Friday, October 21, 2011

मुश्किल है इन यादों से दूर जानाः घर से दूर यूं बना एक परिवार


- देवाशीष मिश्रा
भोपाल छोड़ते वक्त वैसा ही एहसास हुआ, जैसा मुझे दो साल पहले फैज़ाबाद छोड़ते वक्त हुआ था। कब भोपाल और यहां के लोग मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गये पता ही नहीं चला। मुझे आज भी वो दिन याद है जब मैं और शैलेन्द्र अपने हास्टल के सामने बैठकर ये प्लान कर रहे थे कि कैसे दो साल गुजारे जायेंगे, कितनी छुट्टियाँ होंगी और हम कितनी बार घर जायेंगे। अब हँसी आती है उस बात पर क्योंकि हमें यह नहीं पता था कि भोपाल भी हमारे घर जैसा होने वाला है, और हम एक बड़े परिवार (हमारी युनिवर्सिटी) का हिस्सा होने वाले हैं।
टीचर नहीं हमें मिले अभिभावकः हम बहुत भाग्यशाली रहे कि हमें संजय द्विवेदी सर और मोनिका मैम जैसे टीचर मिले। इनके होते हुए हमें भोपाल जैसे नये, अनजाने शहर में कभी भी अभिभावक की जरुरत महसूस नहीं हुई। पहले दो सेमेस्टर तक मैं मोनिका मैम से बहुत डरता था क्यों, ये आज तक नहीं पता चला। शायद मोनिका मैम की हर महीने होने वाली स्पेशल क्लास थी जिसमें वो सब्जेक्ट को छोड़ कर हम सभी को मीडिया से जुड़े करिअर में समस्याओं और परेशानियों के बारे में उदाहरण दे कर समझाती थीं, उनका इरादा कभी भी हमें डराने या मीडिया लाइन छोड़ने के लिए नहीं होता था। पर उन्हे जब भी लगता था हम पढ़ाई के प्रति लपरवाह हो रहें या डिपार्टमेन्ट में कोई कांड होता था तो वो ऐसी क्लास अचानक ले लेती थीं, और क्लास के अन्त में कई भयावह उदारण सुनने के बाद हमारे उतरे हुए चेहरे को देख कर कहती थीं, उदास क्यों हो गये हो तुम लोग, परेशान मत हो पढ़ाई पर ध्यान दो अपने लक्ष्य तय करो और उसके लिए आज से मेहनत करो।
मस्ती की पाठशालाः हम अगर किसी क्लास में सबसे ज्यादा मस्त होते थे तो वो थी संजय द्विवेदी सर की क्लास, कुछ ही विभागाध्यक्ष होंगे जिनके क्लास में इतने ठहाके लगते होंगे, लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल भी की नहीं कि उनके क्लास में पढ़ाई नहीं होती थी। हर एक सामाजिक मुद्दे के गहरी समझ के साथ व्यावहारिकता का सांमजस्य उनके व्यक्तित्व का सबसे मजबूत पक्ष है। पत्रकारिता जगत की बारिकियों को हमने संजय सर से ही समझा। इन दोनों शिक्षकों से मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। इनके प्यार और सहयोग से आज हम सभी अपने उज्जवल भविष्य की ओर आगे बढ़ रहे हैं।................
हमारे दिलदार सीनियर्सः हमें दुनिया के सबसे अच्छे सीनियर मिले। 24 घंटों में हम उन्हें कभी भी परेशान कर सकते थे। रैगिंग क्या होती है, इस शब्द के अर्थों से हमारा परिचय कभी नहीं हुआ। मेरी कई रातें अपने सीनियर्स के साथ बहसों में गुजर जाती थीं। किसी भी मुद्दे पर छिड़ी बात पर रात भर तर्क और दलीलें दी जाती थीं। उस वक्त कोई भी हमें देखता तो सोचता की हम लड़ रहे हैं, लेकिन मुझे एहसास है कि कभी किसी ने किसी बात को व्यक्तिगत नहीं लिया। आज भी कई ऐसे मुद्दे रह गये हैं, जिन पर हम एकमत नहीं हो पाए हैं, लेकिन फिर भी हम एक दूसरे के विचारों का सम्मान व्यक्तिगत सोच मानकर करते हैं । अंतरराष्ट्रीय दर्शन, साहित्य और फिल्मों के प्रति जिज्ञासा और रुचि अगर मेरे मन में जागी तो उसके पीछे मेरे इन्हीं सीनियर्स की हाथ था ।
दोस्तों की दोस्ती और बिंदास जिंदगीः दोस्तों की क्या बात करूँ, भोपाल छोड़ते वक्त इनके बिछड़ने के गम ने तो रूला दिया। घर से दूर रह कर पढ़ाई करने में एक खास बात है कि कई बार आप को लगेगा कि आप 24 घंटे एक ही प्रकार की ज़िन्दगी जी रहे हैं। जो दोस्त कालेज में आपके साथ पूरा दिन बिताते हैं, शाम के बाद भी वही आप के साथ मस्ती करते, खाना खाते, पढ़ते वक्त भी साथ में होते हैं। यह बहुत अजीब लेकिन अद्वितीय अनुभव होता है। मैं चाय का शौकीन कभी नहीं रहा पर अपने दोस्तों (सीनियर्स और जूनियर्स भी शामिल) के साथ रात ग्यारह बजे से लेकर चार बजे तक कभी भी हबीबगंज स्टेशन चाय पीने निकल जाता था। फस्ट डे फस्ट शो, लेट नाइट शो, प्ले, म्यूजिकल नाइट शो ये सभी अनुभव मुझे भोपाल में ही अपने दोस्तों के साथ हुए। हम कई दोस्त इन्टर्नल एक्जाम से एक दिन पहले कैफे काफी डे काफी पीने जाते थे। काफी हाउस में बैठकर इतना फोटो सेशेन होता था कि माडल भी घबरा जायें। हमारा ऐसा मानना था कि ऐसा करने से पेपर अच्छा होता है (ऐसा सिर्फ मानना था बाकी पढ़ाई तो करनी ही पड़ती थी)। हम किराया एक मकान का देते थे लेकिन रहने के ठिकाने कई होते थे। सेकेन्ड सेमेस्टर एक्जाम से पहले पन्द्रह दिन तक पहले मैं अपने रूम पर नहीं रहा (क्योंकि गौरव और मयंक के रूम ज्यादा ठंडे थे)। अनगिनत रातें हमनें बातों में गुजारी (अगले दिन सभी क्लास में ज्माहाई लेते रहते थे)। हमारे हास्टल का एक खास प्रचलन था कि अगर कोई बीमार पड़ता था, और कई दिनों तक तबियत न ठीक हो रही हो तो उसे कम से कम 15-16 लड़के लेकर रात 2 बजे जबरदस्ती उठाकर सिटी हास्पिटल ले जाया जाते थे (रात में इतनी भीड़ देखकर हास्पिटल वाले घबरा जाते थे), और एक दो इन्जेक्शन लगवा दिए जाते थे, और इसके बाद हर कोई चंगा हो जाया करता था।
अब कुछ जूनियर्स की बातः इन सारी कहानी के एक बहुत अहम हिस्सा हमारे जूनियर्स भी हैं। सभी मस्त और बिंदास (जिनको मैं जानता और पहचानता था)। उनके यूनिवर्सिटी में कदम रखते ही, आंदोलनात्मक माहौल में हमने उनका स्वागत किया। प्रतिभा (वार्षिक खेल और सांस्कृतिक आधारित कार्यक्रम) में सबने अपनी प्रतिभा दिखाई (भले ही किसी प्रतियोगिता में भाग लिया हो या ना लिया हो)। मेरा विश्वास ही नहीं बल्कि यह दावा है कि वे सभी अपने करिअर में बहुत आगे जायेंगे। कुछ जूनियर्स के आने के बाद मुझे यह फायदा हुआ कि हर बृहस्पतिवार लड्डू खाने के लिए मिलने लगे( वो व्रत क्यों रहते थे ये बिना जाने)। व्रत से उनको कितना फायदा हुआ ये मुझे नहीं पता पर हाँ मुझे लड्डुओं का फायदा जरूर मिला( भगवान ऐसे जूनियर सभी को दें)
लेकिन ये सब अब पीछे छूट गया है, अब वैसे दिन फिर कभी नहीं आने वाले। हम सभी अपने- अपने करिअर का चुनाव करके, एक दूसरी जिन्दगी जीने के लिए अलग- अलग रास्तों पर चल पड़े हैं। हमने आज तक जो भी शिक्षा ग्रहण की है, उसको ज़िन्दगी की कसौटी पर तौलने का वक्त आ गया है। मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मेरे सभी दोस्त अपने अपने क्षेत्र में बेहतर से बेहतर काम करके अपनी एक अलग पहचान बनाएं।

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