माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Wednesday, January 27, 2010
एक ख़बर का ब्योरा
चंद्रभूषण
बच्चे हर बार दिल लेकर पैदा होते हैं
और कभी-कभी उनके दिल में
एक बड़ा छेद हुआ करता है
जिसमें डूबता जाता है
पैसा-रुपया, कपड़ा-लत्ता,
गहना-गुरिया, पी.एफ.-पेंशन
फिर भी छेद यह भरने को नहीं आता।
तब बजट आने से दो रात पहले
एक ही जैसे दिखते दर्जन भर अर्थशास्त्री
जब अलग-अलग चैनलों पर
शिक्षा, चिकित्सा जैसे वाहियात ख़र्चों में
कटौती का सुझाव सरकार को देकर
सोने जा चुके होते हैं--
ऐसे ही किसी बच्चे की मां
ख़ुद उस छेद में कूदकर
उसे भर देने के बारे में सोचती है।
रात साढ़े बारह बजे
उल्लू के हाहाकार से बेख़बर
किसी जीवित प्रेत की तरह वह उठती है
और सोए बीमार बच्चे का
सम पर चढ़ता-उतरता गला
उतनी ही मशक्कत से घोंट डालती है
जितने जतन से कोई सत्रह साल पहले
तजुर्बेकार औरतों ने उसे
उसकी अपनी देह से निकाला था।
गले में बंधी जॉर्जेट की पुरानी साड़ी के सहारे
निखालिस पेटीकोट में पंखे से लटका
एक मृत शरीर के बगल में
तीन रात दो दिन धीरे-धीरे झूलता
उस स्त्री का वीभत्स शव
किसी ध्यानाकर्षण की अपेक्षा नहीं रखता।
आनंद से अफराए समाज में
दुख से अकुलाई दो ज़िदगियां ही बेमानी थीं
फिर रफ़्ता-रफ़्ता असह्य हो चली बदबू के सिवाय
बंद कमरे में पड़ी दो लाशों से
किसी को भला क्या फर्क पड़ना था।
अलबत्ता अपने अख़बार की बात और है
यह तो न जाने किस चीज़ का कैसा छेद है
कि हर रोज़ लाखों शब्दों से भरे जाने के बावजूद
दिल के उसी छेद की तरह भरना ही नहीं जानता।
शहर में नहीं, साहित्य में नहीं,
संसद में तो बिल्कुल नहीं
पर ऐसे नीरस किस्सों के लिए
यहां अब भी थोड़ी जगह निकल आती है-
'पृष्ठ एक का बाकी' के बीच पृष्ठ दो पर
या जिस दिन बिजनेस या खेल की ख़बरें पड़ जाएं
उस दिन नीचे पृष्ठ नौ या ग्यारह पर
....ताकि दुपहर के आलस में
तमाम मरी हुई ख़बरों के साथ
इन्हें भी पढ़ ही डालें पेंशनयाफ्ता लोग
और बी.पी. की गोली खाकर सो रहें।
अपसंस्कृति और उपभोक्तावाद के प्रवक्ता
- संजय द्विवेदी
“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है
और जो इस जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता”
हिंदी के प्रख्यात कवि स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां किन्हीं दूसरे संदर्भों पर लिखी गई हैं, लेकिन वह टीवी चैनलों से बरस रही अपरंस्कृति और भाषा के बिगड़ते रूपों पर टिप्पणी जरूर करती हैं और इस माध्यम से बन रहे हमारे नए रिश्ते को व्याख्यायित भी करती है।
बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं।
टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है।
टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। वे सिर्फ हंसी-मजाक नहीं करते, वे माता-पिता के साथ परिवार व बच्चों के बदलते व्यवहार की बानगी भी पेश करते हैं । अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है। जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबकालक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। गंभीरता के अभाव तथा ‘जैक आफ आल’ बनने की कोशिशों में हर कंपनी और निर्माता हर प्रकार के कार्यक्रम बनाने लगता है। भले ही उस की प्रारंभिक समझ भी निर्माता के पास न हो। हो यह रहा है कि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, बच्चों से जुड़े हर कार्यक्रम को बनाने वाले चेहरे वही होते है। गुलजार जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः सब अपनी अधकचरी समझ ही थोपते नजर आते हैं।
ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। एम टीवी, फैशन तथा अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है
और जो इस जंगल में
इतना विकृत हो चुका है
कि जल्दी पहचान में नहीं आता”
हिंदी के प्रख्यात कवि स्व. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां किन्हीं दूसरे संदर्भों पर लिखी गई हैं, लेकिन वह टीवी चैनलों से बरस रही अपरंस्कृति और भाषा के बिगड़ते रूपों पर टिप्पणी जरूर करती हैं और इस माध्यम से बन रहे हमारे नए रिश्ते को व्याख्यायित भी करती है।
बाजार की माया और मार इतनी गहरी है कि वह अपनी चकाचौंध से सबको लपेट चुकी है, उसके खिलाफ हवा में लाठियां जरूर भांजी जा रही हैं, लेकिन लाठियां भांज रहे लोग भी इसकी व्यर्थता को स्वीकार करने लगे हैं। स्वदेशी आंदोलन की पृष्ठभूमि में पली-बढ़ी कांग्रेस हो या नवस्वदेशीवाद की प्रवक्ता भाजपा, सब इस उपभोक्तावाद, विनिवेश और उदारीकरण की त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके हैं।
टीवी चैलनों पर मचा धमाल इससे अलग नहीं है।देश में सैकड़ों चैनल रात-दिन कुछ न कुछ उगलते रहते हैं। इन विदेशी-देशी चैनलों का आपसी युद्ध चरम पर है।ज्यादा से ज्यादा बाजार ,विज्ञापन एवं दर्शक कैसे खींचे जाएं सारा जोर इसी पर है। जाहिर है इस प्रतिस्पर्धा में मूल्य, नैतिकता एवं शील की बातें बेमानी हो चुकी हैं। होड़ नंगेपन की है, बेहूदा प्रस्तुतियों की है और जैसे-तैसे दर्शकों को बांधे रखने की है।
टीवी चैनलों पर चल रहे धारावाहिकों में ज्यादातर प्रेम-प्रसंगों, किसी को पाने-छोड़ने की रस्साकसी एवं विवाहेतर संबंधों के ही इर्द-गिर्द नाचते रहते हैं। वे सिर्फ हंसी-मजाक नहीं करते, वे माता-पिता के साथ परिवार व बच्चों के बदलते व्यवहार की बानगी भी पेश करते हैं । अक्सर धारावाहिकों में बच्चे जिसे भाषा में अपने माता-पिता से पेश आते हैं, वह आश्चर्यचकित करता है। इन कार्यों से जुड़े लोग यह कहकर हाथ झाड़ लेते हैं कि यह सारा कुछ तो समाज में घट रहा है, लेकिन क्या भारत जैसे विविध स्तरीय समाज रचना वाले देश में टीवी चैनलों से प्रसारित हो रहा सारा कुछ प्रक्षेपित करने योग्य है ? लेकिन इस सवाल पर सोचने की फुसरत किसे है ? धार्मिक कथाओं के नाम भावनाओं के भुनाने की भी एक लंबी प्रक्रिया शुरू है। इसमें देवी-देवताओं के प्रदर्शन तो कभी-कभी ‘हास्य जगाते हैं। देवियों के परिधान तो आज की हीरोइनों को भी मात करते हैं। ‘धर्म’ से लेकर परिवार, पर्व-त्यौहार, रिश्तें सब बाजार में बेचे–खरीदें जा रहे हैं। टीवी हमारी जीवन शैली, परंपरा के तरीके तय कर रहा है। त्यौहार मनाना भी सिखा रहा है। नए त्यौहारों न्यू ईयर, वेलेंटाइन की घुसपैठ भी हमारे जीवन में करा रहा है। नए त्यौहारों का सृजन, पुरानों को मनाने की प्रक्रिया तय करने के पीछ सिर्फ दर्शक को ढकेलकर बाजार तक ले जाने और जेबें ढीली करो की मानसिकता ही काम करती है। जाहिर है टीवी ने हमारे समाज-जीवन का चेहरा-मोहरा ही बदल दिया है। वह हमारा होना और जीना तय करने लगा है। वह साथ ही साथ हमारे ‘माडल’ गढ़ रहा है। परिधान एवं भाषा तय कर रहा है। हम कैसे बोलेंगे, कैसे दिखेंगे सारा कुछ तय करने का काम ये चैनल कर रहे हैं । जाहिर है बात बहुत आगे निकल चुकी है। प्रसारित हो रही दृश्य-श्रव्य सामग्री से लेकर विज्ञापन सब देश के किस वर्ग को संबोधित कर रहे हैं इसे समझना शायद आसान नहीं है। लेकिन इतना तय है कि इन सबकालक्ष्य सपने दिखाना, जगाना और कृत्रिम व अंतहीन दौड़ को हवा देना ही है। जीवन के झंझावातों, संघर्षों से अलग सपनीली दुनिया, चमकते घरों, सुंदर चेहरों के बीच और यथार्थ की पथरीली जमीन से अलग ले जाना इन सारे आयोजनों का मकसद होता है। बच्चों के लिए आ रहे कार्यक्रम भी बिना किसी समझ के बनाए जाते हैं। गंभीरता के अभाव तथा ‘जैक आफ आल’ बनने की कोशिशों में हर कंपनी और निर्माता हर प्रकार के कार्यक्रम बनाने लगता है। भले ही उस की प्रारंभिक समझ भी निर्माता के पास न हो। हो यह रहा है कि धार्मिक, सामाजिक, शैक्षिक, बच्चों से जुड़े हर कार्यक्रम को बनाने वाले चेहरे वही होते है। गुलजार जैसे एकाध अपवादों को छोड़ दें तो प्रायः सब अपनी अधकचरी समझ ही थोपते नजर आते हैं।
ऐसे हालात में समाज टीवी चैनलों के द्वारा प्रसारित किए जा रहे उपभोक्तावाद, पारिवारिक टूटन जैसे विषयों का ही प्रवक्ता बन गया है। एम टीवी, फैशन तथा अंग्रेजी के तमाम चैनलों के अलावा अब तो भाषाई चैनल भी ‘देह’ के अनंत ‘राग’ को टेरते और रूपायित करते दिखते हैं। ‘देहराग’ का यह विमर्श 24 घंटे मन को कहां-कहा ले जाता है व जीवन-संघर्ष में कितना सहायक है शायद बताने की आवश्यकता नहीं है।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
मीडिया के विस्तार में सहायक बनी नई प्रौद्योगिकी
बात अगर नई तकनीक और प्रौद्योगिकी की करें तो उसने अखबारों की ताकत और उर्जा का विस्तार ही किया है। अखबारों का नया रूप ज्यादा स्वीकार्य, सुदर्शन और व्यापक हुआ है तो इसके पीछे इंटरनेट और सूचना प्रौद्योगिकी का विकास ही है। सूचना की दुनिया की बढ़ती गति ने अखबारों के कार्यालयों का स्वरूप बदल गया। खबरें ज्यादा तेजी से, ज्यादा सज-धज के सामने आने लगीं। कम्प्यूटर पर पेजमेकिंग के नित नए साफ्टवेयर्स ने अखबारों को बेहद सजीला बना दिया है। आंचलिक अखबारों की बढ़ी ताकत और उनके नित नए संस्करणों का विकास दरअसल सूचना प्रौद्योगिकी और प्रिटिंग टेक्नालाजी में आए बदलावों के चलते ही संभव हुआ है। इसी आईटी क्रांति ने भाषाई पत्रकारिता को नवजीवन और नया जोश दिया है। यह दरअसल भारत जैसे देश के लिए एक नई परिघटना है। तेजी से बढ़ती साक्षरता, लोगों की बढ़ती क्रयशक्ति और स्टेटस सिंबल के रूप में बदलते अखबार एक ऐसी घटना है जिसे समझना जरूरी है। शायद यही कारण है कि भारत प्रिंट मीडिया के सबसे बड़े विश्वबाजार के रूप में उभर रहा है।
ये विकास का पहला चरण है, विकास का यह दौर अभी शुरू हुआ है जाहिर तौर पर वह लंबा खिचेंगा। विद्वानों की मानें तो भारतीय प्रिंट मीडिया को अभी दस या पंद्रह सालों तक कोई गंभीर चुनौती बेब माध्यम प्रस्तुत कर पाएंगें ऐसा नहीं लगता। लेकिन क्या दूसरे चरण में भी अखबारों की यह विकासयात्रा जारी रह पाएगी यह सवाल सबके सामने है। दस या पंद्रह साल बाद ही सही अखबारों के सामने चुनौती के रूप में वेब माध्यम का विकास तो हो ही रहा है। वह कुछ प्रतिशत में ही सही, अखबार को सूचना का प्राथमिक श्रोत तो नहीं ही रहने देगा। आज यह आंकड़ा बहुत कम जरूर है किंतु यह तेजी से बढ़नेवाला है इसे मान लेना चाहिए। हम इसे आज की युवा पीढ़ी जो शहरों में रह रही है कि बदलती आदतों से समझ सकते हैं कि वह किस माध्यम के ज्यादा करीब है। इंटरनेट के अविष्कार ने इसे एक ऐसी शक्ति दी जिसे सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। वेबसाइट्स के निर्माण से ई-रीडिंग का प्रचलन भी बढ़ा है । हमारे पुस्तकालय खाली पड़े होंगे किंतु साइबर कैफै युवाओं से भरे-पड़े हैं। एक क्लिक से उन्हें दुनिया जहान की तमाम जानकारियां और साहित्य का खजाना मिल जाता है। यह सही है उनमें चैटिंग और पोर्न साइट्स देखनेवालों की भी एक बड़ी संख्या है किंतु यह मैं भरोसे के साथ कह सकता हूं कि नई पीढ़ी आज भी ज्यादातर सूचना या पाठ्य सामग्री की तलाश में इन साइट्स पर विचरण करती है। तकनीक कभी भी किसी विधा की दुश्मन नहीं होती, वह उसके प्रयोगकर्ता पर निर्भर है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करता है। नई तकनीक ने सूचनाओं का कवरेज एरिया तो बढ़ा ही दिया ही साथ ही ज्ञान-विज्ञान के तमाम अनुशासनों के प्रति युवाओं की पहुंच का विस्तार भी किया है। वेबसाइट्स ने दुनिया की तमाम भाषाओं में हो रहे काम और सूचनाओं का रिश्ता और संपर्क भी आसान बना दिया है। एक क्लिक पर हमें साहित्य और सूचना की एक वैश्विक दुनिया की उपलब्धता क्या आश्चर्य नहीं है। इसके साथ ही नेटवर्किंग और सोशल साइट्स की उपस्थिति एक दीवानगी के रूप में बढ़ रही है। यह सारा कुछ हमारे पढने के समय की ही चोरी है। परंपरागत तरीके के अध्ययन से यह तरीका अलग है। अखबार तो नेट और मोबाइल पर पढ़े जा सकते हैं, आपके टीवी सेट पर भी देखे जा सकते हैं।
अखबारों की पठनीयता पर कोई गंभीर अध्ययन कराया जाए तो इसके सही निष्कर्ष सामने आ सकते हैं। अखबार शहरी क्षेत्रों में पढ़े नहीं, पलटे जा रहे हैं। फिर इनके प्रसार बढ़ने का कारण क्या है। सही मानें तो अखबार एक स्टेटस सिंबल में बदल गए हैं। पढ़ने के मातृभाषा का अखबार और डायनिंग हाल में रखने को अंग्रेजी का अखबार। चार लोगों के रहने वाले घर में भी दो या चार अखबार आसानी से आते हैं। बढ़ती क्रय शक्ति भी इसका उत्प्रेरक तत्व बनी है। साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ती साक्षरता प्रेरक तत्व बनी है। सूचना पाने की उत्कंठा आज समाज के हर वर्ग में हैं। कंप्यूटर साक्षरता की धीमी गति, बिजली की कम उपल्ब्धता, मंहगे कंप्यूटर धीमी इंटरनेट कनेक्टिविटी ने अखबारों के लिए जीवनदान का काम किया है। आपको टीवी देखते, इंटरनेट पर विचरण करते युवाओं की टोली मिल जाएगी पर अखबार को धर्मग्रंथ की तरह बांचते अब प्रौढ़ या वृद्ध ही दिखते हैं।
इस तेजी से बदलती दुनिया, तेज होते शहरीकरण और जड़ों से उखडते लोगों व टूटते सामाजिक ताने बाने ने इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय किया है। कभी किताबें,अखबार और पत्रिकाएं दोस्त थीं आज का दोस्त इंटरनेट है क्योंकि यह दुतरफा संवाद का भी माध्यम है। सो पढ़े या लिखे हुए की तत्काल प्रतिक्रिया ने इसे लोकप्रिय बनाया है। आज का पाठक सब कुछ तुरंत चाहता है-इंस्टेंट। टीवी और इंटरनेट उसकी इस भूख को पूरा करते हैं। यह गजब है कि आरकुट, फेसबुक, ट्यूटर जैसी सोशल साइट्स का प्रभाव हमारे समाज में भी महसूस किया जाने लगा है। यह इंटरनेट पर गुजारा गया वक्त अपने पढ़ने के वक्त से लिया गया है। दूसरा सबसे बड़ा कारण यह है कि अखबारों के प्रकाशन में लगने वाली बड़ी पूंजी के नाते उसके हित और सरोकार निरंतर बदल रहे हैं। इस मामले में इंटरनेट अभी ज्यादा लोकतांत्रिक दिखता है। वेबसाइट बनाने और चलाने का खर्च भी कम है और ब्लाग तो निःशुल्क ही हैं। सो एक पाठक खुद संपादक और लेखक बनकर इस मंच पर अपनी उपस्थिति को सुलभ मानता है। स्वभाव से ही लोकतांत्रिक माध्यम होने के नाते संवाद यहां सीधा औऱ सुगम है। भारतीय समाज में तकनीक को लेकर हिचक है इसके चलते वेबमाध्यम अभी उतने प्रभावी नहीं दिखते, पर यह तकनीक सही मायने निर्बल का बल है। इस तकनीक के इस्तेमाल ने एक अनजाने से लेखक को भी ताकत दी है जो अपना ब्लाग मुफ्त में ही बनाकर अपनी रचनाशीलता से दूर बैठे अपने दोस्तों को भी उससे जोड़ सकता है। भारत जैसे देश में जहां साहित्यिक पत्रिकाओं का संचालन बहुत कठिन और श्रमसाध्य काम है वहीं वेब पर पत्र-पत्रिका का प्रकाशन सिर्फ आपकी तकनीकी दक्षता और कुछ आर्थिक संसाधनों के इंतजाम से जीवित रह सकता है। यहां महत्वपूर्ण यह है कि इस पत्रिका का टिका रहना, विपणन रणनीति पर नहीं, उसकी सामग्री की गुणवत्ता पर निर्भर करता है। वेबसाइट्स पर चलने वाली पत्रिकाएं और सूचनाप्रधान अखबार अपनी गुणवत्ता से जीवित रहते हैं जबकि प्रिंट पर छपने वाली पत्रिकाएं और अखबार अपनी विपणन रणनीति और अर्थ प्रबंधन की कुशलता से ही दीर्धजीवी हो पाते हैं। सो साहित्य के अनुरागी जनों के लिए ब्लाग जहां एक मुफ्त की जगह उपलब्ध कराता है वहीं इस माध्यम पर नियमित पत्रिका या विचार के फोरम मुफ्त चलाए जा सकते हैं। इसमें गति भी है और गुणवत्ता भी। इस तरह बाजार की संस्कृति का विस्तारक होने की आरोपी होने के बावजूद आप इस माध्यम पर बाजार के खिलाफ, उसकी अपसंस्कृति के खिलाफ मोर्चा खोल सकते हैं। इस मायने में यह बेहद लोकतांत्रिक माध्यम भी है। इसने पत्राचार की संस्कृति को ई-मेल के जरिए लगभग खत्म तो कर दिया है पर गति बढ़ा दी है, इसे सस्ता भी कर दिया है।
सही मायने में अभी हिंदी समाज को ई-संस्कृति विकसित होने का इंतजार करना पड़ेगा। इसके चलते भले ही प्रिंट माध्यम अपनी उपयोगिता बनाए रख सकते हैं। बावजूद हिंदी का यह बन रहा विश्व समाज हमें नए मीडिया के द्वारा खोले गए अवसरों के उपयोग करने वाली पीढ़ी तैयार कर रहा है। हिंदी का श्रेष्ठ साहित्य न्यू मीडिया में अपनी जगह बना सके इसके प्रयास हो रहे हैं। इंटरनेट ने प्रायः उन विधाओं और विषयों को फोकस किया है जो प्रायः मुख्यधारा के मीडिया से गायब हो रहे हैं। प्रिंट में अनुपस्थित बहुत सी विधाओं और विषयों पर इंटरनेट पर गंभीर विमर्श देखे जा रहे हैं। सो यह माध्यम देर-सबेर एक चुनौती के रूप में सामने तो खड़ा है ही। भारत के प्रायः सभी अखबार आज अपनी वेबसाइट बना चुके हैं इसका मतलब यह है कि उन्होंने इस माध्यम की स्वीकार्यता को समझ लिया है। इसके साथ ही कई अखबार मोबाइल पर भी खबरें दे रहे हैं। सो प्रिंट माध्यम के धराने एक साथ रेडियो, टीवी, फिल्म, मोबाइल न्यूज,वेबमाध्यम सभी में प्रवेश कर रहे हैं। इससे एक माध्यम दूसरे माध्यम को चुनौती भी देता हुआ दिखता है तो सहयोगी की भूमिका में भी है। इसे प्रिंट माध्यमों से जुड़े घरानों का विस्तारवाद तो कहा ही जा सकता है पर इसे इस रूप में भी देखा जाना चाहिए कि इन घरानों ने प्रिंट माध्यम या अखबारों की सीमाएं समझ ली हैं। आने वाला समय सूचना के विविध माध्यमों में आपसी संघर्ष के गवाह बनेगा जिसे देखना निश्चय ही रोचक होगा।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
Friday, January 1, 2010
नववर्ष- 2010
नए साल में तलाशें सवालों के जवाब
-संजय द्विवेदी
पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को 2020 में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के 6 दशक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहाँ से उसे सिर्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 6 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे भारतवंशी आज दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। अब जबकि हम फिर नए साल-2010 को अपनी बांहों में ले चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम उस सपने को कैसा पूरा कर सकते हैं जिसे पूरे करने के लिए सिर्फ दस साल बचे हैं। यानि 2020 में भारत को महाशक्ति बनाने का सपना।
एक साल का वक्त बहुत कम होता है। किंतु वह उन सपनों की आगे बढ़ने का एक लंबा वक्त है क्योंकि 365 दिनों में आप इतने कदम तो चल ही सकते हैं। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवाशक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी ज़ज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था। आजादी की जंग में जिन नौजवानों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, वही ललक और प्रेरणा आज भी भारत के उत्थान के लिए नई पीढ़ी में दिखती है। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन आम आदमी आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक है। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहता है। यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि साँप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है। आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहाँ व्यवसायिक विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुँचेगा।
सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः
भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसज्जित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। युवाशक्ति तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है। सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएँ हर जगह भारतीय प्रतिभाएँ वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं।
कई स्तरों पर बंटे समाज में भाषा, जाति, धर्म और प्रांतवाद की तमाम दीवारें हैं। कई दीवारें ऐसी भी कि जिन्हें हमने खुद खड़ा किया है और हमारा बुरा सोचने वाली ताकतें उन्हें संबल दे रही हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर भी जब देश बँटा हुआ नज़र आता है, तो कई बार आम भारतीय का दुख बढ़ जाता है। घुसपैठ की समस्या भी एक ऐसी समस्या है जिससे लगातार नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। किसी तरह भी वोट बैंक बनाने और सत्ता हासिल करने की होड ने तमाम मूल्यों को शीर्षासन करा दिया है। ऐसे में जनता के विश्वास की रक्षा कैसे की जा सकती है? आजादी के 60 साल के बाद लगभग वही सवाल आज भी खड़े हैं, जिनके चलते देश का बँटवारा हुआ और महात्मा गांधी जैसी विभूतियां भी इस बँटवारे को रोक नहीं पाईं। देश के अनेक हिस्सों में चल रहे अतिवादी आंदोलन, चाहे वे किसी नाम से भी चलाए जा रहे हों या किसी भी विचारधारा से प्रेरित हों। सबका उद्देश्य भारत की प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाना ही है। अनेक विकास परियोजनाओं के खिलाफ इनका हस्तक्षेप यह बताता है कि सारा कुछ बेहतर नहीं है। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। उन शिकायतों को हल कर सके, जो आम आदमी को परेशान और हलाकान करती रहती हैं। आजादी को सार्थक करने के लिए हमें साधन संपन्नों और हाशिये पर खड़े लोगों को एक तल पर देखना होगा। क्योंकि आजादी तभी सार्थक है, जब वह हिंदुस्तान के हर आदमी को समान विकास के अवसर उपलब्ध कराए। कानून की नजर में हर आदमी समान है, यह बात नारे में नहीं, व्यवहार में भी दिखनी चाहिए।
प्रजातंत्र को हकीकत में बदलने की जरूरतः
प्रजातंत्र के बारे में कहा जाता है कि वह सौ सालों में साकार होता है। भारत ने इस यात्रा की भी आधे से अधिक यात्रा पूरी कर ली है। बावजूद इसके हमें डा. राममनोहर लोहिया की यह बात ध्यान रखनी होगी कि ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ इसी के साथ याद आते हैं पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग, जिन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन देकर भारतीय राजनीति को एक ऐसी दृष्टि दी है, जिसमें आम आदमी के लिए जगह है। यह दर्शन हमें दरिद्रनारायण की सेवा की मार्ग पर प्रशस्त करता है। महात्मा गांधी भी अंतिम व्यक्ति का विचार करते हुए उसके लिए इस तंत्र में जगह बनाने की बात करते हैं। हमें सोचना होगा कि आजादी के इन 60 सालों में उस आखिरी आदमी के लिए हम कितनी जगह और कितनी संवेदना बना पाए हैं। प्रगति और विकास के सूचकांक तभी सार्थक हैं, जब वे आम आदमी के चेहरे पर मुस्कान लाने में समर्थ हों। क्या ऐसा कुछ बताने और कहने के लिए हमारे पास है? यदि नहीं...तो अभी भी समय है भारत को महाशक्ति बनाना है, तो वह हर भारतीय की भागीदारी से ही सच होने वाला सपना है। देश के तमाम वंचित लोगों को छोड़कर हम अपने सपनों को सच नहीं कर सकते। क्या हम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं।
नए साल में तलाशिए सवालों के जवाबः
नया साल इन तमाम सवालों के जवाब खोजने की एक बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आया है। बीते साल में आतंकवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयता की तमाम गंभीर चुनौतियों के सामने हमारा तंत्र बहुत बेबस दिखा। बावजूद इसके लोकतंत्र में जनता की आस्था बची और बनी हुयी है। हमारी एकता को तोड़ने और मन को तोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद आम हिंदुस्तानी अपनी समूची निष्ठा से इस देश को एक देखना चाहता है। हमें नए साल-2010 में यह संकल्प लेना होगा कि हम लोकतंत्र में लोगों के भरोसे को जगा पाएं। उनकी उम्मीदों पर अवसाद की परतें न चढ़ने दें। नया साल सपनों में रंग भरने की हिम्मत, ताकत और जोश से भरा हो- आम हिंदुस्तानी तो इसी सपने को सच होते हुए देखना चाहता है। यह संयोग ही है कि नया साल और गणतंत्र दिवस हम एक ही महीने जनवरी में मनाते हैं। जाहिर तौर पर हर नए साल का मतलब कलैंडर का बदलना भर नहीं है वह उत्सव है संकल्प का, अपने गणतंत्र में तेज भरने का। आम आदमी में जो भरोसा टूटता दिखता है उसे जोड़ने का। गणतंत्र को तोड़ने या कमजोर करने में लगी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेरने का। जनवरी का महीना इसीलिए बहुत खास है क्योंकि यह महीना देश की अस्मिता को पहली बार झकझोर कर जगाने वाले सन्यासी विवेकानंद की जन्मतिथि( 12 जनवरी) का महीना है। जिन्होंने पहली बार भारत के दर्शन को विश्वमंच पर मान्यता ही नहीं दिलायी हमारे दबे-कुचले आत्मविश्वास को जागृत किया। यह महीना है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन ( 23 जनवरी) का जिन्होंने विदेशी सत्ता के दांत खट्टे कर दिए और विदेशी भूमि पर भारतीयों के सम्मान की रक्षा के लिए अपनी सेना खड़ी की। जाहिर तौर पर यह महीना सही संकल्पों और महानायकों की याद का महीना है। इससे हमें प्रेरणा लेने और आगे बढ़ने की जरूरत है। नया साल का सूरज हमें एक नयी रोशनी दे रहा है उसका उजास हमें नई दृष्टि दे रहा है। क्या हम इस रोशनी से सबक लेकर, अपने महानायकों की याद को बचाने और देश को महाशक्ति बनाने के सपने के साथ खड़ा होने का हौसला दिखाएंगें? अगर हम नए साल पर ऐसा कोई संकल्प ले पाते हैं तो यह भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
पूर्व राष्ट्रपति डा. एपीजे अब्दुल कलाम ने जब देश को 2020 में महाशक्ति बन जाने का सपना दिखाया था, तो वे एक ऐसी हकीकत बयान कर रहे थे, जो जल्दी ही साकार होने वाली है। आजादी के 6 दशक पूरे करने के बाद भारतीय लोकतंत्र एक ऐसे मुकाम पर है, जहाँ से उसे सिर्फ आगे ही जाना है। अपनी एकता, अखंडता और सांस्कृतिक व नैतिक मूल्यों के साथ पूरी हुई इन 6 दशकों की यात्रा ने पूरी दुनिया के मन में भारत के लिए एक आदर पैदा किया है। यही कारण है कि हमारे भारतवंशी आज दुनिया के हर देश में एक नई निगाह से देखे जा रहे हैं। उनकी प्रतिभा का आदर और मूल्य भी उन्हें मिल रहा है। अब जबकि हम फिर नए साल-2010 को अपनी बांहों में ले चुके हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हम उस सपने को कैसा पूरा कर सकते हैं जिसे पूरे करने के लिए सिर्फ दस साल बचे हैं। यानि 2020 में भारत को महाशक्ति बनाने का सपना।
एक साल का वक्त बहुत कम होता है। किंतु वह उन सपनों की आगे बढ़ने का एक लंबा वक्त है क्योंकि 365 दिनों में आप इतने कदम तो चल ही सकते हैं। आजादी के लड़ाई के मूल्य आज भले थोड़ा धुंधले दिखते हों या राष्ट्रीय पर्व औपचारिकताओं में लिपटे हुए, लेकिन यह सच है कि देश की युवाशक्ति आज भी अपने राष्ट्र को उसी ज़ज्बे से प्यार करती है, जो सपना हमारे सेनानियों ने देखा था। आजादी की जंग में जिन नौजवानों ने अपना सर्वस्व निछावर किया, वही ललक और प्रेरणा आज भी भारत के उत्थान के लिए नई पीढ़ी में दिखती है। हमारे प्रशासनिक और राजनीतिक तंत्र में भले ही संवेदना घट चली हो, लेकिन आम आदमी आज भी बेहद ईमानदार और नैतिक है। वह सीधे रास्ते चलकर प्रगति की सीढ़ियाँ चढ़ना चाहता है। यदि ऐसा न होता तो विदेशों में जाकर भारत के युवा सफलताओं के इतिहास न लिख रहे होते। जो विदेशों में गए हैं, उनके सामने यदि अपने देश में ही विकास के समान अवसर उपलब्ध होते तो वे शायद अपनी मातृभूमि को छोड़ने के लिए प्रेरित न होते। बावजूद इसके विदेशों में जाकर भी उन्होंने अपनी प्रतिभा, मेहनत और ईमानदारी से भारत के लिए एक ब्रांड एंबेसेडर का काम किया है। यही कारण है कि साँप, सपेरों और साधुओं के रूप में पहचाने जाने वाले भारत की छवि आज एक ऐसे तेजी से प्रगति करते राष्ट्र के रूप में बनी है, जो तेजी से अपने को एक महाशक्ति में बदल रहा है। आर्थिक सुधारों की तीव्र गति ने भारत को दुनिया के सामने एक ऐसे चमकीले क्षेत्र के रूप में स्थापित कर दिया है, जहाँ व्यवसायिक विकास की भारी संभावनाएं देखी जा रही हैं। यह अकारण नहीं है कि तेजी के साथ भारत की तरफ विदेशी राष्ट्र आकर्षित हुए हैं। बाजारवाद के हो-हल्ले के बावजूद आम भारतीय की शैक्षिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों में व्यापक परिवर्तन देखे जा रहे हैं। ये परिवर्तन आज भले ही मध्यवर्ग तक सीमित दिखते हों, इनका लाभ आने वाले समय में नीचे तक पहुँचेगा।
सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः
भारी संख्या में युवा शक्तियों से सुसज्जित देश अपनी आंकाक्षाओं की पूर्ति के लिए अब किसी भी सीमा को तोड़ने को आतुर है। युवाशक्ति तेजी के साथ नए-नए विषयों पर काम कर रही है, जिसने हर क्षेत्र में एक ऐसी प्रयोगधर्मी और प्रगतिशील पीढ़ी खड़ी की है, जिस पर दुनिया विस्मित है। सूचना प्रौद्योगिकी, फिल्में, कृषि और अनुसंधान से जुड़े क्षेत्रों या विविध प्रदर्शन कलाएँ हर जगह भारतीय प्रतिभाएँ वैश्विक संदर्भ में अपनी जगह बना रही हैं। शायद यही कारण है कि भारत की तरफ देखने का दुनिया का नजरिया पिछले एक दशक में बहुत बदला है। ये चीजें अनायास और अचानक घट गईं हैं, ऐसा भी नहीं है। देश के नेतृत्व के साथ-साथ आम आदमी के अंदर पैदा हुए आत्मविश्वास ने विकास की गति बहुत बढ़ा दी है। भ्रष्टाचार और संवेदनहीनता की तमाम कहानियों के बीच भी विश्वास के बीज धीरे-धीरे एक वृक्ष का रूप ले रहे हैं।
कई स्तरों पर बंटे समाज में भाषा, जाति, धर्म और प्रांतवाद की तमाम दीवारें हैं। कई दीवारें ऐसी भी कि जिन्हें हमने खुद खड़ा किया है और हमारा बुरा सोचने वाली ताकतें उन्हें संबल दे रही हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रश्न पर भी जब देश बँटा हुआ नज़र आता है, तो कई बार आम भारतीय का दुख बढ़ जाता है। घुसपैठ की समस्या भी एक ऐसी समस्या है जिससे लगातार नज़रअंदाज़ किया जा रहा है। किसी तरह भी वोट बैंक बनाने और सत्ता हासिल करने की होड ने तमाम मूल्यों को शीर्षासन करा दिया है। ऐसे में जनता के विश्वास की रक्षा कैसे की जा सकती है? आजादी के 60 साल के बाद लगभग वही सवाल आज भी खड़े हैं, जिनके चलते देश का बँटवारा हुआ और महात्मा गांधी जैसी विभूतियां भी इस बँटवारे को रोक नहीं पाईं। देश के अनेक हिस्सों में चल रहे अतिवादी आंदोलन, चाहे वे किसी नाम से भी चलाए जा रहे हों या किसी भी विचारधारा से प्रेरित हों। सबका उद्देश्य भारत की प्रगति के मार्ग में रोड़े अटकाना ही है। अनेक विकास परियोजनाओं के खिलाफ इनका हस्तक्षेप यह बताता है कि सारा कुछ बेहतर नहीं है। अपनी स्वभाविक प्रतिभा से नैसर्गिक विकास कर रहा यह देश आज भी एक भगीरथ की प्रतीक्षा में है, जो उसके सपनों में रंग भर सके। उन शिकायतों को हल कर सके, जो आम आदमी को परेशान और हलाकान करती रहती हैं। आजादी को सार्थक करने के लिए हमें साधन संपन्नों और हाशिये पर खड़े लोगों को एक तल पर देखना होगा। क्योंकि आजादी तभी सार्थक है, जब वह हिंदुस्तान के हर आदमी को समान विकास के अवसर उपलब्ध कराए। कानून की नजर में हर आदमी समान है, यह बात नारे में नहीं, व्यवहार में भी दिखनी चाहिए।
प्रजातंत्र को हकीकत में बदलने की जरूरतः
प्रजातंत्र के बारे में कहा जाता है कि वह सौ सालों में साकार होता है। भारत ने इस यात्रा की भी आधे से अधिक यात्रा पूरी कर ली है। बावजूद इसके हमें डा. राममनोहर लोहिया की यह बात ध्यान रखनी होगी कि ‘लोकराज लोकलाज से चलता है।’ इसी के साथ याद आते हैं पं. दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग, जिन्होंने एकात्म मानववाद का दर्शन देकर भारतीय राजनीति को एक ऐसी दृष्टि दी है, जिसमें आम आदमी के लिए जगह है। यह दर्शन हमें दरिद्रनारायण की सेवा की मार्ग पर प्रशस्त करता है। महात्मा गांधी भी अंतिम व्यक्ति का विचार करते हुए उसके लिए इस तंत्र में जगह बनाने की बात करते हैं। हमें सोचना होगा कि आजादी के इन 60 सालों में उस आखिरी आदमी के लिए हम कितनी जगह और कितनी संवेदना बना पाए हैं। प्रगति और विकास के सूचकांक तभी सार्थक हैं, जब वे आम आदमी के चेहरे पर मुस्कान लाने में समर्थ हों। क्या ऐसा कुछ बताने और कहने के लिए हमारे पास है? यदि नहीं...तो अभी भी समय है भारत को महाशक्ति बनाना है, तो वह हर भारतीय की भागीदारी से ही सच होने वाला सपना है। देश के तमाम वंचित लोगों को छोड़कर हम अपने सपनों को सच नहीं कर सकते। क्या हम इस जिम्मेदारी को उठाने के लिए तैयार हैं।
नए साल में तलाशिए सवालों के जवाबः
नया साल इन तमाम सवालों के जवाब खोजने की एक बड़ी जिम्मेदारी भी लेकर आया है। बीते साल में आतंकवाद, नक्सलवाद, क्षेत्रीयता की तमाम गंभीर चुनौतियों के सामने हमारा तंत्र बहुत बेबस दिखा। बावजूद इसके लोकतंत्र में जनता की आस्था बची और बनी हुयी है। हमारी एकता को तोड़ने और मन को तोड़ने के तमाम प्रयासों के बावजूद आम हिंदुस्तानी अपनी समूची निष्ठा से इस देश को एक देखना चाहता है। हमें नए साल-2010 में यह संकल्प लेना होगा कि हम लोकतंत्र में लोगों के भरोसे को जगा पाएं। उनकी उम्मीदों पर अवसाद की परतें न चढ़ने दें। नया साल सपनों में रंग भरने की हिम्मत, ताकत और जोश से भरा हो- आम हिंदुस्तानी तो इसी सपने को सच होते हुए देखना चाहता है। यह संयोग ही है कि नया साल और गणतंत्र दिवस हम एक ही महीने जनवरी में मनाते हैं। जाहिर तौर पर हर नए साल का मतलब कलैंडर का बदलना भर नहीं है वह उत्सव है संकल्प का, अपने गणतंत्र में तेज भरने का। आम आदमी में जो भरोसा टूटता दिखता है उसे जोड़ने का। गणतंत्र को तोड़ने या कमजोर करने में लगी ताकतों के मंसूबों पर पानी फेरने का। जनवरी का महीना इसीलिए बहुत खास है क्योंकि यह महीना देश की अस्मिता को पहली बार झकझोर कर जगाने वाले सन्यासी विवेकानंद की जन्मतिथि( 12 जनवरी) का महीना है। जिन्होंने पहली बार भारत के दर्शन को विश्वमंच पर मान्यता ही नहीं दिलायी हमारे दबे-कुचले आत्मविश्वास को जागृत किया। यह महीना है नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जन्मदिन ( 23 जनवरी) का जिन्होंने विदेशी सत्ता के दांत खट्टे कर दिए और विदेशी भूमि पर भारतीयों के सम्मान की रक्षा के लिए अपनी सेना खड़ी की। जाहिर तौर पर यह महीना सही संकल्पों और महानायकों की याद का महीना है। इससे हमें प्रेरणा लेने और आगे बढ़ने की जरूरत है। नया साल का सूरज हमें एक नयी रोशनी दे रहा है उसका उजास हमें नई दृष्टि दे रहा है। क्या हम इस रोशनी से सबक लेकर, अपने महानायकों की याद को बचाने और देश को महाशक्ति बनाने के सपने के साथ खड़ा होने का हौसला दिखाएंगें? अगर हम नए साल पर ऐसा कोई संकल्प ले पाते हैं तो यह भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगा।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
कहां खो गयी हैं खबरें
टीवी चैनलों की होड़ ने बदल दिए हैं समाचारों के मानक
-संजय द्विवेदी
खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर अब ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे । खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं।
दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपने असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसिर्गिकी विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही । एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हम पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए एक संतुलन बना पाएं तो यह बात हमारी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में सहायक होगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष,जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
Web-site- www.sanjaydwivedi.com
-संजय द्विवेदी
खबरिया चैनलों की होड़ और गलाकाट स्पर्धा ने खबरों के मायने बदल दिए हैं। खबरें अब सिर्फ सूचनाएं नहीं देती, वे एक्सक्लूसिव में बदल रही हैं। हर खबर अब ब्रेकिंग न्यूज में बदल जाना सिर्फ खबर की कलरिंग भर का मामला नहीं है। दरअसल, यह उसके चरित्र और प्रस्तुति का भी बदलाव है । खबरें अब निर्दोष नहीं रहीं। वे अब सायास हैं, कुछ सतरंगी भी।
खबरों का खबर होना सूचना का उत्कर्ष है, लेकिन जब होड़ इस कदर हो तो खबरें सहम जाती हैं, सकुचा जाती हैं और खड़ी हो जाती हैं किनारे । खबर का प्रस्तोता स्क्रीन पर आता है और वह बताता है कि यह खबर आप किस नज़र से देखेंगे। पहले खबरें दर्शक को मौका देती थीं कि वह समाचार के बारे में अपना नज़रिया बनाए। अब नज़रिया बनाने के लिए खबर खुद बाध्य करती है। आपको किस ख़बर को किस नज़रिए से देखना है, यह बताने के लिए छोटे पर्दें पर तमाम सुंदर चेहरे हैं जो आपको अपनी खबर के साथ बहा ले जाते हैं। ख़बर क्राइम की है तो कुछ खतरनाक शक्ल के लोग, खबर सिनेमा की है तो कुछ सुदर्शन चेहरे, ख़बर गंभीर है तो कुछ गंभीरता का लबादा ओढ़े चेहरे ! कुल मिलाकर मामला अब सिर्फ ख़बर तक नहीं है। ख़बर तो कहीं दूर बहुत दूर, खडी है...ठिठकी हुई सी। उसका प्रस्तोता बताता है कि आप ख़बर को इस नज़र देखिए। वह यह भी बताता है कि इस ख़बर का असर क्या है और इस खबर को देख कर आप किस तरह और क्यों धन्य हो रहे हैं ! वह यह भी जोड़ता है कि यह ख़बर आप पहली बार किसी चैनल पर देख रहे हैं।
दर्शक को कमतर और ख़बर को बेहतर बताने की यह होड़ अब एक ऐसी स्पर्धा में तब्दील हो गई है जहाँ ख़बर अपने असली व्यक्तित्व को खो देती है और वह बदल जाती है नारे में, चीख में, हल्लाबोल में या एक ऐसे मायावी संसार में जहाँ से कोई मतलब निकाल पाना ज्ञानियों के ही बस की बात है।
हर ख़बर कैसे ब्रेकिंग या एक्सक्लूसिव हो सकती है, यह सोचना ही रोचक है। टीवी ने खबर के शिल्प को ही नहीं बदला है। वह बहुत कुछ फिल्मों के करीब जा रही है, जिसमें नायक हैं, नायिकाएं हैं और खलनायक भी। साथ मे है कोई जादुई निदेशक । ख़बर का यह शिल्प दरअसल खबरिया चैनलों की विवशता भी है। चौबीस घंटे के हाहाकार को किसी मौलिक और गंभीर प्रस्तुति में बदलने के अपने खतरे हैं, जो कुछ चैनल उठा भी रहे हैं। पर अपराध, सेक्स, मनोरंजन से जुड़ी खबरें मीडिया की आजमायी हुई सफलता का फंडा है। हमारी नैसिर्गिकी विकृतियों का प्रतिनिधित्व करने वाली खबरें खबरिया चैनलों पर अगर ज्यादा जगह पाती हैं तो यह पूरा का पूरा मामला कहीं न कहीं टीआरपी से ही जाकर जुड़ता है। इतने प्रभावकारी माध्यम और उसके नीति नियामकों की यह मजबूरी और आत्मविश्वासहीनता समझी जा सकती है। बाजार में टिके रहने के अपने मूल्य हैं। ये समझौतों के रूप में मीडिया के समर्पण का शिलालेख बनाते हैं। शायद इसीलिए जनता का एजेंडा उस तरह चैनलों पर नहीं दिखता, जिस परिमाण में इसे दिखना चाहिए । समस्याओं से जूझता समाज, जनांदोलनों से जुड़ी गतिविधियाँ, आम आदमी के जीवन संघर्ष, उसकी विद्रूपताएं हमारे मीडिया पर उस तरह प्रस्तुत नहीं की जाती कि उनसे बदलाव की किसी सोच को बल मिले। पर्दें पर दिखती हैं रंगीनियाँ, अपराध का अतिरंजित रूप, राजनीति का विमर्श और सिनेमा का हाहाकारी प्रभाव । क्या खबरें इतनी ही हैं ?
बॉडी और प्लेजर की पत्रकारिता हमारे सिर चढ़कर नाच रही है। शायद इसीलिए मीडिया से जीवन का विमर्श, उसकी चिंताएं और बेहतर समाज बनाने की तड़प की जगह सिकुड़ती जा रही है। कुछ अच्छी खबरें जब चैनलों पर साया होती हैं तो उन्हें देखते रहना एक अलग तरह का आनंद देता है। एनडीटीवी ने ‘मेघा रे मेघा’ नाम से बारिश को लेकर अनेक क्षेत्रों से अपने नामवर रिपोर्टरों से जो खबरें करवाईं थीं वे अद्भूत थीं। उनमें भाषा, स्थान, माटी की महक, फोटोग्राफर, रिपोर्टर और संपादक का अपना सौंदर्यबोध भी झलकता है। प्रकृति के इन दृश्यों को इस तरह से कैद करना और उन्हें बारिश के साथ जोड़ना तथा इन खबरों का टीवी पर चलना एक ऐसा अनुभव है जो हमें हमारी धरती के सरोकारों से जोड़ता है। इस खबर के साथ न ब्रेकिंग का दावा था न एक्सक्लूसिव का लेकिन ख़बर देखी गई और महसूस भी की गई। कोकीन लेती युवापीढ़ी, राखी और मीका का चुंबन प्रसंग, करीना या सैफ अली खान की प्रेम कहानियों से आगे जिंदगी के ऐसे बहुत से क्षेत्र हैं जो इंतजार कर रहे हैं कि उनसे पास भी कोई रिपोर्टर आएगा और जहान को उनकी भी कहानी सुनाएगा । सलमाल और कैटरीना की शादी को लेकर काफी चिंतित रहा मीडिया शायद उन इलाकों और लोगों पर भी नज़र डालेगा जो सालों-साल से मतपेटियों मे वोट डालते आ रहे हैं, इस इंतजार में कि इन पतपेटियों से कोई देवदूत निकलेगा जो उनके सारे कष्ट हर लेगा ! लेकिन उनके भ्रम अब टूट चुके हैं। पथराई आँखों से वे किसी ख़बरनवीस की आँखें तकती है कि कोई आए और उनके दर्द को लिखे या आवाज़ दे। कहानियों में कहानियों की तलाश करते बहुत से पत्रकार और रिपोर्टर उन तक पहुँचने की कोशिश भी करते रहे हैं। यह धारा लुप्त तो नहीं हुई है लेकिन मंद जरूर पड़ रही है। बाजार की मार, माँग और प्रहार इतने गहरे हैं कि हमारे सामने दिखती हुई ख़बरों ने हमसे मुँह मोड़ लिया है। हम तलाश में हैं ऐसी स्टोरी की जो हमें रातों-रात नायक बना दे, मीडिया में हमारी टीआरपी सबसे ऊपर हो, हर जगह हमारे अखबार/चैनल की ही चर्चा हो। इस बदले हुए बुनियादी उसूल ने खबरों को देखने का हमारा नज़रिया बदल-सा दिया है। हम खबरें क्रिएट करने की होड़ में हैं क्योंकि क्रिएट की गई ख़बर एक्सक्लूसिव तो होंगी ही । एक्सक्लूसिव की यह तलाश कहाँ जाकर रूकेगी, कहा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हम पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों पर कायम रहते हुए एक संतुलन बना पाएं तो यह बात हमारी विश्वसनीयता और प्रामाणिकता को बनाए रखने में सहायक होगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
- संपर्कः अध्यक्ष,जनसंचार विभाग माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, प्रेस काम्पलेक्स, एमपी नगर, भोपाल (मप्र)
मोबाइलः 098935-98888 e-mail- 123dwivedi@gmail.com
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