माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय ,भोपाल के जनसंचार विभाग के छात्रों द्वारा संचालित ब्लॉग ..ब्लाग पर व्यक्त विचार लेखकों के हैं। ब्लाग संचालकों की सहमति जरूरी नहीं। हम विचार स्वातंत्र्य का सम्मान करते हैं।
Monday, November 23, 2009
अराजक राजनीति से जूझने का समय
- संजय द्विवेदी
लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर पाबंदी जरूरी
मुंबई में एक टीवी चैनल के कार्यालय पर शिवसेना का हमला एक ऐसी घटना है जिसकी निंदा से आगे बढ़कर इस सिलसिले को रोकने के लिए पहल करने की जरूरत है। शिवसेना ने कुछ नया नहीं किया। वही किया जो वे अरसे से करते आ रहे हैं। टीवी चैनलों ने सारा कुछ इतना तुरंत और जीवंत बना दिया है कि ये चीजें अब दर्ज होने लगी हैं। शिवसेना के रास्ते पर ही चलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके मदांध नेता राज ठाकरे अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी कि बाजार में अब दो गुंडे हैं।
शिवसेना हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों का डीएनए एक है। दोनों लोकतंत्र और संविधान को न मानने वाले दल हैं। हमारे लोकतंत्र की खामियों का फायदा उठाकर वे विधानसभा और संसद तक भले पहुंच जाएं पर वे कार्य और व्यवहार दोनो से अलोकतांत्रिक हैं। बाल ठाकरे के लोग सालों से पत्रकारों और अपने विरोधी विचारों से इसी तरह निपटते आए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में भरोसा होता तो ये पार्टी या राजनीतिक दल बनाते, सेना नहीं। सही मायने में ये लोकतंत्र में बाहुबल और शक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए आए हैं। इन्हें तर्क, संवाद और बातचीत में आस्था नहीं है। ये तो शक्ति के आराधक हैं जो शिवाजी महाराज का नाम भी लेते हैं और महिलाओं पर भी हाथ उठाने से इन्हें गुरेज नहीं है। मराठा संस्कृति को आज ये जैसी पहचान दे रहे हैं उससे वह कलंकित ही हो रही है। सही मायने में यह हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलता है कि हम ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने में खुद को विफल पा रहे हैं। शिवसेना सही मायने में एक ऐसा दल है जिसके पास कोई वैचारिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है। वह शिवाजी महाराज का नाम लेकर एक भावुक अपील पैदा करने की कोशिश तो करता है पर शिवाजी के आर्दशों से उसका कोई लेना देना नहीं है। आम मजदूर और मेहनतकश आदमी के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने वाली शिवसेना और मनसे जैसे दल पूंजीपतियों से हफ्ता वसूली करके अपनी राजनीति को आधार देते रहे हैं। पैसा वसूली और भयादोहन के आधार पर अपनी राजनीति को चलाने वाले ये लोग बेहद डरे और धबराए हुए लोग हैं इसीलिए संवाद के बजाए ये हमेशा जोर आजमाइश पर उतर आते हैं।
कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों की विफलता यही है कि वे ऐसी अराजक क्षेत्रीय ताकत के साथ खड़े नजर आते हैं। भाजपा जहां शिवसेना की साझीदार है वहीं कांग्रेस के ऊपर शिवसेना और अब मनसे को फलने- फूलने के अवसर देने के आरोप हैं। कभी कांग्रेस की राजनीति में कद्दावर रहे तमाम नेताओं के साथ शिवसेना प्रमुख के रिश्तों के चलते ही उसे महाराष्ट्र की राजनीति में बढ़त मिली। आज आरोप यह है कि कांग्रेस की सरकार के ढीलेपन के चलते ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपनी गुंडागर्दी जारी रखे हुए है। उनकी हिम्मत यह है कि वे विधानसभा में भी हाथापाई कर रहे हैं और विधायकों को पत्र लिखकर धमका भी रहे हैं। अब मनसे स्टेट बैंक आफ इंडिया के अफसरों और उसके परीक्षार्थियों को धमकाने का काम कर रहा है। राज्य की यह कमजोरी ही गांवों से लेकर शहर और जंगलों तक एक अशांति का वातावरण बनाने में मदद कर रही है। क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक मचाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं। इन्हें भड़काने वाले लोंगों की जगह क्या जेल में नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोग सही मायनों में इस देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा हैं। उनसे कड़ाई से निपटना हमारे राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी है। पर हमारी सरकारें निरूपाय दिखती हैं। बलवा करने वाले और करवाने वाले दोनों को दंडित करने का साहस हम क्यों नहीं पाल पा रहे हैं। मुंबई जैसा शहर यदि ऐसी अराजकता का केंद्र बना रहा तो हम क्या मुंह लेकर दुनिया के सामने जाएंगें। मुंबई में 26.11.2008 जैसी घटनाएं हो जाती हैं तो हम यह कहते हैं कि पड़ोसी देश ने साजिश की, यह जो सड़कों पर नंगा नाच हमारे अपने लोग ही भारतीय नागरिकों के खिलाफ कर रहे हैं उसका क्या। आस्ट्रेलिया में भारतवंशी छात्रों के उत्पीड़न पर हम रोज चिंता जता रहे हैं, आस्ट्रेलिया की सरकार को लांछित कर रहे हैं। यहां अपने ही देश में प्रतियोगी परिक्षाएं दे रहे छात्रों को लोग मारते हैं तो हम क्या कर पा रहे हैं। सही मायने में भारतीय राज्य अपने नागरिकों की रक्षा और उनके शांतिपूर्ण जीवन-यापन की स्थितियां भी पैदा नहीं कर पा रहा है। कुछ मुट्टी भर लोग कभी शिवसैनिक बनकर, कभी आतंकवादी बनकर, कभी नक्सलवादी बनकर, कभी मनसे कार्यकर्ता बनकर भारतीय जनता पर अत्याचार करते रहेगें और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं।
मीडिया को भी इन स्थितियों के खिलाफ सामने आना होगा। ये सारी चुनौतियां दरअसल हमारे लोकतंत्र के खिलाफ हैं। सो हमें लोकतंत्र और देश को बचाना है तो सारे विवाद भूलकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा जो संवाद के बजाए बाहुबल या बंदूकों से फैसला करना चाहती हैं। अभी जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो यही मीडिया विधानसभा की तेरह सीटें जीतने वाले राज को हीरो बना रहा था। उन पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे। आखिर ऐसी अराजक प्रवृत्तियों का महिमामंडन करने से हम कब बाज आएंगें। कारण यही है इनके बेलगाम हाथ अब मीडिया के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं। आज हमें बहुत दर्द हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा अब हिलने लगा है। गुंडों और अराजक राजनीति को महत्वपूर्ण बनाने का जो काम मीडिया और खासकर टीवी मीडिया जिस अंदाज में कर रहा है उसपर भी सोचने की जरूरत है। मीडिया को भी ऐसे अराजक तत्वों के महिमामंडन से बाज आना होगा क्योंकि इससे इनकी धृणा की राजनीति को ही विस्तार व समर्थन मिलता है। सही मायनों में हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर तुरंत पाबंदी लगाई जानी चाहिए और इसके नेताओं को तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल देना चाहिए। इससे इस घातक प्रवृत्ति का विस्तार रोका जा सकेगा वरना भारतीय राज्य और लोकतंत्र दोनों को चुनौती देने वाली ऐसी ताकतें कई राज्यों में सिर उठा सकती हैं। क्योंकि क्षेत्रीयता और भाषा की गंदी राजनीति से देश वैसे भी काफी नुकसान उठा चुका है। हम आज भी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
संपर्कः अध्यक्ष , जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्ववि
इस ‘राज’ नीति से देश को बचाइए
- कृष्णकुमार तिवारी
राजनीतिक लाभ के लिए क्या देश के साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ किया जा सकता है? यदि उत्तर नहीं है तो फिर राज ठाकरे या उनकी पार्टी किस व्यवहार का परिचय दे रही है? राष्ट्रभाषा कही जाने वाली भाषा हिन्दी के साथ इतना घृणापूर्ण व्यवहार आखिर क्यों? भाषा एवं क्षेत्रीयता पर आधारित राजनीति कुएं में टर्राते मेंढक के समान है जो कुएं में रहकर खूब- उछलकूद करता है लेकिन वह केवल और केवल उसी कुएं भर में रह जाता है। इस बात की शिक्षा राज ठाकरे को अपने चाचा बाला साहेब ठाकरे से लेनी चाहिए।
हिंदी से इतनी घृणा कि फिल्म में मुबंई के स्थान पर बंबई बोलने पर कभी करण जौहर को राज से माफी मांगनी पड़ती है तो कभी उद्धव के कहने पर मराठी मानुष से माफी मांगनी पड़ती है। वैसे यह घटना पहली नहीं है इससे पहले मणिरत्नम की फिल्म बांबे के लिए उन्हें बाला साहेब ठाकरे के घर मातोश्री जाकर मांफी मांगनी पड़ी थी। उत्तर भारतीयों खिलाफ, फिर हिंदी के खिलाफ अभियान यह सारी ओछी राजनीति या कहें विभाजनकारी राजनीति है। क्योंकि आज जो महाराष्ट्र में हो रहा है यदि वह सारे देश में चालू हो जाए तो राज ठाकरे खुद कहां जायेंगें? क्योंकि दूसरे प्रदेशों में उत्तर भारतीयों की तरह अन्य भाषाभाषियों के खिलाफ भी प्रतिक्रिया हो सकती है। राज ठाकरे यह भूल रहे हैं यही हिंदी थी और यही उत्तर भारत था जिसके द्वारा कभी न डूबने वाले राज का सूरज डूबा दिया था। यहीं सारे बड़े-बड़े आंदोलन खड़े हुए जिनकी बदौलत आज देश आजाद है। लेकिन आजादी के 62 वर्ष के बाद भी देश को पुनः टुकड़ो में बांटने की कोशिश की जा रही है।
पिछले दो जनगणनाओं के अनुसार आबादी की वृद्धि दर महाराष्ट्र में 2.62, सूरत में 6.16, पटना में वृद्धि दर 4.40 तथा सबसे तेज बढ़ती दिल्ली जिसकी वृद्धि 4.18 है। ऐसे में देखा जाए तो पायेंगे कि महाराष्ट्र के दुगने की दर से पटना की जनसंख्या बढ़ रही है। मुंबई पर अपना हक जताने वाले शायद मुंबई के इतिहास से परिचित नहीं है। मुंबई का पुराना नाम बोम् बइया था जो कि पुर्तगालियों द्वारा रखा गया था। जिसका अर्थ था अच्छी घाटी। बंबई का विकास सात द्वीपों की दलदली भूमि से हुआ जिस पर 1654-1661 तक पुर्तगालियों का शासन था। यह बंबई इंग्लैंड़ के बादशाह चार्ल्स द्वितीय को दहेज के रुप में मिला था। बादशाह ने दस पौंड़ के वार्षिक कर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सन् 1669 में दे दिया। 1818 में पेशवा शासन के अंत के बाद अंग्रेजों ने सारे दक्षिणी पठार पर अधिकार कर बंबई का विकास किया बंबई के विकास में जिनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था उनमें जमशेद जी भाई, प्रेमचंद्र रायचंद्र, भाऊदाजी लाड़, दादा भाई नौरौजी इत्यादि थे। इनमें से केवल एक महाराष्ट्रियन जांभेकर को छोड़कर सभी अन्य भाषाभाषी थे। नाना शंकर जिनका विकास में विशेष योगदान था वह गुजराती थे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाना शंकर सेठ 12 साल तक अध्यक्ष रहे। इन्हीं के द्वारा 1845 में स्थापित एल.फिस्टन.कॉलेज और 1857 में बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। शिवाजी और पेशवा मराठा साम्राज्य का उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली शिवसेना या मनसे यह भूल गयी हैं कि वे खुद उत्तर भारत के हैं। बाला साहेब ठाकरे के पिता जो बड़े लेखक और खोजी इतिहासकार थे यह बता गए कि ठाकरे यानि चंद्रसेन कायस्थ प्रभु बिहार से आए थे। चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वज पाटिलिपुत्र सम्राट महापदमनंद (शूद्र) के कुकृति से संतृप्त होकर वहां से भागे और महाराष्ट्र में आकर बसे। इस प्रकार से तो ये मूलतः बिहारी हैं । चर्चिल ने शायद इन्हीं परिस्थितयों को सोचकर कहा होगा कि भारतीय शासन करना नहीं जानते और इनकी आजादी होने में इनकी ही बरबादी है और इसी का उदाहरण है अबू आजमी को मनसे के विधायकों के द्वारा हिंदी में शपथ लेते समय चांटा मारा जाना। हकीकत तो यह कि बंटवारे की राजनीति आपको ही आपको ही अकेला छोड़ देगी और राज ठाकरे का भी वही हाल होगा जो बाला साहेब ठाकरे का हुआ है या हो रहा है। एक समय बाद जनता खुद जानेगी और इसका खुद प्रतीकात्मक उत्तर देगी।
( लेखक एमए – जनसंचार के पहले सेमेस्टर के छात्र हैं।)
राजनीतिक लाभ के लिए क्या देश के साथ किसी भी प्रकार का खिलवाड़ किया जा सकता है? यदि उत्तर नहीं है तो फिर राज ठाकरे या उनकी पार्टी किस व्यवहार का परिचय दे रही है? राष्ट्रभाषा कही जाने वाली भाषा हिन्दी के साथ इतना घृणापूर्ण व्यवहार आखिर क्यों? भाषा एवं क्षेत्रीयता पर आधारित राजनीति कुएं में टर्राते मेंढक के समान है जो कुएं में रहकर खूब- उछलकूद करता है लेकिन वह केवल और केवल उसी कुएं भर में रह जाता है। इस बात की शिक्षा राज ठाकरे को अपने चाचा बाला साहेब ठाकरे से लेनी चाहिए।
हिंदी से इतनी घृणा कि फिल्म में मुबंई के स्थान पर बंबई बोलने पर कभी करण जौहर को राज से माफी मांगनी पड़ती है तो कभी उद्धव के कहने पर मराठी मानुष से माफी मांगनी पड़ती है। वैसे यह घटना पहली नहीं है इससे पहले मणिरत्नम की फिल्म बांबे के लिए उन्हें बाला साहेब ठाकरे के घर मातोश्री जाकर मांफी मांगनी पड़ी थी। उत्तर भारतीयों खिलाफ, फिर हिंदी के खिलाफ अभियान यह सारी ओछी राजनीति या कहें विभाजनकारी राजनीति है। क्योंकि आज जो महाराष्ट्र में हो रहा है यदि वह सारे देश में चालू हो जाए तो राज ठाकरे खुद कहां जायेंगें? क्योंकि दूसरे प्रदेशों में उत्तर भारतीयों की तरह अन्य भाषाभाषियों के खिलाफ भी प्रतिक्रिया हो सकती है। राज ठाकरे यह भूल रहे हैं यही हिंदी थी और यही उत्तर भारत था जिसके द्वारा कभी न डूबने वाले राज का सूरज डूबा दिया था। यहीं सारे बड़े-बड़े आंदोलन खड़े हुए जिनकी बदौलत आज देश आजाद है। लेकिन आजादी के 62 वर्ष के बाद भी देश को पुनः टुकड़ो में बांटने की कोशिश की जा रही है।
पिछले दो जनगणनाओं के अनुसार आबादी की वृद्धि दर महाराष्ट्र में 2.62, सूरत में 6.16, पटना में वृद्धि दर 4.40 तथा सबसे तेज बढ़ती दिल्ली जिसकी वृद्धि 4.18 है। ऐसे में देखा जाए तो पायेंगे कि महाराष्ट्र के दुगने की दर से पटना की जनसंख्या बढ़ रही है। मुंबई पर अपना हक जताने वाले शायद मुंबई के इतिहास से परिचित नहीं है। मुंबई का पुराना नाम बोम् बइया था जो कि पुर्तगालियों द्वारा रखा गया था। जिसका अर्थ था अच्छी घाटी। बंबई का विकास सात द्वीपों की दलदली भूमि से हुआ जिस पर 1654-1661 तक पुर्तगालियों का शासन था। यह बंबई इंग्लैंड़ के बादशाह चार्ल्स द्वितीय को दहेज के रुप में मिला था। बादशाह ने दस पौंड़ के वार्षिक कर पर ईस्ट इंडिया कंपनी को सन् 1669 में दे दिया। 1818 में पेशवा शासन के अंत के बाद अंग्रेजों ने सारे दक्षिणी पठार पर अधिकार कर बंबई का विकास किया बंबई के विकास में जिनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान था उनमें जमशेद जी भाई, प्रेमचंद्र रायचंद्र, भाऊदाजी लाड़, दादा भाई नौरौजी इत्यादि थे। इनमें से केवल एक महाराष्ट्रियन जांभेकर को छोड़कर सभी अन्य भाषाभाषी थे। नाना शंकर जिनका विकास में विशेष योगदान था वह गुजराती थे।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नाना शंकर सेठ 12 साल तक अध्यक्ष रहे। इन्हीं के द्वारा 1845 में स्थापित एल.फिस्टन.कॉलेज और 1857 में बंबई विश्वविद्यालय की स्थापना की थी। शिवाजी और पेशवा मराठा साम्राज्य का उत्तराधिकारी होने का दावा करने वाली शिवसेना या मनसे यह भूल गयी हैं कि वे खुद उत्तर भारत के हैं। बाला साहेब ठाकरे के पिता जो बड़े लेखक और खोजी इतिहासकार थे यह बता गए कि ठाकरे यानि चंद्रसेन कायस्थ प्रभु बिहार से आए थे। चंद्रगुप्त मौर्य के पूर्वज पाटिलिपुत्र सम्राट महापदमनंद (शूद्र) के कुकृति से संतृप्त होकर वहां से भागे और महाराष्ट्र में आकर बसे। इस प्रकार से तो ये मूलतः बिहारी हैं । चर्चिल ने शायद इन्हीं परिस्थितयों को सोचकर कहा होगा कि भारतीय शासन करना नहीं जानते और इनकी आजादी होने में इनकी ही बरबादी है और इसी का उदाहरण है अबू आजमी को मनसे के विधायकों के द्वारा हिंदी में शपथ लेते समय चांटा मारा जाना। हकीकत तो यह कि बंटवारे की राजनीति आपको ही आपको ही अकेला छोड़ देगी और राज ठाकरे का भी वही हाल होगा जो बाला साहेब ठाकरे का हुआ है या हो रहा है। एक समय बाद जनता खुद जानेगी और इसका खुद प्रतीकात्मक उत्तर देगी।
( लेखक एमए – जनसंचार के पहले सेमेस्टर के छात्र हैं।)
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