Friday, February 25, 2011

विभाग में व्याख्यान देते हुए आईटी विशेषज्ञ भारतभूषण

इंटरनेट एक योग्य शिक्षकः भारत भूषण


भोपाल, 25 फरवरी। आज के समय में ऐसी कोई सूचना नहीं है जो इंटरनेट पर उपलब्ध न हो। इंटरनेट की सामान्य जानकारी रखकर आप किसी भी विषय में विशेषज्ञता हासिल कर सकते हैं।
यह कहना है लीगल इंडिया डाट काम एवं प्रवक्ता डॉट काम के प्रबंध निदेशक भारतभूषण का। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा अंडरस्टेडिंग इंटरनेट एंड प्रिंट मीडिया विषय पर आयोजित कार्यशाला में बोल रहे थे। उन्होंने इंटरनेट की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि समाज में इंटरनेट योग्य शिक्षक की भूमिका निभा रहा है। उन्होंने पावर पांइट के माध्यम से विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों को सर्च इंजन की विस्तृत जानकारी दी जिससे की छात्र बिना समय नष्ट किए बिना अपने विषय की सही व सटीक जानकारी हासिल कर सकते हैं।
कार्यशाला के दूसरे सत्र में लांचिग ऑफ न्यूजपेपर विषय पर अपने विचार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार डा. शशिभूषण (शिमला) ने कहा कि मीडिया में वहीं लोग आगे आएं जिनके अंदर समय के साथ अपने आप को बदलने का माद्दा हो नहीं तो समय आपको पीछे धकेल देगा। उन्होंने कहा कि नई तकनीकी ने मीडिया की ताकत को कई गुना अधिक मजबूत कर दिया है। देश में साक्षरता दर जिस तरह से बढ़ रही है उससे आने वाले समय में प्रिंट मीडिया ओर तेजी के साथ विकास करेगा। कार्यशाला के दौरान छात्रों के प्रश्नों के जबाव देकर उनकी जिज्ञासाओं को भी शांत किया गया। अतिथियों का स्वागत वरिष्ठ पत्रकार पूर्णेंदु शुक्ला एवं प्राध्यापक सुरेंद्र पाल ने किया। कार्यक्रम के अंत में योगिता राठौर और श्रीकांत सोनी ने सांस्कृतिक प्रस्तुति दी।

Thursday, February 17, 2011

वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे


स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत
-संजय द्विवेदी


कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि "मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।" प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि - "वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।"
सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए ‘प्लेबाय’ या ‘डेबोनियर’ तक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

Monday, February 14, 2011

सिर्फ एक दिन प्यार करें !


वेलैंटाइन डे (14फरवरी) पर विशेषः

-संजय द्विवेदी

क्या प्रेम का कोई दिन हो सकता है। अगर एक दिन है, तो बाकी दिन क्या नफरत के हैं ? वेलेंटाइन डे जैसे पर्व हमें बताते हैं कि प्रेम जैसी भावना को भी कैसे हमने बांध लिया है, एक दिन में या चौबीस घंटे में। पर क्या ये संभव है कि आदमी सिर्फ एक दिन प्यार करे, एक ही दिन इजहार-ए मोहब्बत करे और बाकी दिन काम का आदमी बना रहे। जाहिर तौर पर यह संभव नहीं है। प्यार एक बेताबी का नाम है, उत्सव का नाम है और जीवन में आई उस लहर का नाम है जो सारे तटबंध तोड़ते हुए चली जाती है। शायद इसीलिए प्यार के साथ दर्द भी जुड़ता है और शायर कहते हैं दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।

प्रेम के इस पर्व पर आंखों का चार होना और प्रेम प्रस्ताव आज एक लहर में बदल रहे हैं। स्कूल-कालेजों में इसे खासी लोकप्रियता प्राप्त है। इसने सही मायने में एक नई दुनिया रच ली है और इस दुनिया में नौजवान बिंदास घूम रहे हैं और धूम मचा रहे है। भारतीय समाज में प्रेम एक ऐसी भावना है जिसको बहुत आदर प्राप्त नहीं है। दो युवाओं के मेलजोल को अजीब निगाह से देखना आज भी जारी है। हमारी हिप्पोक्रेसी या पाखंड के चलते वेलेंटाइन डे की लोकप्रियता हमारे समाज में इस कदर फैली है। शायद भारतीय समाज में इतने विधिनिषेध और पाखंड न होते तो वेलेंटाइन डे जैसे त्यौहारों को ऐसी सफलता न मिलती। किंतु पाखंड ने इस पर्व की लोकप्रियता को चार चांद लगा दिए हैं। भारत की नौजवानी अपने सपनों के साथ जी रही है किंतु उसका उत्सवधर्मी स्वभाव हर मौके को एक खास इवेंट में बदल देता है। प्रेम किसी भी रास्ते आए उसका स्वागत होना चाहिए। वेलेंटाइन एक ऐसा ही मौका है , आपकी आकांक्षाओं और सपनों में रंग भरने का दिन भी। सेंट वेलेंटाइन ने शायद कभी सोचा भी न हो कि भारत जैसे देश में उन्हें ऐसी लोकस्वीकृति मिलेगी।

बाजार में त्यौहारः

वेलेंटाइन के पर्व को दरअसल बाजार ने ताकत दी है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इसे रंगीन बना दिया है। भारत आज नौजवानों का देश है। इसके चलते यह पर्व एक अद्भुत लोकप्रियता के शिखर पर है। नौजवानों ने इसे दरअसल प्रेम पर्व बना लिया है। इसने बाजार की ताकतों को एक मंच दिया है। बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के गिफ्ट इस पर्व को साधारण नहीं रहने देते, वे हमें बताते हैं कि इस बाजार में अब प्यार एक कोमल भावना नहीं है। वह एक आतंरिक अनूभूति नहीं है वह बदल रहा है भौतिक पदार्थों में। वह आंखों में आंखें डालने से महसूस नहीं होता, सांसों और धड़कनों से ही उसका रिश्ता नहीं रहा, वह अब आ रहा है मंहगे गिफ्ट पर बैठकर। वह महसूस होता है महंगे सितारा होटलों की बिंदास पार्टियों में, छलकते जामों में, फिसलते जिस्मों पर। ये प्यार बाजार की मार का शिकार है। उसे और कुछ चाहिए, कुछ रोचक और रोमांचक। उसकी रूमानियत अब पैसे से खिलती है, उससे ही दिखती है। यह हमें बताती है कि प्यार अब सस्ता नहीं रहा। वह यूं ही नहीं मिलता। लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की बातें न कीजिए, यह प्यार बाजार के उपादानों के सहारे आता है, फलता और फूलता है। इस प्यार में रूह की बातें और आत्मा की रौशनी नहीं हैं, चौधिंयाती हुयी सरगर्मियां हैं, जलती हुयी मोमबत्तियां हैं, तेज शोर है, कानफाड़ू म्यूजिक है। इस आवाज को दिल नहीं, कान सुनते हैं। कानों के रास्ते ये आवाज, कभी दिल में उतर जाए तो उतर जाए।

इस दौर में प्यारः
इस दौर में प्यार करना मुश्किल है और निभाना तो और मुश्किल। इस दौर में प्यार के दुश्मन भी बढ़ गए हैं। कुछ लोगों को वेलेंटाइन डे जैसे पर्व रास नहीं आते। इस अवसर पर वे प्रेमियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। देश में अनेक संगठन चाहते हैं कि नौजवान वेलेंटाइन का पर्व न मनाएं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों हमारे इसी पाखंड पर्व से उपजी हैं। हमें परेशानी है कि आखिर कोई ऐसा त्यौहार कैसे मना सकता है जो प्यार का प्रचारक है। प्यार के साथ आता बाजार इसे प्रमोट करता है, किंतु समाज उसे रोकता है। वह चाहता है संस्कृति अक्षुण्ण रहे। संस्कृति और प्यार क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं ? प्यार, अश्ललीलता और बाजार मिलकर एक नई संस्कृति बनाते हैं। शायद इसीलिए संस्कृति के रखवाले इसे अपसंस्कृति कहते हैं। सवाल यह है कि बंधन और मिथ्याचार क्या किसी संस्कृति को समर्थ बनाते हैं ? शायद नहीं। इसीलिए नौजवान इस विधि निषेधों के खिलाफ हैं। वे इसे नहीं मानते, वे तोड़ रहे हैं बंधनों को। बना रहे हैं अपनी नई दुनिया। वे इस दुनिया में किसी के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं प्यार जिए और सलामत रहे। प्यार की जिंदाबाद लगे। बाजार उनके साथ है। वह रंग भर रहा है, उन्हें प्यार के नए फलसफे समझा रहा है। प्यार के नए रास्ते बता रहा है। इस नए दौर का प्यार भी क्षणिक है ,वह एक दिन का प्यार है। इसलिए वन नाइट स्टे एक हकीकत बनकर हमें मुंह चिढ़ा रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है ? सहजीवन जब सच्चाई में बदल रहा हो। महानगर अकेले होते इंसान को इन रास्तों से जीना सिखा रहे हों। एक वर्चुअल दुनिया रचते हुए हम अपने अकेले होने के खिलाफ खड़े हो रहे हों तो हमारा रास्ता मत रोकिए। यह हमारी रची दुनिया भले ही क्षणिक और आभासी है, हम इसी में मस्त-मस्त जीना चाहते हैं। नौजवान कुछ इसी तरह से सोचते हैं। प्यार उनके लिए भार नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है, दायित्व नहीं है, एक विनिमय है। क्योंकि यह बाजार का पैदा किया हुआ, बाजार का प्यार है और बाजार में कुछ स्थाई नहीं होता। इसलिए उन्हें झूमने दीजिए, क्योंकि इस कोलाहल में वे आपकी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि आज वेलेंटाइन डे है, कल नई सुबह होगी जो उनकी जिंदगी में ज्यादा मुश्किलें,ज्यादा चुनौतियां लेकर आने वाली है- इसलिए वे कल के इंतजार में आज की शाम खराब नहीं करना चाहते। इसलिए हैप्पी वेलेंटाइन डे।

Wednesday, February 9, 2011

पत्रकारिता विवि में मनाई गई बसंत पंचमी व निराला जयंती


भोपाल, 8 फरवरी । माखनलाल पत्रकारिता विवि में बसंत पंचमी के पावन पर्व पर मंगलवार को सरस्वती पूजा एवं महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला की जयंती मनाई गई। मां सरस्वती की पूजा-अर्चना के बाद विविध सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया गया।

कार्यक्रम की शुरूआत मां शारदे वरदान दे , हमको नए नित ज्ञान दे , गीत से करते हुए सरस्वती मां का वंदन किया गया। इसके बाद सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जयंती पर उनकी कविताओं को याद करते हुए नृत्य-नाटिका आयोजित की गयी। कार्यक्रम में राष्ट्रीय एकता को रेखांकित करते हुए भोजपुरी , मराठी , पंजाबी , मालवी बोली में गीत प्रस्तुत किए गए ।

कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में पधारे वरिष्ठ पत्रकार महेश श्रीवास्तव ने कहा कि शस्त्र के बिना शास्त्र काम नहीं कर सकता । उन्होंने मीडिया के छात्रों का आह्वान किया कि वे समाज में उपस्थित चुनौतियों से जूझने के लिए खुद को तैयार करें और एक सुंदर समाज की रचना करें जिसमें हर व्यक्ति को न्याय मिल सके। सरस्वती मां को उन्होंने आदि शक्ति मां की उपमा दी । विवि के कुलपति प्रो. बी. के . कुठियाला ने मां सरस्वती के पूजन को शिक्षा मंदिरों के लिए अनिवार्य बताया, उन्होंने कहा कि सृष्टि से सरस्वती, सरस्वती से सत्य ,सत्य से सृष्टि की रचना की गई है। विवि के पुस्तकालय परिवार की ओर से हर साल दिया जाने वाला सर्वश्रेष्ठ पाठक का पुरस्कार जनसंपर्क विभाग के छात्र गौरव मिश्रा को दिया गया। मंच का संचालन विवि की छात्रा स्निग्धा वर्धन, मंयक मिश्रा, पूजा श्रीवास्तव, व एनी अंकिता ने किया । कार्यक्रम में मुख्य रूप से रेक्टर प्रो. सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह, पी.पी.सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, संजय द्विवेदी डा. आरती सारंग, दीपक शर्मा, आशीष जोशी सहित विश्वविद्यालय के शिक्षक एवं छात्र –छात्राएं उपस्थित रहे। कार्यक्रम का आभार प्रदर्शन एम.फिल. के छात्र सुनील वर्मा ने किया ।

‘संपादक की सत्ता और महत्ता’ पर बोले श्याम खोसला कहा- अपनी आत्मा व आवाज दोनों खो चुकी है पत्रकारिता



भोपाल, 7 फरवरी। इंडियन मीडिया सेंटर के निदेशक और मीडिया क्रिटिक के संपादक श्याम खोसला (दिल्ली) का कहना है कि वर्तमान युग में पत्रकारिता अपनी आत्मा और आवाज दोनों खो चुकी है। अपनी आत्मा नहीं बेचने वाले उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। कही। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में ‘संपादक की सत्ता और महत्ता’ विषय पर आयोजित व्याख्यान में अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि पत्रकारिता जब मिशन से प्रोफेशन बनी तो हर्ज नहीं, पर अगर प्रोफेशन से कॉमर्स बन जाए, यह बहुत खतरनाक है। श्री खोसला ने कहा कि पत्रकारिता में भ्रष्टाचार इसलिए नहीं शुरू हुआ कि गुजारा नहीं होता था, बल्कि इसलिए शुरू हुआ क्योंकि लालच बहुत ज्यादा हो गई थी।आज पेड-न्यूज के कारण संपादक रूपी बाड़ ही पत्रकारिता रूपी खेत को खा रही है। ऐसी स्थितियों के कारण खोजी पत्रकारिता की संभावनाएँ लगातार क्षीण होती जा रही हैं क्योंकि पत्रकारिता में ईमानदारी का सख्त अभाव होता जा रहा है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि संपादक नाम की संस्था का क्षरण होने से ही ये हालात पैदा हुए हैं और हमें कई स्थानों पर निराशाजनक उदाहरण मिले हैं। उन्होंने कहा कि संपादक की सत्ता को अनुकूलित किया जाना खतरनाक है। इससे मीडिया, कारपोरेट और व्यावसायिक घरानों का पुरजा बनकर रहा जाएगा। संपादक की सत्ता दरअसल उस आम आदमी की आवाज भी है, जिसे अनसुना किया जा रहा है। कार्यक्रम में अंत में जनसंपर्क विभाग के अध्यक्ष डॉ. पवित्र श्रीवास्तव ने आभार व्यक्त किया तथा संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया। इस अवसर पर महाराणा प्रताप कालेज, गोरखपुर के प्राचार्य डा. प्रदीप राव, पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष पुष्पेंद्रपाल सिंह, पूर्णेंदु शुक्ल, डा. संजीव गुप्ता, केसी मौली, डा.मोनिका वर्मा, सुरेंद्र पाल सहित विश्वविद्यालय के विद्यार्थी मौजूद रहे।

Monday, February 7, 2011

संजय सर को जन्मदिन की शुभकामनाएं


संजय सर को यह शुभकामना संदेश बिलासपुर से उनके सहयोगी मुकेश साहू ने भेजा है।

संजय सर का जन्मदिन-2

संजय सर का जन्मदिन-3


शलभ सर, द्विवेदी सर को केक खिलाते हुए।

संजय द्विवेदी सर का जन्मदिन-4

Friday, February 4, 2011

उर्दू पत्रकारिता पर विमर्श के बहाने एक सही शुरूआत


भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे आने की जरूरत
- संजय द्विवेदी

यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि उसकी राजधानी भोपाल से उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर सार्थक विमर्श की शुरूआत हुई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल और इसके कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने हिंदी ही नहीं भारतीय भाषा परिवार की सभी भाषाओं के विकास और उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का लक्ष्य अपने हाथ में लिया है।
यह सुखद संयोग है कि गत 22 जनवरी को विश्वविद्यालय के परिसर में उर्दू भाषा पर संवाद हुआ और 23 जनवरी को भोपाल के शहीद भवन में भारतीय भाषाओं पर बातचीत हुयी। यह शुरूआत मध्यप्रदेश जैसे राज्य से ही हो सकती है, इसे यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहा जाता। मप्र का भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हिंदी और उर्दू पत्रकारिता ही नहीं दोनों भाषाओं का साहित्य फला-फूला है। अपनी सांस्कृतिक विरासतों,भाषाओं व बोलियों का सहेजने का जो उपक्रम मध्यप्रदेश में हुआ है वैसा अन्य स्थानों पर नहीं दिखता।
उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित इस सेमीनार में जुटे उर्दू संपादकों, पत्रकारों और अध्यापकों ने जो बातचीत की वह बताती है हमें उर्दू के विकास को एक खास नजर से देखने की जरूरत है और देश के विकास में उसका एक बड़ा योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है। शायद इसीलिए पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहते है कि “उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें।”
आजादी के आंदोलन में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का खास योगदान रहा है। उसमें उर्दू पत्रकारिता अग्रणी रही है। लाला लाजपत राय जैसे हिंद समाचार के संस्थापक और क्रांतिकारियों ने इसे एक नई दिशा दी। अनेक अखबारों के संपादकों को जेल हुयी, यातनाएं दी गयीं। हिंदी के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की पहली किताब सोजे वतन को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। ऐसे संघर्षों से ही भाषा फली-फूली है। आजादी के आंदोलन की भाषा हिंदी और उर्दू रही है। इन दोनों भाषाओं के अखबारों ने जैसी अलख जगाई उसका एक इतिहास है। इन्होंने राजनीतिक जागरूकता लाने में एक अहम भूमिका निभाई। सामाजिक और राजनीतिक तौर पर समाज को जागृत करने में इन अखबारों की एक खास भूमिका रही है।
उर्दू ,भारत में पैदा हुयी भाषा है जिसका अपना एक शानदार इतिहास है। उसका साहित्य एक प्रेरक विषय है। देश के नामवर शायरों की वजह से दुनिया में हमारी एक पहचान बनी है। लेखकों ने हमें एक उँचाई दिलाई है। उर्दू मीडिया ने भी आजादी के बाद काफी तरक्की की है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने के बाद उर्दू के अखबारों को काफी ताकत मिली है। वे व्यापक कवरेज पर ध्यान दे रहे हैं। किंतु यह दुखद है कि नयी पीढ़ी में उर्दू के प्रति जागरूकता कम हो रही है। वह अब व्यापक रूप से संवाद की भाषा नहीं रह पा रही है।
नए समय में हमें अपनी भारतीय भाषाओं को बचाने की जरूरत है। उनके अच्छे साहित्य का अनुवाद करने की जरूरत है ताकि विविध भाषाओं में लिखे जा रहे अच्छे ज्ञान से हमारा अपरिचय न रह सके। हम एक दूसरे के बेहतर साहित्य से रूबरू हो सकें। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि उर्दू अखबारों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा देश के दक्षिणी हिस्से में उर्दू के अखबार लोकप्रिय हो रहे हैं। आज ये अखबार कहीं भी अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं के मुकाबले कमजोर नहीं है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा की राय में हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए।
तमाम समस्याओं के बीच भी उर्दू मीडिया की एक वैश्विक पहचान बन रही है। वह आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की भाषा बन रही है। यह सौभाग्य ही है कि हिंदी, उर्दू , पंजाबी, मलयालम और गुजराती जैसी भाषाएं आज विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना रही है। दुनिया के तमाम देशों में रह रहे भारतवंशी अपनी भाषाओं के साथ हैं और भारत के समाचार पत्र और टीवी चैनल ही नहीं, फिल्में भी विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। यह सारी भाषाएं मिलकर हिंदुस्तान की एकता को मजबूत करती हैं। एक ऐसा परिवेश रचती हैं जिसमें हिंदुस्तानी खुद को एक दूसरे के करीब पाते हैं।
यह कहना गलत है कि उर्दू किसी एक कौम की भाषा है। वह सबकी भाषा है। कृश्नचंदर, प्रेमचंद, कृष्णबिहारी नूर, रधुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, लालचंद फलक, सत्यानंद शाकिर, गुलजार, उपेंद्र नाथ अश्क, चंद्रभान ख्याल, गोपीचंद नारंग जैसे तमाम लेखकों ने उर्दू को समृद्ध किया है। ऐसी एक लंबी सूची बनाई जा सकती है। इसी तरह आप देखें तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन तो हुआ किंतु भाषा के नाम पर देश टूट गया और बांगलाभाषी मुसलमान भाईयों ने अपना अलग देश बांग्लादेश बना लिया। इसलिए यह सोच गलत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आज भी हिंदुस्तान की सांसें हैं। उसके तमाम बड़े कवि रहीम,रसखान ने देश की धड़कनों को आवाज दी है। हमारे सूफी संतों और कवियों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसलिए भाषा के तौर पर इसे जिंदा रखना हमारा दायित्व है।
प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान का कहना है कि “ उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है।” सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) भी मानते हैं कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है। इसी तरह जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी का मानना है कि “जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है।”
ऐसे में अपनी भाषाओं और बोलियों को बचाना हमारा धर्म है। इसलिए मप्र की सरकार ने भोपाल में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला किया है। इस बहाने हम हिंदी और इसकी तमाम बोलियों की रक्षा कर पाएंगें। हम देखें तो हमारे सारे बड़े कवि खड़ी बोली हिंदी के बजाए हमारे लोकजीवन में चल रही बोलियों से आते हैं। सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान सभी कवि बोलियों से ही आते हैं। इसलिए अंग्रेजी और अंग्रेजियत के हमलों के बीच हमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बचाने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए। यह हम सबका सामाजिक और नैतिक दायित्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद कहा था दुनियावालों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है, पर हमने उनका रास्ता छोड़कर अपनी भाषाओं की उपेक्षा प्रारंभ कर दी। अब हमें फिर से एक बार अपनी जड़ों को जानने की जरूरत है।

Wednesday, February 2, 2011

आशा खुद को जगानी होगी



2 फरवरी 2011,
मुक्ता भावसार
BAMC II SEM



सब देते हैं निराशा
आशा खुद को जगानी होगी
अंधेरा देगा हर कोई
ज्योर्तिमय दीपशिखा तुम को जलानी होगी
कोई न करेगा उत्साहवर्धन
कर देंगे सब इच्छाओं का दमन
उल्लास तुम्ही को लाना होगा
नया प्रकाश फैलाना होगा।
जीत की चाह रखते हो अगर मन में
तन्हा ही उस पार जाना होगा
निराशा को तुम न स्वीकार करना
आशाओं का नित नवीन संचार करना
चलते चलते राह में ठोकर खानी होगी

सब देते हैं निराशा
आशा खुद को जगानी होगी
हारने का डर ना रखना
जीत पर कदम होंगे तुम्हारे
जिन्होंने दी हरदम निराशा
कभी साथ होंगे तुम्हारे
होसलों मे नयी उड़ान लानी होगी
सब देते हैं निराशा
आशा खुद को जगानी होगी।

हाय रे ये नौकरी………..



2 फरवरी 2011,
साकेत नारायण
MAMC IV SEM



मैने ये कभी नहीं सोचा था कि मैं भी कभी इस विषय पर लिखूंगा, परंतु क्या कहूं परिस्थिति भी इन्सान को क्या-क्या करने पर मजबूर कर देती है। आज मैं एक मैं बनकर नहीं बल्कि हम बनकर लिख रहा हूँ।
परिस्थिति यह है कि आज समय ऐसा आ चुका है कि हम सब एक ऐसी दहलीज पर खड़े हैं, जहाँ से बिल्कुल एक नई दुनिया की शुरुआत होती है। भाईसाहब मास्टर डिग्री पूरी होने वाली है और नौकरी की मार शुरू हो चुकी है। हर दिन एक नया तरीका ईजाद होता है हमारे दिमाग में नौकरी ढूंढना का। कोई अपना फील्ड चेंज कर रहा है तो कोई कुछ भी करने को तैयार है। कुछ पुराने रिश्तों को फिर से जिन्दा कर रहे हैं, तो कुछ लिंक बनाने का एक भी मौका गंवाने को तैयार नहीं है।
वैसे ये नौकरी की मार अब एक त्रासदी और माहमारी की तरह फैल चुकी है। हर जगह हर बैठक में चर्चा का मुद्दा बस एक ही है-क्या होगा हमारा यार, कैसे मिलेगी नौकरी पर इन सबके बीच में भी कुछ तीसमारखाँ हैं जो इस संवेदनशील बहस के बीच में खुद की शेखी बखाने से बाज नहीं आते और बातें तो ऐसी करते हैं जैसे कि मानो कि कितने सारे ऑफर लेटर अभी से ही उनकी जेब में रखे पड़े हैं। क्या कहें हर जगह हर वैरायटी के नमूने होते है।
अब इसे नौकरी की मार का प्रकोप ही कहें ना कि लोग नौकरी ढूंढना छोड़कर खुद को इन्टरप्रयोनर या सरल शबदो में कहें तो खुद का बिजनेस करने जैसा बड़ा और भयावह फैसला ले रहे हैं। इस पूरे प्रकरण में मुझे, अरे सॉरी हमें जो डॉयलॉग सबसे सही और सटीक लग रहा है वो थ्री इडियट का डॉयलॉग है- अगर दोस्त फेल कर जाए तो दुःख होता है, पर अगर दोस्त टॉप कर जाए तो ज्यादा दुःख होता है। पर ये दुःख ऐसा होता है कि इसे आप दिखा नहीं सकते। अब अगर दोस्त की नौकरी लग रही हो तो ऐसी कुछ परिस्थिति बन जाती है।
कुल मिलाकर बात बस यह है कि समय बहुत तेज रफ्तार से बीत रहा है और देखते-देखते कब यह बचे 5 महीन बीत जाएंगे और हम सबकी स्नातकत्तोर(सुनने में काफी भारी भरकम लगा ना, अब क्या करें कम से कम इन शब्दों का प्रयोग ही करके खुद को सांत्वना देते हैं कि इतनी भारी भरकम पढ़ाई तो की है हमने कम से कम) की पढ़ाई भी पूरी हो जाएगी, पर इन सबके बीच आज जो सबसे बड़ा प्रश्न है वह यह है कि क्या हमें नौकरी मिलेगी…? अंग्रेजी में कहें तो क्या हम सैटल कर पायेंगे…..? यह प्रश्न आज हमारे जीवन पर भी एक प्रश्नचिन्ह लगा रहे हैं और हमारे दिल और दिमाग से बस एक ही आवाज आ रही है- हाय रे ये नौकरी......