंग्रेज़ी के वाक्य-विन्यास की नक़ल की जाती है या अंग्रेज़ी का शाब्दिक अनुवाद कर दिया जाता है।

उपर्युक्त उदाहरणों से देखा जा सकता है कि लोग हिन्दी बोलते-बोलते कैसे अंग्रेज़ी में पहुँच जाते हैं । वे या तो पूरा वाक्य हिन्दी में नहीं बोल पाते या फिर बोलते ही नहीं और हिन्दी सुनकर अंग्रेज़ी में जवाब देते हैं । अंग्रेज़ी के अलावा ब्रितानी हिन्दी में पंजाबी और गुजराती शब्दों का मिश्रण भी मिलता है । हिन्दी का मर्मज्ञ होने की न यहाँ किसी को ज़रूरत है और न ही कोई होना चाहता है । यहाँ शुद्ध हिन्दी बोलने-सिखाने के साधन भी प्रायः उपलब्ध नहीं हैं, जिसका एक कारण यह है कि हिन्दी सिखाने वाले व्यक्ति स्वयं हिन्दी के उच्च कोटि के विद्वान या अध्यापक नहीं हैं । अलबत्ता सरकारी अनुवाद के कामों और व्यावसायिक कारणों से एक समय पर यहाँ अनुवादकों की आवश्यकता अवश्य रही है, लेकिन उच्च स्तर के अनुवादकों का ब्रिटेन में हमेशा से अभाव चला आता है । परिणाम यह है कि यहाँ का हिन्दी अनुवाद प्रायः भ्रष्ट, अशुद्ध और कृत्रिम है । उर्दू, पंजाबी और बंगाली की दशा इससे बहुत अच्छी है ।

हिन्दी के भ्रष्ट और अशुद्ध अनुवाद के अतिरिक्त इसमें वर्तनी की अशुद्धियों की भी भरमार है, जैसे अधर्म का अर्धम, रूप का रुप, नीति का निति या निती, कृपया का कृप्या और विद्या का विध्या लिखा हुआ मिलना बड़ी सामान्य बात है । एक बार यहाँ की एक स्थानीय नगर परिषद यानि काउंसिल ने हिन्दी अनुवादकों की नियुक्ति के लिये विज्ञापन दिया । उसमें जो ग़लतियाँ थीं, वे तो थीं ही, परीक्षार्थियों के लिये उसने लगभग 600 शब्दों की जो नियमावली प्रकाशित की थी, उसमें 100 से अधिक केवल वर्तनी की अशुद्धियाँ थीं । अच्छी हिन्दी के लिये किसी समय पर जिस बीबीसी हिन्दी सेवा की प्रशंसा की जाती थी, उसमें अनुवाद की इस प्रकार की त्रुटियाँ मैंने स्वयं सुनी हैं – फ़िलिस्तीन समझौतों पर बमबारी (बॉम्बार्डमेंट ऑन पैलेस्टिनिटन सेटलमेंट्स), ज़ैतून की टहनी पेश की (ऑफ़र्ड एन ऑलिव ब्रांच) और पर्याप्त ही पर्याप्त है (इनफ़ इज़ इनफ़) । आज भी बीबीसी हिन्दी सर्विस की ऑनलाइन वेबसाइट पर भाषा की अशुद्धियाँ मिल जाना बड़ी आम बात है ।

ब्रिटेन के जिन हिन्दी लेखकों की आजकल भारत में प्रवासी लेखकों के रूप में काफ़ी चर्चा होती है, उनमें अपवाद स्वरूप दो-चार लेखकों को छोड़कर अधिकांश में भाषा की त्रुटियों के प्रति असावधानी के सहज ही दर्शन किये जा सकते हैं ।

ब्रिटेन के पुस्तकालयों में हिन्दी की पुस्तकें बहुत कम मिलेंगी । थोड़ी-बहुत जो दिखाई पड़ भी जाती हैं, वे किसी भ्रान्त और भ्रष्ट क्रय-नीति के अन्तर्गत ख़रीदी गई थीं । इससे भी ख़राब स्थिति यह है कि हिन्दी के पाठक एकदम नदारद हैं । पत्रिकाओं के नाम पर पुरवाई का उल्लेख ऊपर किया जा चुका है । हिन्दी के विपरीत पुस्तकालयों में उर्दू, गुजराती, पंजाबी और बंगला पुस्तकों का न केवल स्तर ही ऊँचा है और वे बहुसंख्य रूप से मौजूद भी हैं, बल्कि उनके पाठकों की संख्या भी काफ़ी अधिक है । उनकी पत्रिकाएँ और समाचारपत्र भी नियमित रूप से छपते और पढ़े जाते हैं । इस लिये अगर ब्रिटेन में हिन्दी को लोकप्रिय और ग्राह्य बनाने के ठोस और कारगर उपाय न किये गये, तो वह दिन दूर नहीं, जब ब्रिटेन से हिन्दी पूरी तरह विदा हो जायेगी ।

Tuesday, November 15, 2011

कैसा है डिजिटल युग का युवा



- डॉ. दुर्गा प्रसाद अग्रवाल
संस्कृति और अमरीकी जीवन के गहन अध्येता और एमॉरी विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर मार्क बॉयेर्लाइन की नई किताब ‘द डम्बेस्ट जनरेशन: हाउ द डिजिटल एज स्टुपिफाइज़ यंग अमरीकन्स एण्ड जिओपार्डाइजेज़ अवर फ्यूचर’ अमरीका की तीस साल तक की उम्र वाली वर्तमान पीढी के बौद्धिक खालीपन को जिस शिद्दत के साथ उजागर करती है वह हमें भी बहुत कुछ सोचने को विवश करता है। मार्क बेबाकी से कहते हैं कि सायबर कल्चर अमरीका को कुछ भी नहीं जानने वालों के देश में तब्दील करती जा रही है। वे चिंतित होकर पूछते हैं कि अगर किसी देश की नई पीढी का समझदार होना अवरुद्ध हो जाए तो क्या वह देश अपनी राजनीतिक और आर्थिक श्रेष्ठता कायम रख सकता है?

वैसे तो पॉप कल्चर और युवा पीढी पर उसके प्रभावों को लेकर काफी समय से बहस हो रही है। वर्तमान डिजिटल युग जब शुरू हुआ तो बहुतों ने यह आस बांधी थी कि इण्टरनेट, ई मेल, ब्लॉग्ज़, इण्टरएक्टिव वीडियो गेम्स वगैरह के कारण एक नई, अधिक जागरूक, ज़्यादा तीक्ष्ण बुद्धि वाली और बौद्धिक रूप से परिष्कृत पीढी तैयार होगी। इंफर्मेशन सुपर हाइवे और नॉलेज इकोनॉमी जैसे नए शब्द हमारी ज़िन्दगी में आए और उम्मीद की जाने लगी कि नई तकनीक के इस्तेमाल में दक्ष युवा अपने से पिछली पीढी से बेहतर होंगे। लेकिन, दुर्भाग्य, कि यह आस आस ही रही। जिस तकनीक से यह उम्मीद थी कि उसके कारण युवा अधिक समझदार, विविध रुचि वाले और बेहतर सम्प्रेषण कौशल सम्पन्न होंगे, उसका असर उलटा हुआ। ताज़ा रिपोर्ट्स बताती हैं कि अमरीका की नई पीढी के ज़्यादातर लोग न तो साहित्य पढते हैं, न म्यूज़ियम्स जाते हैं और न वोट देते हैं। वे साधारण वैज्ञानिक अवधारणाएं भी नहीं समझ-समझा सकते हैं। उन्हें न तो अमरीकी इतिहास की जानकारी है और न वे अपने स्थानीय नेताओं को जानते हैं। उन्हें यह भी नहीं पता कि दुनिया के नक्शे में ईराक या इज़राइल कहां है।

इन्हीं सारे कारणों से मार्क बॉयेर्लाइन ने उन युवाओं को, जो अभी हाई स्कूल में हैं, द डम्बेस्ट जनरेशन का नाम दिया है। बॉयेर्लाइन ने जो तथ्य दिए हैं वे बहुत अच्छी तरह यह स्थापित करते हैं कि आज का युवा डिजिटल मीडिया के माध्यम से और ज़्यादा आत्मकेन्द्रित होता जा रहा है। वह नई तकनीक का इस्तेमाल किताब पढने या पूरा वाक्य लिखने जैसी गतिविधियों से अलग जाकर सतही, अहंकारवादी और भटकाने वाली ऑन लाइन दुनिया में रत रहने में कर रहा है। बॉयेर्लाइन यू ट्यूब और माय स्पेस का नाम लेते हैं और कहते हैं कि इन और इन जैसे दूसरे वेब अड्डों पर युवाओं ने अपनी मनचाही जीवन शैली विषयक सामग्री की भरमार कर रखी है और वे इस संकुचित परिधि से बाहर नहीं निकलते हैं। मार्क इस मिथ को भी तोडते हैं कि इण्टरनेट में बढती दिलचस्पी ने युवाओं के बुद्धू बक्सा-मोह को कम किया है। वे आंकडों के माध्यम से स्थापित करते हैं कि युवाओं ने इण्टरनेट को दिया जाने वाला समय मुद्रित शब्द से छीना है और उनका टी वी प्रेम तो ज्यों का त्यों है। मार्क बताते हैं कि 1981 से 2003 तक आते-आते पन्द्रह से सत्रह साल वाले किशोरों का फुर्सती पढने का वक़्त अठारह मिनिट से घटकर सात मिनिट रह गया है।

इससे आगे बढकर मार्क यह भी कहते हैं कि 12 वीं कक्षा के छियालीस प्रतिशत विद्यार्थी विज्ञान में बेसिक स्तर को भी नहीं छू पाते हैं, एडवांस्ड स्तर तक तो महज़ दो प्रतिशत ही पहुंचते हैं। यही हाल उनकी राजनीतिक समझ का भी है। हाई स्कूल के महज़ छब्बीस प्रतिशत बच्चे नागरिक शास्त्र में सामान्य स्तर के हैं। नेशनल असेसमेण्ट ऑफ एज्यूकेशनल प्रोग्रेस की इसी रिपोर्ट के अनुसार बारहवीं कक्षा के बच्चों में 1992 से 2005 के बीच पढने की आदत में भी भारी कमी आई है। इस कक्षा के केवल चौबीस प्रतिशत बच्चे ही ठीक-ठाक वर्तनी और व्याकरण वाला काम-चलाऊ गद्य लिख सकने में समर्थ हैं। यही हाल उनकी मौखिक अभिव्यक्ति का भी है।

मार्क का निष्कर्ष है कि आज की सांस्कृतिक और तकनीकी ताकतें ज्ञान और चिंतन के नए आयाम विकसित करने की बजाय सार्वजनिक अज्ञान का एक ऐसा माहौल रच रही है जो अमरीकी प्रजातंत्र के लिए घातक है। मार्क जो बात अमरीका के लिए कह रहे हैं, विचारणीय है कि कहीं वही बात भारत के युवा पर भी लागू तो नहीं हो रही? खतरे की घण्टी के स्वरों को हमें भी अनसुना नहीं करना चाहिए।
कृति: The Dumbest Generation
लेखक : Mark Bauerlein
प्रकाशक : Tarcher
पृष्ठ : 273 pages, Hardcover
मूल्य : US $ 24

गूगल का खौफ: तकनीक को बांधना मुश्किल

-बालेंदु शर्मा दाधीच
सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में दुनिया की सबसे तेज बढ़ती कंपनी गूगल ने महज सात साल में जिस तीव्र गति से करोड़ों प्रशंसक बना लिए हैं लगभग उसी रफ्तार से ऐसे प्रतिद्वंद्वियों की जमात भी खड़ी कर ली है जो उसकी विस्मयकारी उड़ान रोकने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जब तक गूगल एक सर्च इंजन के तौर पर सफलता की गाथाएं लिख रहा था, तब तक उसका मुकाबला सिर्फ याहू, इंकटोमी, लुकस्मार्ट, एल्टाविस्टा और आस्क जीव्स जैसी इंटरनेट.खोज वाली मझौले दर्जे की कंपनियों से था। लेकिन पिछले दो साल में गूगल ने इंटरनेट.खोज के पारंपरिक कारोबार से आगे बढ़कर जिस अद्भुत तेजी से नई गतिविधियों और सेवाओं के क्षेत्र में पांव पसारे हैं उससे आईटी के दिग्गजों के पांवों तले जमीन खिसकने लगी है। इंटरनेट पोर्टल और सेवाओं में नंबर एक मानी जाने वाली 'याहू' और पीसी आपरेटिंग सिस्टम तथा आफिस सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में 90 फीसदी बाजार पर काबिज माइक्रोसॉफ्ट ने इंटरनेट मैसेजिंग सेवाओं के क्षेत्र में अपनी पारंपरिक प्रतिद्वंद्विता को त्याग कर गूगल के खिलाफ एकजुट होने का फैसला किया है।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट के बीच हाल ही में हुए समझौते का घोषित उद्देश्य तो उनके इंटरनेट संदेशवाहक सॉफ्टवेयरों. 'एमएसएन मैसेंजर' और 'याहू मैसेंजर' के बीच अंतरसंबंध (इंटरकॉम्पेटिबिलिटी) को सुनिश्चित करना है, लेकिन वास्तव में यह गूगल के विस्तीर्ण होते कारोबार पर अंकुश लगाने के लिए बनाई गई माइक्रोसॉफ्ट की दूरगामी कारोबारी रणनीति का हिस्सा है। इसका एक अन्य उद्देश्य इंटरनेट मैसेजिंग के क्षेत्र में अमेरिका ऑनलाइन के दबदबे (5॰15 करोड़ सदस्य) को चुनौती देना है। गूगल के खिलाफ छेड़े जाने वाले किसी भी युद्ध में याहू एक स्वाभाविक भागीदार है क्योंकि गूगल की कामयाबी से सवरधिक नुकसान उसी को हुआ है। गूगल के आगमन से पहले इंटरनेट.खोज के क्षेत्र में याहू का ही दबदबा था और उसकी आय का एक बड़ा हिस्सा सर्च इंजन से ही आता था। सगेर्ई ब्रिन और लैरी पेज नामक दो युवाओं ने अद्वितीय व्यापारिक व तकनीकी मेधा का परिचय देते हुए गूगल का विकास किया जो अपनी उपयोगिता मात्र के बल पर इतना अधिक लोकप्रिय हो गया कि याहू और अन्य जाने.माने सर्च इंजन उसके सामने 'शौकिया डवलपर्स के बनाए हुए अपरिपक्व उत्पाद' नजर आने लगे। आज गूगल इंटरनेट.खोज का पयरय बन चुका है। वह न सिर्फ अपनी सार्थकता के लिहाज से बल्कि आय के हिसाब से भी अन्य सभी सर्च इंजनों को बहुत पीछे छोड़ चुका है।

गूगल के आने से पहले तक इंटरनेट खोज के क्षेत्र में की.वर्ड (विशेष शब्द) आधारित इन्डेक्सिंग (सूचीकरण) की विधि प्रचलित थी। होता यह था कि लगभग हर वेबसाइट में कुछ शब्द कीवर्ड के रूप में डाल दिए जाते थे जो यह प्रकट करते थे कि इस वेबसाइट में दी गई सामग्री इन विषयों पर आधारित है। याहू और अन्य सर्च इंजनों के स्पाइडर या क्रॉलर (ऐसे सॉफ्टवेयर जो नियमित रूप से वेबसाइटों का भ्रमण कर उनमें दी गई सामग्री पर नजर रखते हैं) इन्हीं कीवड्र्स के आधार पर उन वेबसाइटों को श्रेणियों में विभाजित कर अपने डेटाबेस में डाल देते थे। बाद में पाठकों की तरफ से इन श्रेणियों में जानकारी मांगे जाने पर इन्हीं वेबसाइटों का ब्यौरा दे दिया जाता था। लेकिन समस्या यह थी कि कई वेबसाइटों में गलत कीवर्ड डाल दिए जाते थे और वहीं यह तकनीक मात खा जाती थी। यह एक सरल पद्धति थी जिसमें एल्गोरिद्म (कंप्यूटरीय गणनाएं) की भूमिका बहुत सीमित थी। गूगल के प्रवर्तकों में से एक लैरी पेज ने इस परंपरा से एकदम हटकर 'पेज रैंक' नामक क्रांतिकारी तकनीक विकसित की जिसमें की.वड्र्स की कोई भूमिका नहीं थी। इस तकनीक के तहत वेबसाइट के पूरे पेज में दिए गए शब्दों का विश्लेषण किया जाता था और उसकी लोकप्रियता (पेज रैंक) को भी ध्यान में रखते हुए इन्डेक्सिंग की जाती थी। किसी भी वेबसाइट की लोकप्रियता जांचने के लिए उसके बारे में अन्य वेबसाइटों में दिए गए लिंक्स को आधार बनाया गया था। इस तकनीक में मानवीय हस्तक्षेप की कोई आवश्यकता नहीं थी और इसके बावजूद न सिर्फ खोज के परिणाम सटीक आते थे बल्कि उन्हें उनके महत्व के अनुसार तरतीबवार पेश किया जाता था। गूगल के परिणाम इतने त्रुटिहीन और व्यापक थे कि इंटरनेट पर सर्च करने वालों के लिए यह एक तरह का वरदान प्रतीत हुआ।

गूगल की लोकप्रियता तेजी से बढ़ी और अन्य सर्च इंजनों की लोकप्रियता में उसी तेजी से गिरावट आई। हालांकि गूगल ने अपनी खोज.पद्धति का राज नहीं खोला लेकिन आज के तकनीकी युग में ऐसी चीजों को बहुत समय तक छिपाकर रखना संभव नहीं है। अंतत: याहू, एमएसएन, एल्टा विस्टा और अन्य सर्च इंजन भी पुराने कोड को छोड़कर गूगल जैसी ही रैंक आधारित तकनीक अपनाने पर मजबूर हुए। याहू ने तो अपना आकार बढ़ाने के लिए 'इंकटोमी' नामक सर्च इंजन कंपनी को खरीद भी लिया। फिर भी इंटरनेट खोज के क्षेत्र में गूगल अपनी सर्वोच्चता बनाए हुए है। इस वत्ति वर्ष की दूसरी तिमाही के नतीजों में इंटरनेट विज्ञापनों के जरिए गूगल को 1॰4 अरब डालर की रकम हासिल हुई जबकि इसी अवधि में याहू ने 1॰1 अरब डालर अर्जित किए।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों की समस्या यह है कि गूगल अब सिर्फ सर्च इंजन तक ही सीमित नहीं रह गया है और नए क्षेत्रों में पांव पसार रहा है। पूरी तरह लीक से हटकर सोचने वाली इस कंपनी ने सेवाओं और उत्पादों का विस्फोट सा कर दिया है और सब के सब आश्चयर्जनक रूप से अपनी.अपनी श्रेणियों में श्रेष्ठतम या उच्च कोटि के हैं। कम महत्वपूर्ण क्षेत्रों को छोड़ दें तो याहू का कारोबार मुख्यत: चार क्षेत्रों में फैला हुआ है. सर्च इंजन, ईमेल, इंटरनेट मैसेंजर और इंटरनेट पोर्टल। माइक्रोसॉफ्ट, जो कि मूल रूप से एक सॉफ्टवेयर आधारित कंपनी है, भी इन सभी क्षेत्रों में सक्रिय है, हालांकि याहू की भांति उसके कारोबार का दारोमदार पूरी तरह से इन पर नहीं है। उसका अधिकांश कारोबार विंडोज और ऑफिस जैसे सॉटवेयर आधारित उत्पादों पर निर्भर है।

गूगल ने सर्च इंजन के क्षेत्र में याहू और एमएसएन को पछाड़ने के बाद अब 'जीमेल' के माध्यम से ईमेल के क्षेत्र में भी उन्हें जबरदस्त चुनौती दी है। जीमेल की शुरूआत ही एक धमाके से हुई। न सिर्फ यह तेजी से काम करने वाली और अधिक सुविधाजनक ईमेल सेवा थी बल्कि इसकी शुरूआत में ही एक गीगाबाइट मेल स्पेस मुत दिया जा रहा था। याहू और माइक्रोसॉफ्ट (हॉटमेल) की ईमेल सेवाओं में दिए जा रहे दस.दस मेगाबाइट स्पेस की तुलना में यह लगभग सौ गुना था। जीमेल आते ही लोकप्रिय हो गया और उसका अकाउंट पाना एक किस्म का क्रेज बन गया। गूगल ने जीमेल में भी विज्ञापन दिखाने शुरू किए और अथर्ोपार्जन का एक नया माध्यम खड़ा कर लिया। वह इतने पर ही नहीं रुका और लगभग हर एकाध महीने में एक नया उत्पाद लांच करता चला गया। उसकी प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के होश तो सर्च इंजन और जीमेल ने ही उड़ा दिए थे अब ब्लोग, डेस्कटॉप सर्च, स्कॉलर, गूगल अर्थ, इमेज सर्च, न्यूज जैसे उपयोगी और नवीनतम उत्पादों ने रही सही कसर भी पूरी कर दी। धीरे-धीरे इंटरनेट कंपनियां गूगल की ही नकल करने में व्यस्त हो गईं और ठीक उसके जैसे उत्पाद लांच करने लगीं।

गूगल ने इंटरनेट कारोबार की दिशा बदल दी थी। दो उत्साही युवकों द्वारा स्थापित इस कंपनी ने आईटी के दिग्गजों को अपना अनुसरण करने पर मजबूर कर दिया था।

याहू और माइक्रोसॉफ्ट ने भी अंतत: अपने नए सर्च इंजन, इमेज सर्च सेवा और समाचार सेवाएं शुरू कीं। लेकिन वे थोड़ा सुस्ता सकें इससे पहले ही गूगल ने 'गूगल टॉक' के माध्यम से मैसेंजर कारोबार में कदम रख लिया और इंटरनेट पर संदेशों के आदान प्रदान का ऐसा सॉफ्टवेयर लांच कर दिया जिसमें फोन की ही तरह बात करने की सुविधा भी है! और तो और खबर है कि वह इंटरनेट पोर्टल भी लाने वाला है। यानी अब वह याहू के कारोबार वाले लगभग सभी क्षेत्रों में सक्रिय हो रहा है।

स्वाभाविक ही है कि एक बेहत मजबूत प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले अपना कारोबार बचाने के लिए याहू के लिए कोई बड़ा कदम उठाना जरूरी था। माइक्रोसॉफ्ट के साथ समझौते के जरिए उसने यह कदम उठा लिया है। याहू का नजरिया गूगल के प्रति लगातार आक्रामक हो रहा है। इंकटोमी के अधिग्रहण के जरिए याहू ने गूगल पर पहला हमला किया था। पिछले दिनों याहू ने दावा किया कि उसकी इन्डेक्सिंग सर्विस (वेबपेजों के ब्यौरे का डेटाबेस) गूगल की तुलना में दोगुना है। फिर याहू के चेयरमैन टेरी सैमेम ने इंटरनेट संबंधी विषयों पर आयोजित एक सम्मेलन में गूगल की खिल्ली उड़ाते हुए कहा कि सर्च इंजन के क्षेत्र मंे हो सकता है, उसने काफी उपलब्धि अर्जित कर ली हो लेकिन अगर वह पोर्टल लेकर आता है तो वह चौथे नंबर का पोर्टल होगा। संयोगवश, याहू को इंटरनेट का नंबर वन पोर्टल माना जाता है। सैमेम के इस बयान से गूगल के प्रति उनका भय, निराशा और आक्रामकता तीनों प्रकट होते हैं। उन्होंने कहा कि गूगल याहू की नकल करने की कोशिश कर रहा है और उसके उत्पादों व सेवाओं पर नजर डालें तो यह सिद्ध हो जाता है। लेकिन ये सब हड़बड़ी में उठाए गए कदम ही दिखते हैं। गूगल पर इस दूसरे स्पष्ट हमले के बाद अब याहू ने माइक्रोसॉफ्ट के साथ आकर तीसरा और दूरगामी परिणामों वाला धावा बोल दिया है। (लेखक प्रभासाक्षी डाटकाम के संपादक हैं)

Wednesday, November 9, 2011

प्रकाश पर्व की शुभकामनाएं- संजय द्विवेदी


गुरू नानक देव की जयंती पूरे देश में 10 नवंबर को प्रकाश पर्व के रूप में मनाई जाएगी। आप सभी को इस विशिष्ठ दिन की बधाई और शुभकामनाएं। भारतीय संत परंपरा में गुरू नानक का स्थान बहुत ऊंचा है, उन्होंने पूरी दुनिया को प्रेम और मानवता का पाठ पढ़ाया। सद्भावना के तीन संत अपने तत्कालीन समय को बहुत प्रभावित करते हैं उनमें नानक, कबीर और रहीम का हम नाम ले सकते हैं। प्रकाश पर्व की पुनः शुभकामनाएं।

Monday, November 7, 2011

Eid ul azha mubarak to all my dear students


-Sanjay Dwivedi
Today is the day of sacrifice..let us sacrifice our anger,greed and envy for the sake of love for Allah and humanity...Eid ul azha mubarak to all my dear students...may Allah bless you all.......ईद की खुशियां लें और दूसरों को भी खुश करें। सद्भावना और मैत्री ही हर त्यौहार का संदेश है। आइए साथ आएं और खुशियां मनाएं। त्यौहार की खुशियां बांटें और उन्हें भी साथ लें जिनके पास मुस्कराने के मौके बहुत कम आते हैं। कुर्बानी और त्याग का पाठ पढ़ाने वाला यह त्यौहार हर हिंदुस्तानी के मन में ऐसी भावनाएं पैदा करे, जिससे हम अपने वतन और समाज के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने का हौसला पा सकें।आप सबको ईदुज्जुहा की मुबारकबाद।

Sunday, November 6, 2011

पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिताः सिन्हा





भोपाल,5 नवंबर।
इंडिया पालिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक राकेश सिन्हा का कहना है कि पश्चिम की पत्रकारिता पूंजी की पत्रकारिता है जबकि भारतीय पत्रकारिता के मूल में पुरूषार्थ निहित है, क्योंकि भारतीय पत्रकारिता देश के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरणा पाती है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में प्रख्यात पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी की द्वितीय पुण्यतिथि(5 नवंबर,2011) पर उनकी स्मृति में आयोजित ‘मीडया का समाजशास्त्र’ विषय पर व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की।

दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर श्री सिन्हा ने कहा कि पश्चिमी संस्कृति हमारा आदर्श बन गयी है और हमने अपने गौरवशाली अतीत को बिसरा दिया है। उन्होंने कहा कि अब जरूरत इस बात की है कि वैकल्पिक पत्रकारिता के माध्यम से हम आज के ज्वलंत प्रश्नों के उत्तर तलाशें। यही पत्रकारिता देश के विकास का उद्यम बन सकती है। उनका कहना था कि स्थानीय संवाद को बढ़ाने का प्रयास इसी से सफल होगा और स्थानीय आकांक्षांएं मीडिया में अपनी जगह बना सकेंगीं।

श्री सिन्हा ने कहा कि नई पत्रकार पीढ़ी को चाहिए कि वह राष्ट्रीय प्रश्नों पर सामाजिक सरोकार पैदा करे तथा सामाजिक सरोकारों पर राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए। उनका कहना था कि आज के युग में भ्रम अधिक हैं, जिसके कारण आदर्श की बात करने वाले ज्यादा हैं किंतु आदर्श पर चलने वाले कम हो गए हैं।

कार्यक्रम के अध्यक्ष प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि वर्तमान पत्रकारिता के दोष और गुणों को देखते अपना ध्येय खुद तय करना होगा। ध्येयनिष्ठ पत्रकारिता के विकास से ही भारत विश्वशक्ति बनेगा। उनका कहना था कि स्व. प्रभाष जोशी एक ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने ताजिंदगी ध्येयनिष्ट पत्रकारिता की, उनकी स्मृति आज के युवा पत्रकारों का संबल बन सकती है। कार्यक्रम का संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। आरंभ में अतिथियों का स्वागत निदेशक-संबद्ध संस्थाएं दीपक शर्मा एवं मीता उज्जैन ने किया। कार्यक्रम में प्रो. आशीष जोशी, डा. पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्रपाल सिंह, राघवेंद्र सिंह, डा. आरती सारंग मौजूद रहे।

Friday, November 4, 2011

डा.राकेश सिन्हा का व्याख्यान 5को


भोपाल,4 नवंबर।
प्रभाष जोशी स्मृति व्याख्यान कल
प्रख्यात पत्रकार स्व. प्रभाष जोशी की द्वितीय पुण्यतिथि(5 नवंबर,2011) पर उनकी स्मृति में एक व्याख्यान का आयोजन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में किया गया है। इंडिया पालिसी फाउंडेशन के मानद निदेशक डा. राकेश सिन्हा 5 नवंबर,2011 को दिन में 11 बजे विश्वविद्यालय में ‘मीडया का समाजशास्त्र’ विषय पर व्याख्यान देंगे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें।
दिल्ली विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर डा. सिन्हा प्रख्यात स्तंभलेखक हैं और उनकी राजनीतिक संदर्भों पर कई पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। ‘राजनीतिक पत्रकारिता’ शीर्षक से भी उनकी एक महत्वपूर्ण किताब पत्रकारिता विश्वविद्यालय की शोध परियोजना के तहत प्रकाशित हो चुकी है।

Wednesday, November 2, 2011

वेब की नई भाषा पर उभरती चिंताएं

-बालेन्दु शर्मा दाधीच
इन दिनों तकनीकी दुनिया में वेब डेवलपमेंट की भाषा एचटीएमएल के ताजातरीन संस्करण (एचटीएमएल 5) के चर्चे जोरों पर है। कहा जा रहा है कि इसके प्रचलन में आने के बाद वेबसाइटों, पोर्टलों और वेब आधारित सेवाओं की शक्ल बदल जाएगी। वे ज्यादा उपयोगी, तेज.तर्रार और आकर्षक रूप ले लेंगी। एचटीएमएल 5 का एक दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें बनी कई सेवाओं को हम इंटरनेट कनेक्शन बंद होने के बाद भी इस्तेमाल कर सकेंगे। जैसे गूगल एप्स के तहत इंटरनेट के जरिए इस्तेमाल किए जाने वाले कुछ एप्लीकेशंस (गूगल डॉक्स, जीमेल, गूगल वीडियो आदि)। क्या यह आश्चयर्जनक नहीं लगता कि इंटरनेट कनेक्शन के बिना भी आप जीमेल का इस्तेमाल कर सकें? माना कि नई ईमेल बिना इंटरनेट कनेक्शन के नहीं आ सकती, लेकिन अब तक आई हुई सारी ईमेल को तो आप देख.पढ़ सकेंगे! साल भर पुराने किसी ईमेल संदेश के साथ आए अटैचमेंट की जरूरत पड़ गई? कोई बात नहीं इंटरनेट कनेक्शन के बिना ही डाउनलोड कर लीजिए!

एचटीएमएल 5 (हाइपर टेक्स्ट मार्कअप लैंग्वेज) वह बुनियादी भाषा है जिसे इंटरनेट एक्सप्लोरर, फायरफॉक्स और क्रोम जैसे ब्राउज़र समझ पाते हैं। वे इस तकनीकी भाषा में लिखी हुई इबारतों को इंसानों के समझने लायक वेब पेजों के रूप में दिखाते हैं। आपने पीएचपी, एएसपी॰नेट, जेएसपी, कोल्ड यूज़न और इनसे मिलती.जुलती कुछ और आधुनिक भाषाओं के बारे में सुना या पढ़ा होगा। ये भाषाएं सवर्र साइड भाषाएं कहलाती हैं और हमारा ब्राउज़र इन्हें नहीं समझता। जब इन भाषाओं में लिखे हुए कोड को वेब सवर्र द्वारा एचटीएमएल में बदलकर पेश किया जाता है, तभी वे इंटरनेट एक्सप्लोरर पर वेब पेजों की शक्ल में दिखाई देते हैं। चूंकि आप.हम अप्रत्यक्ष रूप से एचटीएमएल कोड को ही एक्सेस करते हैं इसलिए इस कोड की कमियां और अच्छाइयां सामान्य वेब उपयोक्ता को प्रभावित करती हैं।

वेब की यह नई भाषा वेबसाइटों में ड्रैग एंड ड्रॉप और वीडियो प्लेबैक जैसी सुविधाएं शामिल करना आसान बना देगी। आईफोन पर इसी तकनीक के जरिए ऑफलाइन जीमेल सुविधा की शुरूआत हो चुकी है।

एचटीएमएल 5 की जिस अच्छाई का हमने ऊपर जिक्र किया (ऑफलाइन ब्राउजि़ंग), वह इसलिए संभव हुई क्योंकि एचटीएमएल 5 उपयोक्ता के कंप्यूटर पर बड़ी मात्रा में डेटा स्टोर करके रखने में सक्षम है। इसके लिए लोकल डेटाबेस स्टोरेज नामक नई तकनीक की शुरूआत हुई है। इंटरनेट कनेक्शन बंद होने पर वही डेटा हमें उपलब्ध हो जाता है। लेकिन उसकी इसी 'अच्छाई' ने प्राइवेसी और सिक्यूरिटी के पंडितों की नींद हराम कर दी है क्योंकि आपके कंप्यूटर पर रखे गए डेटा को गलत तत्व भी एक्सेस कर सकते हैं। एचटीएमएल 5 से पहले भी वेबसाइटें आपके कंप्यूटर में 'कुकीज' के रूप में सीमित मात्रा में कुछ सूचनाएं स्टोर करके रखने में सक्षम थीं। लेकिन नई वेब भाषा की बात अलग है। इसमें 'एवरकुकी' भी शामिल है, जिसमें रखी हुई सूचनाओं को डिलीट करना बहुत मुश्किल है। इंटरनेट पर सक्रिय हैकरों और अपराधी तत्वों के लिए यह आपकी निजी सूचनाओं का खजाना सिद्ध हो सकता है।

ये सूचनाएं कैसी हो सकती हैं? बानगी देखिए. आपके द्वारा वेबसाइटों पर डाली गई जानकारी, आपके शहर या कस्बे संबंधी सूचनाएं, फोटो, इंटरनेट पर खरीदी गई वस्तुओं की जानकारी, आपके ईमेल संदेश और पिछले कई महीनों के दौरान आप जिस.जिस वेबसाइट पर गए उसकी जानकारी। सिद्धहस्त हैकर यही सूचनाएं पाने के लिए वायरसों और स्पाईवेयर का इस्तेमाल किया करते थे। क्या एचटीएमएल 5 उनका काम और आसान नहीं बना देगी? आज हम इंटरनेट ब्राउज़रों द्वारा स्टोर की गई सूचनाओं को बहुत आसानी से डिलीट कर सकते हैं। लेकिन 'एवरकुकी' जैसे कुकीज के मामले में यह आसान नहीं होगा क्योंकि वे इन सूचनाओं को चित्रों, लैश फाइलों या दूसरे फॉरमैट में भी रख सकते हैं। यहां तक कि डिलीट कर दिए गए डेटा को भी दोबारा पैदा करने में सक्षम हैं।

एचटीएमएल 5 का प्रायोगिक इस्तेमाल शुरू हो चुका है। बहुत जल्दी सभी वेब ब्राउज़र इसका समर्थन करने लगेंगे। इंटरनेट आपके लिए पहले से ज्यादा लुभावना हो जाएगा, मगर प्राइवेसी? अगर जरूरी संशोधन नहीं किए गए तो वेब की नई भाषा हम सबके लिए नई समस्याएं पैदा कर सकती है।
(लेखक प्रभासाक्षी डाट काम के संपादक हैं)

Wednesday, October 26, 2011

पत्रकारिता विश्वविद्यालय में उत्साह से मना दीपावली मिलन समारोह

एमसीयू में यूं मना दीवाली का उत्सव






भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के विकास भवन परिसर में दीवाली मिलन समारोह का आयोजन किया गया,जिसमें कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला सहित विश्वविद्यालय परिवार के कर्मचारी, अधिकारी एवं प्राध्यापक शामिल रहे। कार्यक्रम का संचालन सुश्री मीता उज्जैन ने किया।
कार्यक्रम में मां लक्ष्मी की पूजा अर्चना के बाद दीप जलाकर पटाखे चलाए गए। जिसमें सबने उत्साह से हिस्सा लिया। इस मौके पर कुलपति श्री कुठियाला ने अपने सारगर्भित भाषण में कहा कि दीपावली का त्यौहार सही मायने में प्रकाश को और ज्यादा बढ़ाने का त्यौहार है। हमें अपने आसपास, परिवेश में और वंचित जनों के जीवन में भी प्रकाश फैलाने का प्रयास करना चाहिए। यह चीज हमें हमारी परंपरा से मिली है जिसमें मनुष्य मात्र के सुख की कामना की गयी है और पूरे विश्व को एक परिवार माना गया है। यह त्यौहार हमें कई तरह की शिक्षा देता है जिसमें स्वच्छता से लेकर रामराज की कल्पनाएं भी शामिल हैं।

प्रकाश हर उस कोने तक पहुंचे जहां उसकी जरूरत सबसे ज्यादा है


आप सभी को दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं। मेरी कामना है कि आप सबका जीवन, मन और पूरा परिवेश एक सकारात्मक ऊर्जा से भर जाए। प्रकाश हर उस कोने तक पहुंचे जहां उसकी जरूरत सबसे ज्यादा है। हमारी जिंदगी रौशन हो और हम दूसरों को भी रौशनी देने में समर्थ हों। मेरी आसीम आकांक्षाओं के केंद्र आप हैं। आप के दम से ही यह जहां रौशन होना है। उम्मीद की किरणें फूटनी हैं और एक नया सवेरा लाना है। मैं आज के दिन आप सबके लिए प्रभु से प्रार्थना करता हूं कि वे आपको इतना समर्थ बनाएं जिससे आपकी मौजूदगी से आपके आसपास का परिवेश एक नई ऊर्जा का अहसास करे। आपको सद् विवेक और सच के साथ जीने का साहस मिले। बहुत शुभकामनाएं और ढेर सा प्यार....-संजय द्विवेदी

Tuesday, October 25, 2011

अंधकार को क्यों धिक्कारें अच्छा है एक दीप जला लें !


दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं, चहुंओर उजियारा फैलाने का संकल्प लें।-संजय द्विवेदी

Monday, October 24, 2011

धनतेरस की मुबारकबाद-संजय द्विवेदी



धनतेरस की आपको बहुत-बहुत मुबारकबाद। आपके घर में, मोहल्ले में, गांव में , देश में समृद्धि की रौशनी आए, सब सुखी हों। मेरा प्यार और ढेर सारी शुभकामनाएं। मां लक्ष्मी की कृपा आप पर बरसे। बस ध्यान रखें एक लक्ष्मी उल्लू पर बैठकर आती हैं दूसरी कमल पर, आपको कमल वाली लक्ष्मी चाहिए और उसी की कामना करें। आमीन।

जरूरी है चुनावी व्यवस्था की समीक्षा


-शिशिर सिंह

लोग केवल मजबूत लोकपाल नहीं चाहते वह चाहते हैं कि राइट टू रिजेक्ट को भी लागू किया जाए। हालांकि जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने की इस धारणा पर मिश्रित प्रतिक्रिया आई हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने इसे भारत के लिहाज से अव्यवहारिक बताया है। सही भी है ऐसे देश में जहाँ कानूनों के उपयोग से ज्यादा उनका दुरूप्रयोग होता हो, राइट टू रिजेक्ट अस्थिरता और प्रतिद्वंदिता निकालने की गंदी राजनीति का हथियार बन सकता है। लेकिन अगर व्यवस्थाओं में परिवर्तन चाहते हैं तो भरपूर दुरूप्रयोग हो चुकी चुनाव की मौजूदा व्यवस्था में परिवर्तन लाना ही पड़ेगा क्योंकि अच्छी व्यवस्था के लिए अच्छा जनप्रतिनिधि होना भी बेहद जरूरी है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी चुनावी व्यवस्था की नए सिर से समीक्षा करें।
दरअसल चुनाव अब पावर और पैसे का खेल बन गए हैं। यही इस व्यवस्था की बडी खामी बनकर उभर रहे हैं। पैसा निर्विवाद रूप से ऐसा संसाधन है जो साम दाम दंड़ भेद सहित सब जरूरतें पूरी करता है। इसलिए चुनाव लड़ने में होने वाला भारीभरकम खर्चा इस व्यवस्था की बड़ी खामी है। चुनाव आयोग के नवीनतम नियमों के अनुसार बडे राज्यों जैसे- उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश आदि में एक प्रत्याशी अधिकतम 25 लाख रूपये खर्च कर सकता है। चुनावों की रौनक बताती है कि प्रत्याशी को 25 लाख भी कम पड़ते होंगे। एक औसत आर्थिक हैसियत वाले व्यक्ति के लिए इतना खर्चा करना लगभग असंभव ही है। ऐसे में स्वाभाविक है कि धन की कमी के चलते एक अच्छा प्रत्याशी जनता के सामने न आ पाए। इसलिए इसको इस स्तर तक लाना बेहद जरूरी है कि प्रत्याशी को धन की कमी का रोना न पड़े। लेकिन कटौती से पहले सभी पहलुओं को पर विचार करना जरूरी है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक सबसे अधिक खर्चीला चुनाव प्रचार होता है। कटौती की स्थिति में यह सम्भव है कि बडे क्षेत्र का प्रत्याशी ढंग से प्रचार नहीं कर पाए जोकि अच्छी स्थिति नहीं है। इसलिए जरूरी है कि नए विकल्पों पर विचार किया जाए।
लोकसभा चुनावों को ही लें पहले लोकसभा चुनाव से पंद्रहवे लोकसभा चुनाव तक छह दशक बीत चुके हैं। तब जनसंख्या लगभग 36.11 करोड़ थी आज हम 1.21 करोड़ से अधिक हैं। मतलब एक जनप्रतिनिधि अब ज्यादा लोगों का प्रतिनिधि है। उत्तर भारत जिसकी जनसंख्या सबसे अधिक है उसकी स्थिति और भी खराब है। राज्यों की जनसंख्या के अनुसार वितरित सीटों की संख्या के अनुसार उत्तर भारत का प्रतिनिधित्व, दक्षिण भारत के मुकाबले काफी कम है। जहां दक्षिण के चार राज्यों- तमिलनाडु , आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और केरल को जिनकी संयुक्त जनसंख्या देश की जनसंख्या का सिर्फ 21% है, को 129 लोक सभा की सीटें आवंटित की गयी हैं जबकि, सबसे अधिक जनसंख्या वाले हिन्दी भाषी राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार जिनकी संयुक्त जनसंख्या देश की जनसंख्या का 25.1% है के खाते में सिर्फ 120 सीटें ही आती हैं। ये अव्यवहारिक है। होना यह चाहिए कि जनसंख्या के अनुपात में प्रतिनिधित्व भी बढ़े। इसलिए प्रतिनिधियों का बढ़ना जरूरी है। हालांकि मौजूदा व्यवस्था के तहत सीटों की संख्या बढ़ाई जा सकती है लेकिन इसकी अधिकतम सीमा 552 ही है। ये नाकाफी है। इसको और अधिक करने की जरूरत है। लोगों के लिए लोगों द्वारा चलाई जाने वाली इस व्यवस्था में हर नागरिक तो प्रतिनिधि नहीं हो सकता लेकिन प्रतिनिधित्व तो ज्यादा हो ही सकता है। इसके लिए परिसीमन छोटा करके सीटों की संख्या बढ़ा सकते हैं। यह इसलिए भी व्यवहारिक रहेगा क्योंकि क्षेत्रफल तो एक स्थायी रहने वाली चीज है लेकिन जनसंख्या और उसका घनत्व लगातार बढ़ ही रहा है। चुनावी क्षेत्र छोटा होने से खर्च सीमा को भी कम किया जा सकेगा और साथ ही साथ ज्यादा प्रतिनिधित्व भी सामने आएगा जो उचित अनुपात में लोगों की आंकाक्षाओं का प्रतिनिधित्व करेगा।

Friday, October 21, 2011

दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं-संजय द्विवेदी


आप सब घर जा रहे हैं, दीपों का त्यौहार दिवाली मनाने। विभाग आज से ही कितना सूना हो जाएगा। आपकी मौजूदगी से वास्तव में यहां कितनी उर्जा और रौशनी रहती है। अब यही उर्जा और रौशनी आपके घर और मोहल्ले में होगी। आप सबको आज से लगातार बहुत मिस करूंगा। आपके न होने पर आप सब और याद आते हैं। मेरी ओर से दीपावली और छठ पूजा की बहुत-बहुत बधाई। इन त्यौहारों के ठीक बाद 7 नवंबर को ईद-उल-जुहा का भी त्योहार है- उसकी भी बहुत बधाई। उम्मीद है कि आप इन सब त्यौहारों को बहुत अच्छे तरीके इंज्वाय करेंगें। मेरी बहुत शुभकामनाएं। समूचे परिवार और दोस्तों को भी मेरी तरफ से त्यौहारों की मुबारकबाद कहें। बहुत सारे विद्यार्थी जो अखबारों और अन्य मीडिया संस्थानों में काम कर रहे हैं उनकी दीवाली अलग होती है, क्योंकि मीडिया में इतनी लंबी छुट्टियां नहीं मिलती। उन सबको भी मुबारकबाद कि वे काम के साथ ही त्यौहारों का आनंद उठाएं। मुझे याद आता है कि तीन साल पहले जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ न्यूज चैनल में दशहरे के दिन और दिवाली के दिन भी मैने प्राइम टाइम के बुलेटिन पढ़े थे और उसके बाद घर जाकर दिए जलाए। किंतु इस नए काम में एक सप्ताह की तो छुट्टी है ही और आपके न आने तक सिर्फ आप सबका इंतजार ही है। एक बार फिर से शुभकामनाएं कि आपकी जिंदगी में इतना उजाला हो कि उसकी रौशनी से हम सब के मन भर जाएं। ढेर सा प्यार....
-संजय द्विवेदी

मुश्किल है इन यादों से दूर जानाः घर से दूर यूं बना एक परिवार


- देवाशीष मिश्रा
भोपाल छोड़ते वक्त वैसा ही एहसास हुआ, जैसा मुझे दो साल पहले फैज़ाबाद छोड़ते वक्त हुआ था। कब भोपाल और यहां के लोग मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गये पता ही नहीं चला। मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैं और शैलेन्द्र अपने हास्टल के सामने बैठकर ये प्लान कर रहे थे कि कैसे दो साल गुजारे जायेंगे, कितनी छुट्टियाँ होंगी और हम कितनी बार घर जायेंगे। अब हँसी आती है उस बात पर क्योंकि हमें यह नहीं पता था कि भोपाल भी हमारे घर जैसा होने वाला है, और हम एक बड़े परिवार (हमारी युनिवर्सिटी) का हिस्सा होने वाले हैं।
टीचर नहीं हमें मिले अभिभावकः हम बहुत भाग्यशाली रहे कि हमें संजय द्विवेदी सर और मोनिका मैम जैसे टीचर मिले। इनके होते हुए हमें भोपाल जैसे नये, अनजाने शहर में कभी भी अभिभावक की जरुरत महसूस नहीं हुई। पहले दो सेमेस्टर तक मैं मोनिका मैम से बहुत डरता था क्यों, ये आज तक नहीं पता चला। शायद मोनिका मैम की हर महीने होने वाली स्पेशल क्लास थी जिसमें वो सब्जेक्ट को छोड़ कर हम सभी को मीडिया से जुड़े करिअर में समस्याओं और परेशानियों के बारे में उदाहरण दे कर समझाती थीं, उनका इरादा कभी भी हमें डराने या मीडिया लाइन छोड़ने के लिए नहीं होता था। पर उन्हे जब भी लगता था हम पढ़ाई के प्रति लपरवाह हो रहें या डिपार्टमेन्ट में कोई कांड होता था तो वो ऐसी क्लास अचानक ले लेती थीं, और क्लास के अन्त में कई भयावह उदारण सुनने के बाद हमारे उतरे हुए चेहरे को देख कर कहती थीं, उदास क्यों हो गये हो तुम लोग, परेशान मत हो पढ़ाई पर ध्यान दो अपने लक्ष्य तय करो और उसके लिए आज से मेहनत करो।
मस्ती की पाठशालाः हम अगर किसी क्लास में सबसे ज्यादा मस्त होते थे तो वो थी संजय द्विवेदी सर की क्लास, कुछ ही विभागाध्यक्ष होंगे जिनके क्लास में इतने ठहाके लगते होंगे, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल भी की नहीं कि उनके क्लास में पढ़ाई नहीं होती थी। हर एक सामाजिक मुद्दे के गहरी समझ के साथ व्यावहारिकता का सांमजस्य उनके व्यक्तित्व का सबसे मजबूत पक्ष है। पत्रकारिता जगत की बारिकियों को हमने संजय सर से ही समझा। इन दोनों शिक्षकों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। इनके प्यार और सहयोग से आज हम सभी अपने उज्जवल भविष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं।................
हमारे दिलदार सीनियर्सः हमें दुनिया के सबसे अच्छे सीनियर मिले। 24 घंटों में हम उन्हें कभी भी परेशान कर सकते थे। रैगिंग क्या होती है, इस शब्द के अर्थों से हमारा परिचय कभी नहीं हुआ। मेरी कई रातें अपने सीनियर्स के साथ बहसों में गुजर जाती थीं। किसी भी मुद्दे पर छिड़ी बात पर रात भर तर्क और दलीलें दी जाती थीं। उस वक्त कोई भी हमें देखता तो सोचता की हम लड़ रहे हैं, लेकिन मुझे एहसास है कि कभी किसी ने किसी बात को व्यक्तिगत नहीं लिया। आज भी कई ऐसे मुद्दे रह गये हैं, जिन पर हम एकमत नहीं हो पाए हैं, लेकिन फिर भी हम एक दूसरे के विचारों का सम्मान व्यक्तिगत सोच मानकर करते हैं । अंतरराष्ट्रीय दर्शन, साहित्य और फिल्मों के प्रति जिज्ञासा और रुचि अगर मेरे मन में जागी तो उसके पीछे मेरे इन्हीं सीनियर्स की हाथ था ।
दोस्तों की दोस्ती और बिंदास जिंदगीः दोस्तों की क्या बात करूँ, भोपाल छोड़ते वक्त इनके बिछड़ने के गम ने तो रूला दिया। घर से दूर रह कर पढ़ाई करने में एक खास बात है कि कई बार आप को लगेगा कि आप 24 घंटे एक ही प्रकार की ज़िन्दगी जी रहे हैं। जो दोस्त कालेज में आपके साथ पूरा दिन बिताते हैं, शाम के बाद भी वही आप के साथ मस्ती करते, खाना खाते, पढ़ते वक्त भी साथ में होते हैं। यह बहुत अजीब लेकिन अद्वितीय अनुभव होता है। मैं चाय का शौकीन कभी नहीं रहा पर अपने दोस्तों (सीनियर्स और जूनियर्स भी शामिल) के साथ रात ग्यारह बजे से लेकर चार बजे तक कभी भी हबीबगंज स्टेशन चाय पीने निकल जाता था। फस्ट डे फस्ट शो, लेट नाइट शो, प्ले, म्यूजिकल नाइट शो ये सभी अनुभव मुझे भोपाल में ही अपने दोस्तों के साथ हुए। हम कई दोस्त इन्टर्नल एक्जाम से एक दिन पहले कैफे काफी डे काफी पीने जाते थे। काफी हाउस में बैठकर इतना फोटो सेशेन होता था कि माडल भी घबरा जायें। हमारा ऐसा मानना था कि ऐसा करने से पेपर अच्छा होता है (ऐसा सिर्फ मानना था बाकी पढ़ाई तो करनी ही पड़ती थी)। हम किराया एक मकान का देते थे लेकिन रहने के ठिकाने कई होते थे। सेकेन्ड सेमेस्टर एक्जाम से पहले पन्द्रह दिन तक पहले मैं अपने रूम पर नहीं रहा (क्योंकि गौरव और मयंक के रूम ज्यादा ठंडे थे)। अनगिनत रातें हमनें बातों में गुजारी (अगले दिन सभी क्लास में ज्माहाई लेते रहते थे)। हमारे हास्टल का एक खास प्रचलन था कि अगर कोई बीमार पड़ता था, और कई दिनों तक तबियत न ठीक हो रही हो तो उसे कम से कम 15-16 लड़के लेकर रात 2 बजे जबरदस्ती उठाकर सिटी हास्पिटल ले जाया जाते थे (रात में इतनी भीड़ देखकर हास्पिटल वाले घबरा जाते थे), और एक दो इन्जेक्शन लगवा दिए जाते थे, और इसके बाद हर कोई चंगा हो जाया करता था।
अब कुछ जूनियर्स की बातः इन सारी कहानी के एक बहुत अहम हिस्सा हमारे जूनियर्स भी हैं। सभी मस्त और बिंदास (जिनको मैं जानता और पहचानता था)। उनके यूनिवर्सिटी में कदम रखते ही, आंदोलनात्मक माहौल में हमने उनका स्वागत किया। प्रतिभा (वार्षिक खेल और सांस्कृतिक आधारित कार्यक्रम) में सबने अपनी प्रतिभा दिखाई (भले ही किसी प्रतियोगिता में भाग लिया हो या ना लिया हो)। मेरा विश्वास ही नहीं बल्कि यह दावा है कि वे सभी अपने करिअर में बहुत आगे जायेंगे। कुछ जूनियर्स के आने के बाद मुझे यह फायदा हुआ कि हर बृहस्पतिवार लड्डू खाने के लिए मिलने लगे( वो व्रत क्यों रहते थे ये बिना जाने)। व्रत से उनको कितना फायदा हुआ ये मुझे नहीं पता पर हाँ मुझे लड्डुओं का फायदा जरूर मिला( भगवान ऐसे जूनियर सभी को दें)
लेकिन ये सब अब पीछे छूट गया है, अब वैसे दिन फिर कभी नहीं आने वाले। हम सभी अपने- अपने करिअर का चुनाव करके, एक दूसरी जिन्दगी जीने के लिए अलग- अलग रास्तों पर चल पड़े हैं। हमने आज तक जो भी शिक्षा ग्रहण की है, उसको ज़िन्दगी की कसौटी पर तौलने का वक्त आ गया है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरे सभी दोस्त अपने अपने क्षेत्र में बेहतर से बेहतर काम करके अपनी एक अलग पहचान बनाएं।

Thursday, October 20, 2011

जनसंचार परिवार ने मनाया दीवाली मिलन




भोपाल। जनसंचार विभाग के छात्र-छात्राओं ने उत्साह से दीवाली मिलन का आयोजन किया। जिसमें कुलपति प्रो. बृजकिशोर भी शामिल हुए। आयोजन की शुरूआत गणेश वंदना से हुयी जिसे तृषा गौर, शिल्पा अग्रवाल और एस.स्नेहा ने संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया। इसके पश्चात अभिषेक झा ने विद्यापति की एक रचना पढ़ी। विकास गौर ने एक कविता सुनाई। योगिता राठौर ने जगजीत सिंह की गाई एक गजल पेश कर माहौल को भावुक कर दिया। एमएएमसी-थर्ड एवं वन के विद्यार्थियों ने एक-एक सामूहिक गीत प्रस्तुत किया। इसके अलावा सुमित रंजन, आस्था पुरी, रेखा पाल, नेहा,प्रतिभा, पूर्णिमा , अंकिता, एकता, अंकिता त्रिपाठी, मनीष दुबे ने भी विविध प्रस्तुत था। इस मौके पर कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि सरस्वती की पूजा से ही लक्ष्मी की प्राप्त होती है। उन्होंने कहा कि मां सरस्वती ही हमारी परंपरा में ज्ञान व विवेक की वाहक हैं।

दीपावली मिलन की तैयारियां