- संजय द्विवेदी
“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है
और जो इस जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता”
हिंदी के प्रख्यात कवि स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां किन्हीं दूसरे संदर्भों पर लिखी गई हैं, लेकिन वह टीवी चैनलों से बरस रही अपरंस्कृति और भाषा के बिगड़ते रूपों पर टिप्पणी जरूर करती हैं और इस माध्यम से बन रहे हमारे नए रिश्ते को व्याख्यायित भी करती है।
बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं।
टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है।
टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। वे सिर्फ हंसी-मजाक नहीं करते, वे माता-पिता के साथ परिवार व बच्चों के बदलते व्यवहार की बानगी भी पेश करते हैं । अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है। जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबकालक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। गंभीरता के अभाव तथा ‘जैक आफ आल’ बनने की कोशिशों में हर कंपनी और निर्माता हर प्रकार के कार्यक्रम बनाने लगता है। भले ही उस की प्रारंभिक समझ भी निर्माता के पास न हो। हो यह रहा है कि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, बच्चों से जुड़े हर कार्यक्रम को बनाने वाले चेहरे वही होते है। गुलजार जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः सब अपनी अधकचरी समझ ही थोपते नजर आते हैं।
ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। एम टीवी, फैशन तथा अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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