Tuesday, August 4, 2009

विद्रोह ही युवा की पहचान - राजेंद्र यादव






हंसाक्षर ट्रस्ट की ओर से पहले की तरह ही इस बार मुंशी प्रेमचंद जयंती पर हंस पत्रिका की २४ वीं वार्षिक गोष्ठी का आयोजन हुआ. इस बार की गोष्ठी का 'युवा रचनाशीलता और नैतिक मूल्य' विषय पर आयोजित की गयी थी. हंस की यह संगोष्ठी साहित्य और साहित्येतर विषयों पर गम्भीर हस्तक्षेप करती रही हैं. भागीदारी के लिहाज से भी यह दिल्ली वालों के लिए महत्वपूर्ण होती है.इस मौके पर कथाकार मैत्रयी पुष्पा को सुधा साहित्य सम्मान - २००९ से प्रख्यात समालोचक नामवर सिंह ने सम्मानित किया. यह पुरस्कार लेखक शिवकुमार शिव द्वारा अपनी पुत्रवधू की याद में दिया जाता है.

नई दिल्ली के ऐवान-ए-ग़ालिब सभागार में गोष्ठी की शुरुआत में राजेंद्र यादव ने कहा कि वर्तमान परिस्थितियों से विद्रोह करना ही युवा होने की पहचान है. उन्होंने कहा कि दरअसल युवा अतीत के बोझ से मुक्त होने का नाम है. युवा पहले से बने बनाये मूल्यों से लड़ता भी है. अगर मूल्यों से चिपके रहते हैं तो आगे नहीं बढ़ सकते.

गोष्ठी की शुरुआत में पहले वक्ता और दलित युवा कथाकार अजय नावरिया ने कहा कि नैतिकता एक सापेक्ष और गतिशील अवधारणा है जो लगातार बदलती रहती है. उन्होंने समाज की ब्राहमणवादी व्यवस्था पर जमकर चोट करते हुए समाज के चार पुरुषार्थों धर्म, काम और मोक्ष को कटघरे में खड़ा किया. इस व्यवस्था में दलितों और स्त्रियों के लिए कोई जगह नहीं है. उन्होंने कहा कि आर्थिक अनैतिकता और कदाचार को भारतीय समाज में पूरी स्वीकृति मिल चुकी है. उन्होंने भारतीय समाज के नैतिक मूल्यों को हिन्दू धर्म का नैतिक मूल्य बताया. उन्होंने कहा कि साहित्य समाज के अंतिम पायदान पर खड़े आदमी का पक्ष लेता है. युवा रचनाशीलता का मूल्य प्रजातान्त्रिक होना चाहिए. उन्होंने कहा कि पुराने नैतिक मूल्यों को अब विदा करने का समय आ गया है. युवा आलोचक वैभव सिंह ने नैतिकता के साथ कट्टरता के सम्बन्ध को लेकर चिंता जताई.उन्होंने कहा कि आखिर यह कैसी नैतिकता है. हमारे यहाँ आठवीं सदी का समाज विद्यमान है. नैतिकता के अन्दर भी अनैतिकता छिपी रहती है. आज उसको पहचानने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि नई नैतिकता का समबन्ध नए सपने से होना चाहिए. समाज में जो परिवर्तन हो रहे हैं उससे हमारे मूल्य बदल रहे हैं.

युवा कथाकार अल्पना मिश्र ने साहित्य में युवा रचनाशीलता की बन रही जमीन की पड़ताल की. उन्होंने कहा आज के रचनाकार की रचनाओं का दायरा पहले से काफी व्यापक हुआ है. आज कथा साहित्य में विधाओं की हदबंदी टूट रही है. जीवन को समेटने के प्रयास में कथा साहित्य हर विधा में जा रहा है. एक और सच तो यह है कि साहित्य में जहाँ नयापन आ रहा है वही यथार्थ छूटता जा रहा है. एक ओर वैश्विक पूंजीवाद है तो दूसरी ओर समाज के एक बड़े तबके या यों कहे कि आदिवासियों पर बात करने वाला कोई नहीं है. यह समय मानव विरोधी है. यह समय युवा पीढी को दिग्भ्रमित कर रहा है और इसी को जीवन का सच मान लेने का प्रयास जारी है. हमारा युवा व्यवस्था का प्रतिरोध नहीं कर पा रहा है. अल्पना मिश्र ने कहा कि आज का रचनाकार हड़बड़ी में है और वह सतही यथार्थ, भाषा की कारीगिरी से लोगों को भरमा रहा है. आज फार्मूला कहानियों का चलन बढ़ता जा रहा है.

प्रख्यात कवि और आलोचक अशोक वाजपेयी ने कहा यह अराजक समय है. यह बहुलता का समय है. यह शायद और कुछ नहीं के बीच फंसी रचनाशीलता का समय है. वाजपेयी के अनुसार स्वतंत्रता समता और न्याय के नैतिक मूल्य एक लम्बे समय से हमारे समाज में विद्यमान है और ये समाज के नैतिक मूल्यों को परिभाषित करने की सच्ची कसौटी हो सकते हैं. उन्होंने कहा कि साहित्य में बहुत सारे परिवर्तन युवाओं ने ही किये है. 'कामायनी', अँधेरे में, सूरज का सातवाँ घोड़ा, अँधा युग, परख, सन्नाटा और शेखर एक जीवनी जैसी कालजयी रचनाओं के समय लेखक युवावस्था में ही थे. अब के दौर युवा रचनाकरों की भी भाषा, शिल्प , कथ्य और नजरिये में फर्क दिख रहा है. हालाँकि उन्होंने कहा कि युवा प्रतिभाओं की जितनी सक्रियता ललित कला के क्षेत्र में है उतनी साहित्य के क्षेत्र में नहीं है.

सुप्रसिद्ध लेखिका अरुंधती राय ने कहा कि समाज में नैतिकता जान ग्रे के शब्दों में कपड़ों की तरह बदलती रहती है. उन्होंने कहा कि अतीत में विश्व में जितने भी नरसंहार हुए वे सब नैतिकता के नाम पर हुए. लेखा का मूल काम सोंच और लेखन के बीच की दूरी को बांटना है. न्याय का अर्थ मानवाधिकार तक और लोकतंत्र का अर्थ चुनाव सीमित कर दिया गया है. उन्होंने कहा कि संवाद के लिए भाषा बेहद जरूरी है. इसको सीखे बिना आदमी अपने हक की लड़ाई नहीं लड़ सकता है.

गोष्ठी की अध्यक्षता कर रहे प्रख्यात आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि आज हंस संस्थापक मुंशी प्रेमचंद की जयंती भी है लेकिन किसी वक्ता ने उनका जिक्र तक नहीं किया. यह बहुत खेद की बात है. उन्होंने अजय नावरिया के संपादन में निकले 'नयी नज़र का नया नजरिया' विशेषांक की जमकर धज्जियाँ उड़ाई. उन्होंने कहा कि हमें राजनीति की तर्ज़ पर साहित्य में चालू किस्म के नारों से परहेज करना चाहिए. महज युवा होना नैतिकता की जमीन पर सुरक्षित नहीं करता है. युवा रचनाशीलता के नाम पर किसी का वरण करने से पहले इस बात की पड़ताल आवश्यक है कि रचनाकार में भाषा की तमीज है या नहीं है? हिंदी में हर दशक के बाद एक नई पीढी आती रही है. पर उसके नैतिक रूप से सही होने का निर्णय देने से पहले हमें प्रेमचंद के सूत्र वाक्य हम किसके साथ खड़े हैं को ध्यान में रखना चाहिए क्योंकि बाहर से युवा दिखने वालों में कई 'एचोड़ पाका' होते हैं जिनके भीतर पोंगापंथी और सडांध होती है. कार्यक्रम में आबुधाबी से आये कथाकार कृष्ण बिहारी ने निकट पत्रिका का नया अंक राजेंद्र यादव को भेंट किया. कार्यक्रम का सफल संचालन संजीव कुमार ने किया. कार्यक्रम में बड़ी संख्या में प्रबुद्धजनों की उपस्थिति रही.
- अशोक मिश्र की रिपोर्ट

No comments:

Post a Comment