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Saturday, August 20, 2011
अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है
भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधा
-संजय द्विवेदी
अन्ना हजारे ने सही मायने में इस देश की आत्मा को छू लिया है। सच मानिए उनकी गांधी टोपी, बालसुलभ उत्साह, उनकी भारतीय वेशभूषा और बातों की सहजता कुल मिलाकर एक भरोसा जगाती हैं। अन्ना आज जहां हैं उसके पीछे कहीं न कहीं वह छवि जिम्मेदार है जो उन्हें महात्मा गांधी से जोड़ती है। इसलिए जब कांग्रेस के अहंकारी प्रवक्ता उनके बारे में कुछ कहते हैं, तो दर्द देश को होता है। अन्ना हजारे सही मायने में एक भारतीय आत्मा के रूप में उभरे हैं। उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रख दिया है।
कांग्रेस के दिशाहीन और जनता से कटे नेतृत्व की छोड़िए उन्होंने विपक्ष के भी नाकारेपन का लाभ उठाते हुए यह साबित कर दिया है कि लोकशाही की असल ताकत क्या है। जनता के मन में इस कदर उनका बस जाना और नौजवानों का उनके पक्ष में सड़कों पर उतरना, इसे साधारण मत समझिए। यह वास्तव में एक साधारण आदमी के असाधारण हो जाने की परिघटना है। हमारी खुफिया एजेंसियां कह रही थीं- ‘अन्ना को रामदेव समझने की भूल न कीजिए।’ किंतु सरकारें कहां सुनती हैं। पूरी फौज उतर पड़ी अन्ना को निपटाने के लिए। क्या कांग्रेस के प्रवक्ता, क्या मंत्री सब उनकी ईमानदारी और निजी जीवन पर ही कीचड़ उछालने लगे। लेकिन क्या हुआ कि तीन दिनों के भीतर देश के गृहमंत्री को लोकसभा में उन्हें ‘सच्चा गाँधीवादी’ बताते हुए ‘सेल्यूट’ करना पड़ा। समय बदलता है, तो यूं ही बदलता है।
राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीः
अन्ना आज राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती और देश के सबसे बड़े यूथ आईकान हैं। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं जहां पहुंचने के लिए राजनेता, अभिनेता और लोकप्रिय कलाकार तरसते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव राणेगण सिद्धि के इस आम इंसान के इस नए रूपांतरण के लिए आप क्या कहेंगें? क्या यह यूं हो गया ? सच है समय अपने नायक और खलनायक दोनों तलाश लेता है। याद कीजिए यूपीए-1 की ताजपोशी का समय जब मनमोहन सिंह, एक ऐसे ईमानदार आईकान के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हैं जो भारत का भविष्य बदल सकता है, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री के तौर पर दुनिया भर में सम्मानित हैं। आज देखिए उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं। अमरीका से हुए परमाणु करार को पास कराने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले अमरीका प्रिय प्रधानमंत्री के सहायकों की बेबसी देखिए वे यह कहने को मजबूर हैं कि अन्ना के आंदोलन के पीछे अमरीका का हाथ है। अमरीका की चाकरी में लगी केंद्र सरकार के सहयोगियों के इस बयान पर क्या आप हंसे बिना रह सकते हैं? लेकिन उलटबासियां जारी हैं। सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूट रहे हैं, और विद्वान अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की सजा यह कि महंगाई से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।
विपक्ष भी करता रहा निराशः
इस समय में तो विपक्ष भी आशा से अधिक निराश कर रहा है। प्रामणिकता के सवाल पर विपक्ष की भी विश्वसनीयता भी दांव पर है। यह साधारण नहीं है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। केरल में वामपंथियों को ले डूबने वाले विजयन हों, कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री रहे वीएस येदिरेप्पा या उप्र की मुख्यमंत्री मायावती। सब का ट्रैक बहुत बेहतर नहीं है। शिबू सोरेन, लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की याद तो मत ही दिलाइए। राज्यों की विपक्षी सरकारें लूट-पाट का उदाहरण बनने से खुद को रोक नहीं पायीं। ऐसे में राजनीतिक विश्वसनीयता के मोर्चे पर वे कांग्रेस से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। कम से कम भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय चरित्र एक सरीखा है। सो इस राजनीतिक शून्यता और विपक्ष के नाकारेपन के बीच अन्ना आशा की एक किरण बनकर उभरते हैं। विपक्ष वास्तव में सक्रिय और विश्वसनीय होता तो अन्ना कहां होते? इसलिए देखिए कि सारे दल अपनी घबराहटों के बावजूद लोकपाल को लेकर किंतु-परंतु से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अन्ना हजारे के नैतिक बल और व्यापक जनसमर्थन ने उन्हें सहमा जरूर दिया है किंतु वे आज भी आगे आकर सक्षम लोकपाल बनाने के उत्सुक नहीं दिखते। राजनीतिक दलों का यही द्वंद देश की सबसे बड़ी पीड़ा है। जनता इसे देख रही है और समझ भी रही है।
टूटा राज्य का दंभः
सवाल यह भी नहीं है कि अन्ना सफल होते हैं या विफल किंतु अन्ना ने जनशक्ति का भान, मदांध राजनीति को करा दिया है। राज्य( स्टेट) को यह जतला दिया है उसका दंभ, जनशक्ति चाहे तो चूर-चूर हो सकता है। बड़बोले, फाइवस्टारी और गगनविहारी नेताओं को अन्ना ने अपनी साधारणता से ही लाजवाब कर दिया है। अगर उन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा है तो यह अतिरंजना भले हो, किंतु सच लगती है। क्योंकि आज की राजनीति के बौनों की तुलना में वे सच में आदमकद नजर आते हैं। यह सही बात है अन्ना के पास गांधी, जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह जैसा कोई समृद्ध अतीत नहीं है। उनके पास सिर्फ उनका एक गांव है, जहां उन्होंने अपने प्रयोग किए, उनका अपना राज्य है, जहां वे भ्रष्टों से लड़े और उसकी कीमत भी चुकायी। किंतु उनके पास वह आत्मबल, नैतिक बल और सादगी है जो आज की राजनीति में दुर्लभ है। उनके पास निश्चय ही न गांधी सरीखा व्यक्तित्व है, ना ही जयप्रकाश नारायण सरीखा क्रांतिकारी और प्रभावकारी व्यक्तित्व। वीपी सिंह की तरह न वे राजपुत्र हैं न ही उनका कोई राजनीतिक अतीत है। किंतु कुछ बात है कि जो लोगों से उनको जोड़ती है। उनकी निश्छलता, सहजता, कुछ कर गुजरने की इच्छा, उनकी ईमानदारी और अराजनैतिक चरित्र उनकी ताकत बन गए हैं।
हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम् का नादः
आजादी के साढ़े छः दशक के बाद जब वंदेमातरम, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय की नारे लगाते नौजवान तिरंगे के साथ दिल्ली ही नहीं देश के हर शहर में दिखने लगे हैं तो आप तय मानिए कि इस देश का जज्बा अभी मरा नहीं है। इन्हें फेसबुकिया, ट्विटरिया गिरोह मत कहिए- यह चीजों का सरलीकरण है। संवाद के माध्यम बदल सकते हैं पर विश्वसनीय नेतृत्व के बिना लोगों को सड़कों पर उतारना आसान नहीं होता। गौहाटी से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक बड़े और छोटे समूहों में अगर लोग निकले हैं तो इसका मजाक न बनाइए। कुछ करते हुए देश का स्वागत कीजिए। युवा अगर देश जाति, धर्म,राज्य और पंथ की सीमाएं तोड़कर ‘भारत मां की जय’ बोल रहा है तो कान बंद मत कीजिए। सबको पता है कि अन्ना गांधी नहीं हैं, किंतु वे गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं। वे विवेकानंद भी नहीं हैं पर विवेकानंद के अध्ययन ने उनके जीवन को बदला है। इतना तय मानिए कि वे हिंदुस्तान के आम और खास हर आदमी की आवाज बन गए हैं। अन्ना को नहीं उस भारतीय मनीषा को सलाम कीजिए जो अपने गांव की माटी और इस देश के आम आदमी में परमात्मा के दर्शन करता है। अन्ना के इस आध्यात्मिक बल को सलाम कीजिए। इस देश पर पड़ी गांधी की लंबी छाया को सलाम कीजिए कि जिनकी आभा में पूरा देश अन्ना बनने को आतुर है। अन्ना अगर गांधी को नहीं समझते, विवेकानंद को नहीं समझते तो तय मानिए वे देश को भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उनका नैतिक बल इन्हीं विभूतियों से बल पाता है। उनको मीडिया, ट्यूटर और फेसबुक की जरूरत नहीं है, वे उनके मददगार हो सकते हैं किंतु वे अन्ना को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना का आंदोलनकारी व्यक्तित्व भारत की माटी में गहरे बसे लोकतांत्रिक चैतन्य का परिणाम है। जहां एक आम आदमी भी अपनी आध्यात्मिक चेतना और नैतिक बल से महामानव हो सकता है। गांधी ने यही किया और अब अन्ना यह कर रहे हैं। सफलताएं और असफलताएं मायने नहीं रखतीं। गांधी भी देश का बंटवारा रोक नहीं पाए, अन्ना भी शायद भ्रष्टाचार को खत्म होता न देख पाएं, किंतु उन्होंने देश को मुस्कराने का एक मौका दिया है। उन्होंने नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा दी है। खाए-अधाए मध्यवर्ग को भी फिर से राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया है। एक लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ लोगों को समझाने की कोशिशें शुरू की हैं। एक पूरी युवा पीढ़ी जिसने गांधी, भगत सिहं, डा.लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या जयप्रकाश नारायण को देखा नहीं है। उसे उस परंपरा से जोड़ने की कोशिश की है। अन्ना ने जनांदोलन और उसके मायने समझाए हैं।
सवाल पूछने लगे हैं नौजवानः
कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता कहते हैं कि यह फैशन है। अगर यह फैशनपरस्ती भी तो भी वह अमरीका की तरफ मुंह बाए खड़ी, एनआरआई बनने, अपना घर भरने और सिर्फ खुद की चिंता की करने वाली पीढ़ी का एक सही दिशा में प्रस्थान है। यह फैशन भी है तो स्वागत योग्य है क्योंकि अरसे बाद शिक्षा परिसरों में फेयरवेल पार्टियों, डांस पार्टिंयों और फैशन शो से आगे अन्ना के बहाने देश पर बात हो रही है,भ्रष्टाचार पर बात हो रही है, प्रदर्शन हो रहे हैं। नौजवान सवाल खड़े कर रहे हैं और पूछ रहे हैं। अन्ना ने अगर देश के नौजवानों को सवाल करना भर सिखा दिया तो यह भी इस दौर की एक बड़ी उपलब्धि होगी। अन्ना हजारे की जंग से बहुत उम्मीदें रखना बेमानी है किंतु यह एक बड़ी लड़ाई की शुरूआत तो बन ही सकती है। अन्ना की इस जंग को तोड़ने और भोथरा बनाने के खेल अभी और होंगें। सत्ता अपने खलचरित्र का परिचय जरूर देगी। किंतु भारतीय जन अगर अपनी स्मृतियों को थोड़ा स्थाई रख पाए तो राजनीतिक तंत्र को भी इसके सबक जरूर मिलेगें। क्योंकि अब तक हमारा राजनीतिक तंत्र भारतीय जनता के स्मृतिदोष का ही लाभ उठाता आया है। अब उसे लग रहा है कि हम ‘पांच साल के ठेकेदारों’ से पांच साल से पहले ही सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। इसलिए वे ललकार रहे हैं कि आप चुनकर आइए और फिर सवाल पूछिए। पर यह सवाल भी मौंजू कि एक अरब लोगों के देश में आखिर कितने लोग लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जा सकते हैं? यानि सवाल करने का हक क्या संसद में बैठे लोगों का ही होगा, किंतु अन्ना ने बता दिया है कि नहीं हर भारतीय को सवाल करने का हक है। “हम भारत के लोग” संविधान में लिखी इन पंक्तियों के मायने समझ सकें तो अन्ना का आंदोलन सार्थक होगा और अपने लक्ष्य के कुछ सोपान जरूर तय करेगा।
Monday, August 8, 2011
लोकतांत्रिक चेतना का देश है भारतः विजयबहादुर सिंह
स्थानीय विविधताएं ही करेंगी पश्चिमी संस्कृति के हमलों का मुकाबला
भोपाल, 8 जुलाई 2011। हिंदी साहित्य के प्रख्यात आलोचक एवं विचारक डा.विजयबहादुर सिंह का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक चेतना का देश है। इसकी स्थानीय विविधताएं ही बहुराष्ट्रीय निगमों और पश्चिमी संस्कृति के साझा हमलों का मुकाबला कर सकती हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग द्वारा ‘भारत का सांस्कृतिक का अवचेतन ’ विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि ज्ञान और संस्कृति अगर अलग-अलग चलेंगें तो यह मनुष्य के खिलाफ होगा। प्रख्यात विचारक धर्मपाल का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि उनके द्वारा उठाया गया यह सवाल कि “ हम किसके संसार में रहने लगे हैं”, आज बहुत प्रासंगिक हो उठा है। हिंदुस्तान के लोग आज दोहरे दिमाग से काम कर रहे हैं, यह एक बड़ी चिंता है। सभ्यता में हम पश्चिम की नकल कर रहे हैं और धर्म के पालन में हम अपने समाज में लौट आते हैं। डा. सिंह ने कहा कि 1947 के पहले स्वदेशी, सत्याग्रह और अहिंसा हमारे मूल्य थे किंतु आजादी के बाद हमने परदेशीपन, मिथ्याग्रह और हिंसा को अपना लिया है। यह दासता का दिमाग लेकर हम अपनी पंचवर्षीय योजनाएं बनाते रहे, संविधान रचते रहे और नौकरशाही भी उसी दिशा में काम करती रही। ऐसे में सोच वा आदर्श में फासले बहुत बढ़ गए हैं। हमारा पूरा तंत्र आम आदमी के नहीं ,सरकार के पक्ष में खड़ा दिखता है। हमारा सामाजिक जीवन और लोकजीवन दोनों अलग-अलग दिशा में चल रहे हैं। जबकि हिंदुस्तान समाजों का देश नहीं ‘लोक’ है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की पुस्तक ‘हिंद स्वराज’ का उल्लेख करते हुए विजय बहादुर सिंह ने कहा कि पश्चिम कभी भी हमारा आदर्श नहीं हो सकता, क्योंकि यह सभ्यता अपने को स्वामी और बाकी को दास समझती है। उनका कहना था कि कोई भी क्रांति तभी सार्थक है, जब उससे होने वाले परिवर्तन मनुष्यता के पक्ष में हों। आजादी के बाद जो भी बदलाव किए जा रहे हैं वे वास्तव में हमारी परंपरा और संस्कृति से मेल नहीं खाते। भारत की सांस्कृतिक चेतना त्याग में विश्वास करती है, क्योंकि वह एक आदमी को इंसान में रूपांतरित करती है। शायद इसीलिए गालिब ने लिखा कि “आदमी को मयस्सर नहीं इंशा होना”। भारत की संस्कृति इंसान बनाने वाली संस्कृति है पर हम अपना रास्ता भूलकर उस पश्चिम का अंधानुकरण कर रहे हैं, जिसे गांधी ने कभी शैतानी सभ्यता कहकर संबोधित किया था। इस अवसर पर डा. श्रीकांत सिंह, पुष्पेंद्रपाल सिंह, डा. संजीव गुप्ता, पूर्णेंदु शुक्ल, शलभ श्रीवास्तव, प्रशांत पाराशर और जनसंचार विभाग के विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन विभागाध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।
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लोकमंगल हो मीडिया का ध्येयः स्वामी शाश्वतानंद
भोपाल, 6 अगस्त,2011। महामंडलेश्वर डा.स्वामी शाश्वतानंद गिरि का कहना है कि लोकमंगल अगर पत्रकारिता का उद्देश्य नहीं है तो वह व्यर्थ है। हमें हमारे सामाजिक संवाद और पत्रकारिता में लोकमंगल के तत्व को शामिल करना पड़ेगा। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा ‘संवाद और पत्रकारिता का अध्यात्म’ विषय पर आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अध्यात्म के बिना प्रेरणा संभव नहीं है। अध्यात्म ही किसी भी क्षेत्र में हमें लोकमंगल की प्रेरणा देता है।
उन्होंने कहा कि अरविंद घोष, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी भी पत्रकार थे किंतु उनकी पत्रकारिता, उनकी आत्मा का स्पंदन थी, आज जबकि पूंजी का स्पंदन ही पत्रकारिता की प्रेरणा बन रहा है। उन्होंने युवा पत्रकारों से आग्रह किया कि वे अपनी पत्रकारिता में सकारात्मकता को शामिल करें तभी हम भारत के मीडिया का मान बढ़ा सकेंगें। शरीर के तल पर मनुष्य और पशु में कोई अंतर नहीं, मूल्य ही हमें अलग करते हैं। हमारे लिए मनुष्यता बहुत महत्वपूर्ण है।
डा. गिरि ने कहा कि मन से लिखा और मन से बोला गया शब्द ही पढ़ा और सुना जाएगा। बुद्धि से लिखे और बोले हुए का कोई महत्व नहीं है, वह बुद्धि से ही पढ़ा और सुना जाएगा। हमारे लेखन में अगर हमारी आत्मा न होगी तो वह प्राणहीन हो जाएगा। प्रेमचंद और निराला जी का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि ये इसलिए दिल से पढ़े गए, क्योंकि उन्होंने दिल से लिखा। कार्यक्रम के अंत में विद्यार्थियों ने डा. गिरि से प्रश्न भी पूछे।
कार्यक्रम के प्रारंभ में कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला, रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने, प्रो. आशीष जोशी, दीपक शर्मा, पवित्र श्रीवास्तव, पुष्पेंद्र पाल सिंह, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पी. शशिकला, डा. आरती सारंग, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा,पूर्व कुलसचिव पी. एन. साकल्ले आदि ने पुष्पहार से महामंडलेश्वर डा. गिरि का स्वागत किया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।
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