माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Wednesday, December 29, 2010
बात तो साफ हुई कि मीडिया देवता नहीं है
-संजय द्विवेदी
यह अच्छा ही हुआ कि यह बात साफ हो गयी कि मीडिया देवता नहीं है। वह तमाम अन्य व्यवसायों की तरह ही उतना ही पवित्र व अपवित्र होने और हो सकने की संभावना से भरा है। 2010 का साल इसलिए हमें कई भ्रमों से निजात दिलाता है और यह आश्वासन भी देकर जा रहा है कि कम से कम अब मीडिया के बारे में आगे की बात होगी। यह बहस मिशन और प्रोफेशन से निकलकर बहुत आगे आ चुकी है।
इस मायने में 2010 एक मानक वर्ष है जहां मीडिया बहुत सारी बनी-बनाई मान्यताओं से आगे आकर खुद को एक अलग तरह से पारिभाषित कर रहा है। वह पत्रकारिता के मूल्यों, मानकों और परंपराओं का भंजन करके एक नई छवि गढ़ रहा है, जहां उससे बहुत नैतिक अपेक्षाएं नहीं पाली जा सकती हैं। कुछ अर्थों में अगर वह कोई सामाजिक काम गाहे-बगाहे कर भी गया तो वह कारपोरेट्स के सीएसआर (कारपोरेट सोशल रिस्पांस्बिलिटी) के शौक जैसा ही माना जाना चाहिए। मीडिया एक अलग चमकीली दुनिया है। जो इसी दशक का अविष्कार और अवतार है। उसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में मत खोजिए, यह दरअसल बाजारवाद के नए अवतार का प्रवक्ता है। यह उत्तरबाजारवाद है। इसे मूल्यों, नैतिकताओं, परंपराओं की बेड़ियों में मत बांधिए। यह अश्वमेघ का धोड़ा है,जो दुनिया को जीतने के लिए निकला है। देश में इसकी जड़ें नहीं हैं। वह अब संचालित हो रहा है नई दुनिया के,नए मानकों से। इसलिए उसे पेडन्यूज के आरोपो से कोई उलझन, कोई हलचल नहीं है, वह सहज है। क्योंकि देने और लेने वालों दोनों के लक्ष्य इससे सध रहे हैं। लोकतंत्र की शुचिता की बात मत ही कीजिए। यह नया समय है,इसे समझिए। मीडिया अब अपने कथित ग्लैमर के पीछे भागना नहीं चाहता। वह लाभ देने वाला व्यवसाय बनना चाहता है। उसे प्रशस्तियां नहीं चाहिए, वह लोकतंत्र के तमाम खंभों की तरह सार्वजनिक या कारपोरेट लूट में बराबर का हिस्सेदार और पार्टनर बनने की योग्यता से युक्त है।
मीडिया का नया कुरूक्षेत्रः
मीडिया ने अपने कुरूक्षेत्र चुन लिए हैं। अब वह लोकतंत्र से, संवैधानिक संस्थाओं से, सरकार से टकराता है। उस पर सवाल उठाता है। उसे कारपोरेट से सवाल नहीं पूछने, उसे उन लोगों से सवाल नहीं पूछने जो मीडिया में बैठकर उसकी ताकत के व्यापारी बने हैं। वह सवाल खड़े कर रहा है बेचारे नेताओं पर,संसद पर जो हर पांच साल पर परीक्षा के लिए मजबूर हैं। वह मदद में खड़ा है उन लोगों के जो सार्वजनिक धन को निजी धन में बदलने की स्पर्धा में जुटे हैं। बस उसे अपना हिस्सा चाहिए। मीडिया अब इस बंदरबांट पर वाच डाग नहीं वह उसका पार्टनर है। उसने बिचौलिए की भूमिका से आगे बढ़कर नेतृत्व संभाल लिया है। उसे ड्राइविंग सीट चाहिए। अपने वैभव, पद और प्रभाव को बचाना है तो हमें भी साथ ले लो। यह चौथे खंभे की ताकत का विस्तार है। मीडिया ने तय किया है कि वह सिर्फ सरकारों का मानीटर है, उसकी संस्थाओं का वाच डाग है। आप इसे इस तरह से समझिए कि वह अपनी खबरों में भी अब कारपोरेट का संरक्षक है। उसके पास खबरें हैं पर किनकी सरकारी अस्पतालों की बदहाली की, वहां दम तोड़ते मरीजों की,क्योंकि निजी अस्पतालों में कुछ भी गड़ब़ड़ या अशुभ नहीं होता। याद करें कि बीएसएनएल और एमटीएनएल के खिलाफ खबरों को और यह भी बताएं कि क्या कभी आपने किसी निजी मोबाइल कंपनी के खिलाफ खबरें पढ़ी हैं। छपी भी तो इस अंदाज में कि एक निजी मोबाइल कंपनी ने ऐसा किया। शिक्षा के क्षेत्र में भी यही हाल है। सारे हुल्लड़-हंगामे सरकारी विश्वविद्यालयों, सरकारी कालेजों और सरकारी स्कूली में होते हैं- निजी स्कूल दूध के धुले हैं। निजी विश्वविद्यालयों में सारा कुछ बहुत न्यायसंगत है। यानि पूरा का पूरा तंत्र,मीडिया के साथ मिलकर अब हमारे जनतंत्र की नियामतों स्वास्थ्य, शिक्षा और सरकारी तंत्र को ध्वस्त करने पर आमादा है। साथ ही निजी तंत्र को मजबूत करने की सुनियोजित कोशिशें चल रही हैं। मीडिया इस तरह लोकतंत्र के प्रति, लोकतंत्र की संस्थाओं के प्रति अनास्था बढ़ाने में सहयोगी बन रहा है, क्योंकि उसके व्यावसायिक हित इसमें छिपे हैं। व्यवसाय के प्रति लालसा ने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है। मीडिया संस्थान,विचार के नकली आरोपण की कोशिशों में लगे हैं ।यह मामला सिर्फ चीजों को बेचने तक सीमित नहीं है वरन पूरे समाज के सोच को भी बदलने की सचेतन कोशिशें की जा रही हैं। शायद इसीलिए मीडिया की तरफ देखने का समाज का नजरिया इस साल में बदलता सा दिख रहा है।
यह नहीं हमारा मीडियाः
इस साल की सबसे बड़ी बात यह रही कि सूचनाओं ने, विचारों ने अपने नए मुकाम तलाश लिए हैं। अब आम जन और प्रतिरोध की ताकतें भी मानने लगी हैं मुख्यधारा का मीडिया उनकी उम्मीदों का मीडिया नहीं है। ब्लाग, इंटरनेट, ट्विटर और फेसबुक जैसी साइट्स के बहाने जनाकांक्षाओं का उबाल दिखता है। एक अनजानी सी वेबसाइट विकिलीक्स ने अमरीका जैसी राजसत्ता के समूचे इतिहास को एक नई नजर से देखने के लिए विवश कर दिया। जाहिर तौर पर सूचनाएं अब नए रास्तों की तलाश में हैं. इनके मूल में कहीं न कहीं परंपरागत संचार साधनों से उपजी निराशा भी है। शायद इसीलिए मुख्यधारा के अखबारों, चैनलों को भी सिटीजन जर्नलिज्म नाम की अवधारणा को स्वीकृति देनी पड़ी। यह समय एक ऐसा इतिहास रच रहा है जहां अब परंपरागत मूल्य, परंपरागत माध्यम, उनके तौर-तरीके हाशिए पर हैं। असांजे, नीरा राडिया, डाली बिंद्रा,, राखी सावंत, शशि थरूर, बाबा रामदेव, राजू श्रीवास्तव जैसे तमाम नायक हमें मीडिया के इसी नए पाठ ने दिए हैं। मीडिया के नए मंचों ने हमें तमाम तरह की परंपराओं से निजात दिलाई है। मिथकों को ध्वस्त कर दिया है। एक नई भाषा रची है। जिसे स्वीकृति भी मिल रही है। बिग बास, इमोशनल अत्याचार, और राखी का इंसाफ को याद कीजिए। जाहिर तौर पर यह समय मीडिया के पीछे मुड़कर देखने का समय नहीं है। यह समय विकृति को लोकस्वीकृति दिलाने का समय है। इसलिए मीडिया से बहुत अपेक्षाएं न पालिए। वह बाजार की बाधाएं हटाने में लगा है। तो आइए एक बार फिर से हम हमारे मीडिया के साथ नए साल के जश्न में शामिल हो जाएं।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
Wednesday, December 22, 2010
आज मां ने फिर याद किया
- अंकुर विजयवर्गीय
भूली बिसरी चितराई सी
कुछ यादें बाकी हैं अब भी
जाने कब मां को देखा था
जाने उसे कब महसूस किया
पर , हां आज मां ने फिर याद किया ।।।
बचपन में वो मां जैसी लगती थी
मैं कहता था पर वो न समझती थी
वो कहती की तू बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
मुझे तुझकों बडा बनाना है
सबसे आगे ले जाना है
पर मैं तो प्यार का भूखा था
पैसे की बात न सुनता था
वो कहता थी मैं लडता था
वो जाती थी मैं रोता था
मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया
मां की आंखों से दूर गया
सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया
जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया
पर, हां आज मां फिर ने याद किया ।।।
मैं बडा हुआ पैसे लाया
पर मां को पास न मैने पाया
सोचा पैसे से जिंदगी चलती है
वो मां के बिना न रूकती है
पर प्यार नहीं मैंने पाया
पैसे से जीवन न चला पाया
मैंने बोला मां को , अब तू साथ मेरे ही चल
पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल
मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा
पर मां तो मां जैसी ही थी
वो कैसे बदल ही सकती थी
उसको अब भी मेरी चिंता थी
उसने फिर से वही जवाब दिया
की तू अब भी बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
सोचा कि मैंने अब तो मां को खो ही दिया
पर, हां आज मां ने फिर याद किया ।।।
भूली बिसरी चितराई सी
कुछ यादें बाकी हैं अब भी
जाने कब मां को देखा था
जाने उसे कब महसूस किया
पर , हां आज मां ने फिर याद किया ।।।
बचपन में वो मां जैसी लगती थी
मैं कहता था पर वो न समझती थी
वो कहती की तू बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
मुझे तुझकों बडा बनाना है
सबसे आगे ले जाना है
पर मैं तो प्यार का भूखा था
पैसे की बात न सुनता था
वो कहता थी मैं लडता था
वो जाती थी मैं रोता था
मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया
मां की आंखों से दूर गया
सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया
जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया
पर, हां आज मां फिर ने याद किया ।।।
मैं बडा हुआ पैसे लाया
पर मां को पास न मैने पाया
सोचा पैसे से जिंदगी चलती है
वो मां के बिना न रूकती है
पर प्यार नहीं मैंने पाया
पैसे से जीवन न चला पाया
मैंने बोला मां को , अब तू साथ मेरे ही चल
पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल
मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा
पर मां तो मां जैसी ही थी
वो कैसे बदल ही सकती थी
उसको अब भी मेरी चिंता थी
उसने फिर से वही जवाब दिया
की तू अब भी बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
सोचा कि मैंने अब तो मां को खो ही दिया
पर, हां आज मां ने फिर याद किया ।।।
Saturday, December 4, 2010
सूचनाएं उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों पर
- संजय द्विवेदी
सूचनाएं अब मुक्त हैं। वे उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों। कई बार वे असंपादित भी हैं, पाठकों को आजादी है कि वे सूचनाएं लेकर उसका संपादित पाठ स्वयं पढ़ें। सूचना की यह ताकत अब महसूस होने लगी है। विकिलीक्स के संस्थापक जूलियन असांजे अब अकेले नहीं हैं, दुनिया के तमाम देशों में सैकड़ों असांजे काम कर रहे हैं। इस आजादी ने सूचनाओं की दुनिया को बदल दिया है। सूचना एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गयी है। क्योंकि वह उसी रूप में प्रस्तुत है, जिस रूप में उसे पाया गया है। ऐसी असंपादित और तीखी सूचनाएं एक असांजे के इंतजार में हैं। ये दरअसल किसी भी राजसत्ता और निजी शक्ति के मायाजाल को तोड़कर उसका कचूमर निकाल सकती हैं। क्योंकि एक असांजे बनने के लिए आपको अब एक लैपटाप और नेट कनेक्शन की जरूरत है। याद करें विकिलीक्स के संस्थापक असांजे भी एक यायावर जीवन जीते हैं। उनके पास प्रायः एक लैपटाप और दो पिठ्ठू बैग ही रहते हैं।
इस समय, सूचना नहीं सूचना तंत्र की ताकत के आगे हम नतमस्तक खड़े हैं। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि ‘मीडियम इज द मैसेज’ यानी ‘माध्यम ही संदेश है।’ मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। विकिलीक्स नाम की वेबसाइट इसका प्रमाण है जिसने पूरी दुनिया सहित सबसे मजबूत अमरीकी सत्ता को हिलाकर रख दिया है। एक लोकतंत्र होने के नाते अमरीकी कूटनीति के अपने तरीके हैं और वह दुनिया के भीतर अपनी साफ छवि बनाए रखने के लिए काफी जतन करता है। किंतु विकिलीक्स की विस्फोटक सूचनाएं उसके इस प्रयास को तार-तार कर देती हैं। हेलेरी क्लिंटन की बौखलाहट को इसी परिपेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
अमरीका कुछ भी कहे या स्थापित करने का प्रयास करे, किंतु पूरी दुनिया का नजरिया उसकी ओर देखने का अलग ही है। इन खुलासों में उसे बहुत नुकसान होगा यह तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसके बारे में ऐसी सूचनाएं अब तक दबी जुबान से कही जाती रही हैं, विकिलीक्स ने उस पर मुहर लगा दी है। सही मायने में यह सूचनाओं की विलक्षण आजादी का समय है। इंटरनेट ने सीमाओं को तोड़कर संवाद को जिस तरह सहज बनाया है, उसने संचार को सही मायने में लोकतांत्रिक बना दिया है। इस स्पेस को मजबूत से मजबूत सत्ताएं भेद नहीं सकतीं। विकिलीक्स से लेकर हिंदुस्तान में तहलका जैसे प्रयोग इसके प्रमाण हैं। आज ये सूचनाएं जिस तरह सजकर सामने आ रही हैं कल तक ऐसा करने की हम सोच भी नहीं सकते थे। संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होगी। जर्मनी को याद करें तो उसने पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के पूर्व जो ऐतिहासिक जीतें दर्जे की वह उसकी चुस्त-दुरुस्त टेलीफोन व्यवस्था का ही कमाल था। सूचना आज एक तीक्ष्ण और असरदायी हथियार बन गई है।
सत्तर के दशक में तो पूंजीवादी एवं साम्यवादी व्यवस्था के बीच चल रही बहस और जंग इसी सूचना तंत्र पर लड़ी गई, एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल होता यह सूचना तंत्र आज अपने आप में एक निर्णायक बन गया है। समाज-जीवन के सारे फैसले यह तंत्र करवा रहा है। सच कहें तो इन्होंने अपनी एक अलग समानांतर सत्ता स्थापित कर ली है। रूस का मोर्चा टूट जाने के बाद अमरीका और उसके समर्थक देशों की बढ़ी ताकत ने सूचना तंत्र के एकतरफा प्रवाह को ही बल दिया है। सूचना तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण ने अमरीकी राजसत्ता और उसके समर्थकों को एक कुशल व्यापारी के रूप में प्रतिष्ठित किया है। बाजार और सूचना के इस तालमेल में पैदा हुआ नया चित्र हतप्रभ करने वाला है। पूंजीवादी राजसत्ता इस खेल में सिंकदर बनी है। ये सूचना तंत्र एवं पूंजीवादी राजसत्ता का खेल आप खाड़ी युद्ध और उसके बाद हुई संचार क्रांति से समझ सकते हैं। आज तीसरी दुनिया को संचार क्रांति की जरूरतों बहुत महत्वपूर्ण बताई जा रही है। अस्सी के दशक तक जो चीज विकासशील देशों के लिए महत्व की न थी वह एकाएक महत्वपूर्ण क्यों हो गई । खतरे का बिंदू दरअसल यही है। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी रही हैं।
लेकिन ध्यान दें कि सूचनाएं अब पश्चिम के ताकतवर देशों की बंधक नहीं रह सकती। उन्होंने अपना निजी गणतंत्र रच लिया है। वे उड़ रही हैं। ताकतवरों की असली कहानियां कह रही हैं। वे बता रही हैं- अमरीका किस तरह का जनतंत्र है। उसकी कथनी और करनी के अंतर क्या हैं। यह दरअसल सूचनाओं का लोकतंत्र है। इसका स्वागत कीजिए। क्योंकि किसी भी देश में अगर लोकतंत्र है तो उसे सूचनाओं के जनतंत्र का स्वागत करना ही पड़ेगा। अब सूचनाएं अमरीका और पश्चिमी मीडिया कंपनियों की बंधक नहीं रहीं, वे आकाश मार्ग से आ रही हैं हमको, आपको, सबको आईना दिखाने। वह बताने के लिए कि जो हम नहीं जानते। इसलिए विकिलीक्स के खुलासों पर चौंकिए मत, नीरा राडिया के फोन टेपों पर आश्चर्य मत कीजिए, अब यह सिलसिला बहुत आम होने वाला है। फेसबुक ब्लाग और ट्विटर ने जिस तरह सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है उससे प्रभुवर्गों के सारे रहस्य लोकों की लीलाएं बहुत जल्दी सरेआम होगीं। काले कारनामों की अंधेरी कोठरी से निकलकर बहुत सारे राज जल्दी ही तेज रौशनी में चौंधियाते नजर आएगें। बस हमें, थोड़े से जूलियन असांजे चाहिए।
Thursday, December 2, 2010
जनसंचार विभाग में पत्रकार रोशन का स्वागत
अखबारों में अभी अच्छा काम करने की गुंजाइश: रोशन
राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ पत्रकार रोशन जनसंचार विभाग में
भोपाल। मीडिया में प्रतिस्पर्धा बहुत तेजी से बढ़ी है, अब पत्रकार के लिए रचनात्मकता दिखाने की गुंजाइश नाममात्र ही बची है। लेकिन अखबारों में अभी भी रचनात्मक कार्यों के लिए स्थान है। यह बात कही दैनिक राष्ट्रीय सहारा के दिल्ली ब्यूरो प्रमुख रोशन ने। वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के जनसंचार विभाग में विद्यार्थियों को सम्बोधित कर रहे थे।
उन्होंने बताया कि पत्रकार के सामाजिक एवं निजी जीवन के बीच काफी महीन अंतर रह जाता है। क्योंकि जिस तरह का ये पेशा है उसमें काम करने वाले को काफी समर्पित रहने की आवश्यकता होती है। इस दौरान विद्यार्थियों ने उनसे प्रश्न भी पूछे। एक प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जैसे-जैसे पत्रकारिता में व्ययवसायीकरण बढ़ा है, उतनी तेजी से भ्रष्टाचार भी बढ़ा है। अपनी कठिनाई के दिनों का अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि कठिन समय ही सबसे अच्छा शिक्षक साबित होता है। विद्यार्थियों को चाहिए कि वह शुरुआती दौर में निराश होने के बजाय सब्र और संयम से काम लें। इस दौरान विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, डॉ.मोनिका वर्मा, सदीप भट्ट एवं विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय मौजूद रहे। कार्यक्रम के प्रारंभ में छात्रा शालिनी ने श्री रोशन का स्वागत किया।
चुनौतियां बहुत हैं इलेक्ट्रानिक मीडिया में
- मनोज मनु ने की जनसंचार के विद्यार्थियों से बातचीत
भोपाल। बेशक इलेक्ट्रानिक मीडिया में चुनौतियां तो बढ़ी हैं, पर अभी भी इस क्षेत्र में अच्छे लोगों की कमी है। मीडिया के विद्यार्थियों को चाहिए कि वह इस कमी को दूर करें। ये विचार प्रख्यात एंकर एवं सहारा समय-छत्तीसगढ़ -मध्य प्रदेश के चैनल प्रमुख मनोज मनु ने माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के विद्यार्थियों को सम्बोधित करते हुए व्यक्त किए।
अपने संक्षिप्त भाषण में श्री मनु ने अपने कार्यक्षेत्र के अनुभव बांटे और विद्यार्थियों के प्रश्नों के भी उत्तर दिए। मीडिया की मौजूद स्थिति के बारे में पूछे गए प्रश्न का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रानिक मीडिया के कार्यक्रमों की रुपरेखा अभी टीआरपी के अनुसार तय हो रही है। लेकिन मीडिया प्रबंधक भी टीआरपी के इस गणित से संतुष्ट नहीं है और चैनल,कार्यक्रम की रेटिंग के अन्य विकल्पों की तलाश की जा रही है। कार्यक्रम की शुरुआत में बीएएमसी की छात्रा सोमैया युसुफ ने पुष्प-गुच्छ देकर श्री मनु का स्वागत किया। सहारा समय के ब्यूरो प्रमुख वीरेन्द्र शर्मा भी इस दौरान मौजूद रहे। उनका स्वागत बीएएमसी के छात्र सद्दाम हुसैन मंसूरी ने किया। इस दौरान विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी, डॉ.मोनिका वर्मा, सदीप भट्ट एवं प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय मौजूद रहे।
Wednesday, December 1, 2010
स्वागत भाषण करते हुए संजय द्विवेदी
श्री जयंतो खान का स्वागत
संजीव सिन्हा का स्वागत
हर रंग की है अपनी कहानीः जयंतो खान
बदलते मीडिया और उसकी जरूरतों को समझना जरूरी
भोपाल, 29 नवंबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में आयोजित एक कार्यक्रम में देश के दो ख्यातिनाम पत्रकारों ने विद्यार्थियों से अपने अनुभव बांटे। ये मेहमान थे बंगला पत्रिका ‘लेट्स गो’एवं ‘साइबर युग’के प्रधान सम्पादक जयंतो खान (कोलकाता) एवं प्रवक्ता डॉट काम के प्रधान सम्पादक संजीव सिन्हा ( दिल्ली)।
पत्रकार जयंतो खान ने विद्यार्थियों को अखबार व पत्र-पत्रिकाओं की साज-सज्जा के बारे में जानकारी दी। रंगों का विज्ञान समझाते हुए उन्होंने हर रंग की विशेष अपील एवं प्रभावों के बारे में बताया। पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों में इस्तेमाल होने वाली छपाई तकनीक के राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के बारे में भी जानकारी दी। इसके अलावा उन्होंने विजुअलाइजेशन, और ग्राफिक्स के बारे में भी छात्रों को जानकारी देते कहा कि बदलते मीडिया और उसकी जरूरतों को जानना बहुत जरूरी है।
प्रवक्ता डॉट काम के सम्पादक संजीव सिन्हा ने बेव पत्रकारिता के बारे में जानकारी दी। अपने अनुभव बांटते हुए उन्होंने कहा कि जो तेजी इस माध्यम में है वह मीडिया की अभी अन्य किसी विधा में नहीं है। यही तेजी इस माध्यम के लिए वरदान है। छात्रों ने बेव पत्रकारिता से जुडी जानकारियों के अलावा इससे जुड़े विभिन्न आयामों जैसे- विश्वसनीयता, सामग्री आदि के बारे में भी प्रश्न पूछे। उन्होंने कहा वेब पत्रकारिता सबसे नया किंतु सबसे प्रभावी माध्यम साबित होने जा रही है। इसने जहां परंपरागत समाचार माध्यमों को कड़ी चुनौती दी है वहीं अपनी बहुआयामी उपयोगिता से यह नई पीढ़ी का सबसे प्रिय माध्यम है। आज भले हमारे पुस्तकालय खाली हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं। यह माध्यम बहुत जल्दी जिंदगी में भी एक खास जगह बना लेगा। कार्यक्रम के प्रारंभ में विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने अतिथियों का स्वागत किया। इस मौके पर विश्वविद्यालय के प्रकाशन अधिकारी सौरभ मालवीय, राकेश ठाकुर खासतौर पर मौजूद रहे। आरंभ में अतिथियों को पुष्पगुच्छ देकर विभाग की छात्राओं नीतिशा कश्यप और अमृता राज ने स्वागत किया।
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