Saturday, July 30, 2011

चीनी ड्रैगन के कसते शिकंजे की अनदेखी खतरनाक



BHOPAL,
30 JULY 2011,
KUNDAN PANDEY

चीनी ड्रैगन की ताकत को शब्दों में बताने का एक कुत्सित प्रयास ही कहा जायेगा कि चीन विश्व का एकमात्र ऐसा देश है जो प्रतिदिन 1 अरब डॉलर अधोसंरचना निर्माण में खर्च करता है। चीन का विनिर्माण उत्पादन 1,995 अरब डॉलर हो गया है। यह अमेरिका एवं अमेरिका के बाद के शीर्ष 6 देशों के योग से भी अधिक है। यह विश्व में वस्तुओं का सबसे बड़ा निर्यातक बन चुका है। चीन का विदेशी मुद्रा भण्डार गत वर्षान्त तक तकरीबन 2500 अरब डॉलर था। चीन ने फॉरेन रिजर्व, निर्यात व विनिर्माण के आधार पर युआन को विशेष आहरण अधिकार (एसडीआर) वाली मुद्रा का दर्जा देने की मांग की है जिसका विश्व बैंक अध्यक्ष रॉबर्ट जोएलिक ने भी समर्थन किया है।
चीन आधुनिक हथियारों के निर्माण में न केवल आत्मनिर्भर है बल्कि इन हथियारों के पाक जैसे देशों को निर्यात से विदेशी मुद्रा भी अर्जित करता है। उसके पास स्वविकसित व राडार की पकड़ में नहीं आने वाले पांचवी पीढ़ी के स्टील्थ समुद्री जहाज व स्टील्थ फाईटर प्लेन हैं। जिनका वह सफल परीक्षण कर चुका है। उसकी सेना के तीनों अंग हमारी सेना से मौटे तौर पर लगभग दोगुनी क्षमता रखते हैं। युगांतकारी सेनानायक नेपोलियन ने चीन के बारे में सत्य ही कहा था कि “चीन को सोने दो, क्योंकि वह अगर जाग गया तो दुनिया हिल जायेगी”। विश्व को तो नहीं लेकिन भारत को हर मोर्चे पर हिलाकर गर्त में ढ़केलने की रणनीति पर चीन मुस्तैदी से तन्मय-तत्पर होकर कार्य कर रहा है।
माओत्से तुंग ने चीन के विस्तारवादी महत्वाकांक्षा का एक पत्रावली में जिक्र करते हुए लिखा है कि, “तिब्बत; लद्दाख, सिक्किम, नेपाल, भूटान और अरुणाचल रूपी 5 उंग्लियों की हथेली है”। तुंग ने हथेली को उसकी पांचों उंग्लियों से जोड़ने का जो आह्वान किया था, अपनी आर्थिक और सामरिक स्वावलम्बल को मजबूत करते हुए चीन इन वर्षों में इन उंग्लियों को पाने के लिए जोर-शोर से ठोस रणनीतिक कवायद कर रहा है। इसके लिए वह विश्व के समस्त नियमों को तोड़ने से भी नहीं हिचक रहा है।
चीन ने एशियाई विकास बैंक से अरूणाचल प्रदेश को मिलने वाले ऋण को, इस प्रदेश को विवादास्पद कह कर रूकवा दिया। चुनाव प्रचार के लिए तवांग गए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चीन ने खुलकर विरोध किया था। 1962 के युद्ध में चीन ने हमसे लद्दाख, सिक्किम और अरूणाचल प्रदेश में पड़ने वाली तकरीबन 40 हजार वर्ग मील जमीन हड़प ली। युद्ध में भारत की पराजय के बाद पाक ने पीओके का लगभग 5 हजार किमी हिस्सा को 1963 में चीन को यह समझ कर दे दिया कि मुझसे तो भारत लड़कर सारा कश्मीर कभी भी ले सकता है, परन्तु चीन से भारत शायद ही कभी युद्ध में जीत सके।
चीन निश्चित रूप से भारत से बड़ी आर्थिक शक्ति है, परन्तु यह आर्थिक ताकत विकसित देशों; अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस की तरह सीधे-सीधे साम्राज्यवादी लूट से तो नहीं, लेकिन आर्थिक बेईमानी से जरूर हासिल की गई है। चीन ने निर्यात में झंडा गाड़ने के लिए 1978 से ही अपनी मुद्रा का अवमूल्यन करना शूरू कर दिया, जिसको 682 युआन प्रति डॉलर पर लाकर चीन ने स्थिर कर दिया है। भारत में यह डॉलर-रूपया विनिमय दर 45-50 के दरम्यान ही रहता है। भारत भी डॉलर के मुकाबले रूपये की विनिमय दर 600 के आस-पास करके अपनी आर्थिक प्रगति को तेज कर सकता है।
चीनी कम्पनी यदि 1 डॉलर का सामान विदेशों में निर्यात करती हैं तो बदले में उसको अपने देश की 682 युआन मिलेंगे। भारत में यह केवल 45 रूपए होगा। यह तो निहायती बेईमानी है। विश्वविख्यात अर्थशास्त्री क्रुगमैन ने चीन के बारे में ठीक कहा है कि, “चीन यदि युआन को लेकर ईमानदारी बरतता तो विश्व की विकास दर गत 5-6 सालों में औसतन डेढ़ प्रतिशत से अधिक होती, चीन ने अपनी मुद्रा युआन के 600 प्रतिशत से अधिक अवमूल्यन से अन्य व्यापारिक साझीदार देशों की विकास दर को हड़प लिया”।
चीन का श्रम विश्व में सबसे सस्ता है। बेईमानी की पूंजी भी भारत से अधिक है ही। मानव संसाधन, विश्व में सबसे अधिक उसके पास है। 2008 के लगभग पाश्चात्य मल्टीनेशनल कम्पनियों के लगभग 70 प्रतिशत तक के शेयर, चीनी सरकार ने बाजार मूल्य देकर शेयर मार्केट से केवल इसलिए खरीद लिया कि इनके सारे लाभ, पूंजी और नीतियों को वह नियंत्रित कर सके। भारत सरकार ऐसा शायद सोचे ही नहीं क्योंकि देश के भीतर और बाहर के कालाधन को लाने में सरकार की नीयत साफ नहीं लग रही, जब तक सोचेगी तब तक स्याह धन का अधिकांश सफेद धन में तब्दील हो चुका होगा।
चीन की अधिकतर क्षेत्रों में बढ़ती ताकत का सबसे बड़ा कारण, वहां लोकतंत्र का न होना है। इसके कारण वहां देश हित के फैसले, दिनों में; बिना वाद-विवाद, धरना-प्रदर्शन और आन्दोलन के हो जाते हैं। विशेष आर्थिक जोन (सेज) की अवधारणा भारत में चीन से आयी है। चीन में तो इस पर कोई बवाल नहीं हुआ परन्तु भारत में तो लोकतंत्र के कारण विरोध होंगे ही। चीन में राष्ट्रीय हित में फैसले एक दिन में भी लोकतंत्र न होने से लिए जा सकते हैं, लेकिन भारत में लोकतंत्र के कारण लोकपाल जैसे फैसलों में वर्षों लगते जाते हैं।
न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार पाक ने पीओके के गिलगित और बाल्टिस्तान जैसे उत्तरी इलाकों को चीन को सौंप दिया है, क्योंकि ये सामरिक रूप से महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ, यहां के स्थानीय निवासियों को पाक अपना प्रबल विरोधी मानता है। इससे यह अर्थ निकाला जा सकता है कि यहां विद्रोह की संभावना प्रबल है। रिपोर्ट के मुताबिक पीओके के गिलगित व बाल्टिस्तान में चीन के लगभग 11 हजार सैनिक तैनात हैं, जो निश्चित रूप से शांति सैनिक तो नहीं है। चीन खुलकर भारत की सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का विरोध करता रहता है। वियना में हुए भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के तीव्र विरोध के बाद चीन ने न्यूक्लियर सप्लॉयर ग्रुप से भारत को बिना शर्त छूट मिलने का भी विरोध किया था।
नई दिल्ली स्थित ‘थिंक टैंक इंस्टीट्यूट ऑफ डिफेन्स स्टडीज एंड एनालिसिस’ की रिपोर्ट में ऐसी आशंका व्यक्त की गयी है कि चीन 2020 तक पीओके पर अपना कब्जा कर लेगा। रिपोर्ट में कराकोरम हाईवे से गुपचुप तरीके से परमाणु सामग्री को चीन से पाक भेजने की संभावना व्यक्त की गई है। ऐसा होने पर भारत को कश्मीर को बचाये रखने के लिए पाक के साथ ही साथ, चारों तरफ से चीन से भी जूझना पड़ सकता है। जो भारत 60 से अधिक वर्षों में तीन बार पाक द्वारा थोपी गई लड़ाई को जीतकर पूरा कश्मीर नहीं ले पाया, वो चीन से शायद ही युद्ध जीतकर कश्मीर ले पाये।
सीमा पर तैनात उत्तरी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल के. टी. पटनायक के एक सेमिनार में कहे गये तथ्यार्थों से संकेत मिलता है कि चीन पीओके में पन बिजली, पुल, कई सड़कें, कराकोरम नेशनल हाईवे व शिनजियांग प्रांत के शहर ‘खासघर’ से ग्वादर बंदरगाह तक रेलवे लाईन बिछाकर, भारत पर चारो तरफ से भीषण हमला करने की चौतरफा तैयारी कर रहा है। ग्वादर को चीन अपनी नौसेना का बेस बना रहा है। रेलवे से वहां पर उसकी सेना काफी कम समय में पहुंच जायेगी, जबकि भारतीय सेना सरकार से 26 वर्षों से तोपों के आधुनिकीकरण करने की गुहार ही लगा रही है।
वाशिंगटन स्थित सामरिक संस्थान ‘सेंटर फॉर ए न्यू अमेरिकन सिक्योरिटी’ के विशेषज्ञ रॉबर्ट कपलान के कथनार्थों के अनुसार “चीन कुछ नये बंदरगाहों का निर्माण करके हिंद महासागर में भी भारत को चुनौती देना चाहता है”। चीन बंग्लादेश के चितागोंग व हमबांतोला, पाकिस्तान में ग्वादर के साथ ही साथ बर्मा और श्रीलंका में भी बंदरगाह बना रहा है जिससे हिंद महासागर में भारत को चारो दिशाओं से घेर सके।
इसके अतिरिक्त चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर बांध बनाकर पं. बंगाल व असम की जनता को या तो प्यास व सूखे से मार सकता है या तो फसल को असिंचित करके नष्ट कर सकता है तथा अधिक वर्षा होने पर बांध को खोलकर इन दोनों प्रदेशों को भारी बाढ़ में झोंक देगा। पूर्वोत्तर के उग्रवादियों तथा नक्सलियों को चीन द्वारा हथियार और धन देने के आरोप लगते रहे हैं। बंग्लादेश, श्रीलंका व पाक के साथ भारत विरोधी गठजोड़ बनता साफ-साफ प्रतीत हो रहा है।
चीन, भारत की उत्तर तथा पश्चिम सीमा तक कम समय में पहुंचने के लिए सड़क, रेलवे लाइन्स, हवाई अड्डों तथा अन्य संसाधनों का खुलकर विकास कर रहा है। मेड इन चाइना के सस्ते मालों से भारत को पाटकर भारत की अर्थव्यवस्था को खोखला करता है। भारत सरकार से 1962 की तरह ही चीन को रणनीतिक रूप से समझने-निपटने में कहीं ‘देर ना हो जाय’। जे एम लिंगदोह के शब्दों में ‘राजनेता कैंसर हैं जिनका इलाज अब संभव नहीं’। ऐसे राजनेताओं का तो इस देर से कुछ नहीं बिगड़ेगा, परन्तु देश की कुछ और हजार वर्ग किमी जमीन को चीन हमेशा-हमेशा के लिए अवश्य ही हड़प लेगा।
(लेखक युवा पत्रकार हैं।)

Monday, July 4, 2011

मीडिया विमर्श का उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित अंक प्रकाशित


भोपाल,2 जुलाई, 2011। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का ताजा अंक (जून,2011) उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित है। इस अंक में देश के प्रख्यात उर्दू पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के आलेख हैं। अंक के अतिथि संपादक जाने-माने उर्दू पत्रकार श्री तहसीन मुनव्वर हैं।
इस अंक में उर्दू के पांच बड़े पत्रकारों दैनिक एतमाद के सलाहकार संपादक नसीम आरफी, सियासत के संपादक जाहिद अली खान, रहनुमा-ए-दक्कन के संपादक सैय्यद विकारूद्दीन, वरिष्ठ पत्रकार अशफाक मिशहदी नदवी, यूएनआई उर्दू सर्विस के पूर्व संपादक शेख मंजूर अहमद और डेली नदीम के संपादक कमर अशफाक से विशेष साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं। इसके अलावा ऐतिहासिक प्रसंगों पर डा. अख्तर आलम, डा. ए.अजीज अंकुर, इशरत सगीर और डा. जीए कादरी के लेख हैं, जिनमें उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास पर रोशनी डाली गयी है।
उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर विमर्श खंड में सर्वश्री फिरोज अशरफ, असद रजा, शाहिद सिद्दीकी, मासूम मुरादाबादी, संजय द्विवेदी, फिरदौस खान, उर्वशी परमार के लेख हैं। इसके अलावा नजरिया खंड में उर्दू पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर बेहद महत्वपूर्ण सामग्री का संयोजन किया गया है जिसमें आरिफ अजीज, राजेश रैना, शारिक नूर, डा. माजिद हुसैन, आरिफ खान मंसूरी के लेख हैं।
विचारार्थ खंड में समाजवादी विचारक रघु ठाकुर, उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में प्राध्यापक एहतेशाम अहमद खान, पत्रकार ए. एन.शिबली, एजाजुर रहमान के लेख प्रस्तुत किए गए हैं। डा. निजामुद्दीन फारूखी ने उर्दू और रेडियो के रिश्ते पर एक बेबाकी से लिखा है। बिहार की उर्दू पत्रकारिता पर संजय कुमार और इलाहाबाद की उर्दू पत्रकारिता पर धनंजय चोपड़ा का लेख बहुत सारी जानकारियां समेटे हुए है। उर्दू पत्रकारिता में महिलाओं के योगदान पर डा. मरजिया आऱिफ ने बेहद शोधपरक लेख प्रस्तुत किया है। मीडिया विमर्श का यह अंक 25 रूपए में उपलब्ध है तथा पत्रिका की वार्षिक सदस्यता सौ रूपए है। पाठकगण निम्न पते पर अपना शुल्क भेजकर अपनी प्रति प्राप्त कर सकते हैं- संपादकः मीडिया विमर्श, 428- रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 (मप्र)