Wednesday, April 20, 2011

भारत में चुनाव सुधार नहीं चाहते राजनीतिक दल




भोपाल, 20 april 2011,
कुन्दन पाण्डेय MAMC IV SEM



तमिलनाडु में अब तक चुनाव आयोग 42 करोड़ रुपए जब्त कर चुका है, साथ ही चुनाव समाप्ति से पूर्व ही आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के 57 हजार से अधिक मामले दर्ज किए जा चुके हैं। दरअसल तमिलनाडु में वोटों के लिए महंगे गिफ्ट एवं नकदी बांटने की परम्परा से वहां का मतदाता इस बार भी कुछ पाने की आशा कर रहा है, दल इस बार भी उपहार देना चाहते हैं। लेकिन, चुनाव आयोग इस बार बहुत अधिक सख्त हो गया है। देश का चुनाव आयोग चुनाव सुधार करने के लिए सतत प्रयत्नशील है क्या? इस बार चुनाव आयोग ने सभी प्रत्याशियों को अपने समस्त चुनाव खर्च एक नये बैंक खाते खोलकर करना अनिवार्य कर दिया है।
इसके बावजूद करोड़ों रुपए का पकड़ा जाना गंभीर चिंता का विषय किसके लिए है? चिंतनीय विषय यह भी है कि देश में चुनाव जीतने के लिए 3-एम को पहली आवश्यकता माना जा रहा है वह है- माफिया, मनी और मैन पॉवर। यह विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के सबसे विकृत स्वरुपों में से एक है। आइवर जेनिंग्स ने लोकतंत्र को एक खर्चीली व्यवस्था कहा है, लेकिन यह तो पूर्ण भ्रष्ट व्यवस्था है। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन द्वारा मतदाताओं के पहचान पत्र बनवाने की व्यवस्था से फर्जी मतदान पर काफी हद तक रोक लग चुकी है। लेकिन, राजनीतिक दलों में शुचिता के लिए चुनाव आयोग को अभी बहुत कुछ करना बाकी है। खासकर चुने हुए जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने तथा चुनावों में खड़े सभी प्रत्याशियों को नकार करके नकारात्मक वोट देने की व्यवस्था जल्द करने की आवश्यकता है।
देश की सत्ताधारी पार्टी कांग्रेस की एक ही व्यक्ति कुछ सालों से निर्विरोध अध्यक्ष बन रही है। जिस घर रुपी कांग्रेस पार्टी में ही लोकतंत्र कभी नहीं रहा, वह घर के बाहर के विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का लगातार गला घोंटने पर आमादा रहती है। जब तक दलों के आंतरिक चुनाव पूर्ण शुचिता से चुनाव आयोग के नियंत्रण में नहीं होंगे, तब तक सारे चुनाव सुधार निरर्थक ही सिद्ध होंगे। क्या कांग्रेस, भाजपा तथा अन्य दलों के अध्यक्षों का चुनाव, चुनाव आयोग करायेगा तो नतीजे न केवल शुद्ध होंगे बल्कि चौंकाने वाले भी हो सकते हैं। लेकिन, ऐसी व्यवस्था से गांधी परिवार की जागीरदारी कांग्रेस से समाप्त हो जाएगी और भाजपा हाईकमान के चंगुल से स्वतंत्र हो जाएगी। क्योंकि हाईकमान के लिए पार्टी विद ए डिफरेंस वाली भाजपा में संसदीय दल अध्यक्ष का नया-अनोखा पद सृजित कर दिया गया।
इसके अतिरिक्त दलों के चंदों का तिमाही या छमाही लेखा-जोखा अखबारों में व्यावसायिक कम्पनियों की तरह प्रकाशित कराने के विषय पर दलों को अपने पाक-साफ न होने का अटूट भरोसा क्यों हैं? क्योंकि गड़बड़ी की संभावना प्रबल है। संविधान की भावना के खिलाफ लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव अलग-अलग कराने की परंपरा इंदिरा गांधी ने अपने फायदे के लिए शुरु कर दी, जो आज चुनाव आयोग के लिए सबसे बड़ा सिरदर्द बन चुका है। अब प्रत्येक 6 माह या प्रत्येक महीने कोई न कोई चुनाव होता रहता है।
दोनों राष्ट्रीय दल महिलाओं के 33 प्रतिशत आरक्षण के लिए जी-जान लगा देने की नौटंकी करते हैं। परन्तु दोनों ही 33 प्रतिशत महिलाओं को अपना प्रत्याशी क्यों नहीं बनाते, दोनों को रोकता कौन है? केवल एक चीज, नीयत। नीयत ठीक नहीं है, दोनों राजनीतिक दलों की ही नहीं, बल्कि पूरे तंत्र के अधिकतर जिम्मेदार लोगों की। देश की अधिकांश समस्या नेता और नीति नहीं, बल्कि नेताओं की खराब नीयत है। धनबल नहीं कम होने का एक और कारण ग्राम पंचायत स्तर पर दलों के संगठन का शून्य होना है, जबकि सबसे अधिक वोट पोल वहीं से होते हैं। अत: गांवों के वोटों की जंग को जीतने के लिए उम्मीदवार साड़ी-कपड़े, शराब और नकद पैसों का सहारा लेते हैं।
धनबल को एक और तरीके से समाप्त किया जा सकता है, वह ऐसे कि चुनावों में खड़े सभी प्रत्याशियों को चुनाव आयोग अपने खर्चे से साझे मंच की ऐसी व्यवस्था करे जिससे सभी प्रत्याशी अपना-अपना प्रचार कर सकें। चुनाव आयोग सभी प्रत्याशियों के विचारों-चुनावी घोषणाओं का एक साझा पत्रक या फोल्डर भी अपने खर्चे पर बंटवा सकता है, इससे सभी प्रत्याशियों को कार्यकर्ताओं की व्यवस्था करने की चिन्ता से भी कुछ निजात मिलेगी।
चुनाव संबंधी अपराधों के लिए भारतीय दंड संहिता में 171 (क) से 171 (झ) में सजा का प्रावधान हैं। चुनाव सुधार के लिए 1972 में संयुक्त संसदीय समिति 1975 में तारकुन्डे समिति तथा 1990 में दिनेश गोस्वामी समिति का गठन किया गया था। गोस्वामी समिति ने संस्तुति की थी कि राज्य चुनाव का खर्च वहन करे। इस विषय में 1998 में गठित इन्द्रजीत गुप्त समिति कि सिफारिशों का विशेष महत्व है। गुप्त समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि राजनीतिक दल लोकतंत्र के संचालन में विशेष भूमिका निभाते हैं, इसलिए दलों को चुनावों में खर्च करने के लिए धन तथा अन्य संबंधित सामानों की व्यवस्था राज्य द्वारा दी जाय। मेरा मानना है कि यदि पिता को यह पता है कि बेटे को व्यवसाय करने के लिए धन न दिया तो वह घर की तिजोरी से चुरा लेगा और लोक-भय से पिता रिपोर्ट भी नहीं लिखा पायेगा।
ठीक वैसे ही जब सत्ता पाते ही पार्टियां, पार्टी के लिए सरकारी धन की लूट करके रख लेती हैं, तो, इस शर्त पर चुनाव खर्च की स्टेट फंडिंग ठीक है कि धनबल का चुनावों में प्रयोग पूरी तरह बंद हो जाय, जो की किसी क्रांति से पहले संभव नहीं लगता। जयप्रकाश नारायण और मधु लिमये जैसे विचारकों का यह तक मानना था कि राजकोष से चुनाव खर्च तभी कराए जाय जब पार्टियों के आय-व्यय सरकारी या आयोग की निगरानी में हो। कांग्रेस के बुराड़ी अधिवेशन में सोनिया गांधी भी राजकोष से व्यय का सुझाव दे चुकी हैं। लेकिन, दलों के किसी बड़े नेता ने अब तक आय-व्यय के सरकारी जांच या पारदर्शिता को गारंटीशुदा करने के विषय पर कुछ नहीं कहा है। क्या चुनाव सुधार पर दलों को कुछ नहीं कहना है?

Monday, April 18, 2011

कुहासे में भटकती न्यूज वैल्यू…



18 april 2011,
भोपाल,
अंकुर विजयवर्गीय


घड़ी रात के ग्यारह बजा रही थी। अनमने ढ़ंग से देश और विदेश का हाल जानने के लिए टीवी खोला। रिमोट का बटन दबाते हुए अंगुलिया थक गई लेकिन देश और विदेश छोड़िये जनाब अपने शहर तक की खबर नहीं मिल पाई। आप सोचेंगे ऐसा क्यूं? आइये रात 10 बजे टीवी चैनलों की बानगी पर एक नजर ड़ालें। “आपकी आवाज” पंचलाइन वाला चैनल अधनंगी वीना मलिक और बड़बोली राखी सावंत के साथ क्रिकेट पर अपना ज्ञान बखार रहा था। “सबसे तेज” पंचलाइन के साथ चलने वाला चैनल किसी अवार्ड फंक्शन में चल रहा बदन दिखाऊ डांस प्रसारित कर रहा था। देश का एक महान चैनल जो दो महान पत्रकारों के नेतृत्व में “खबर हर कीमत पर” वाली पंचलाइन के साथ चलता है खबर तो नहीं हां कॉमेड़ी हर कीमत पर जरूर दिखा रहा था। जब इन चैनलों का ये हाल हो तो अन्य चैनल क्या दिखा रहे होंगे इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। टीआरपी की अंधी दौड़ में चैनल खबरों को छोड़कर बाकी सब कुछ दिखा रहे हैं। पर आखिर क्यूं? सिर्फ टीआरपी के लिए।


निश्चित ही मीडिया का विस्तार सभी ओर तेजी से हो रहा है। अखबारों की संख्या और उनकी प्रसार संख्या में बहुमुखी बढ़ोत्तरी हुई है। रेडियों स्टेशनों की संख्या और उनके प्रभाव-क्षेत्रों के फैलाव के साथ-साथ एफ़एम रेडियो एवं अन्य प्रसारण फल-फूल रहे हैं। स्थानीय, प्रादेशिक और राष्ट्रीय चैनलों की संख्या भी बहुत बढ़ी है। यह सूचना क्रांति और संचार क्रांति का युग है, इसलिए विज्ञान और तकनीक के विकास के साथ इनका फैलाव भी स्वाभाविक है। क्योंकि जन-जन में नया जानने की उत्सुकता और और जागरूकता बढ़ी है।

यह सब अच्छी बात है, लेकिन चौंकाने वाली और सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि टीवी चैनलों में आपसी प्रतिस्पर्धा अब एक खतरनाक मोड़ ले रही है। अपने अस्तित्व के लिए और अपना प्रभाव-क्षेत्र बढ़ाने के लिए चैनल खबरें गढ़ने और खबरों के उत्पादन में ही लगे हैं। अब यह प्रतिस्पर्धा और जोश एवं दूसरों को पछाड़ाने की मनोवृत्ति घृणित रूप लेने लगी है। अब टीवी चैनल के कुछ संवाददाता दूर की कौड़ी मारने और अनोखी खबर जुटाने की उतावली में लोगों को आत्महत्या करने तक के लिए उकसाने लगे हैं। आत्महत्या के लिए उकसाकर कैमरा लेकर घटनास्थल पर पहुंचने और उस दृश्य को चैनल पर दिखाने की जल्दबाजी तो पत्रकारिता नहीं है। इससे तो पत्रकारिता की विश्वसनीयता ही समाप्त हो जायेगी। पर क्या करें बात तो सनसनी और टीआरपी की है। खबरों का उत्पादन अगर पत्रकार करें तो यह दौड़ कहां पहुंचेगी? सनसनीखेज खबरों के उत्पादन की यह प्रवृत्ति आजकल कुछ अति उत्साहित और शीघ्र चमकने की महत्वाकांक्षा वाले पत्रकारों में पैदा हुई है। प्रतिस्पर्धा करने के जोश में वे परिणामों की चिंता नहीं करते। ऐसे गुमराह पत्रकार कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं। पूरे परिवार को आत्महत्या के लिए उकसाना या रेहडीवालों को जहर खाने की सलाह देना अथवा भावुकता एवं निराशा के शिकार किसी व्यक्ति को बहुमंजिला इमारत से छलांग लगाने के लिए कहना और ऐसे हादसे दर्शाने के लिए कैमरा लेकर तैयार रहना स्वस्थ पत्रकारिता और इंसानियत के खिलाफ है।


इन दिनों कुछ खबरिया चैनल मिथक कथाओं को ऐसे पेश करते नजर आते हैं जैसे वे सच हों। वे उसे आस्था और विश्वास का मामला बनाकर पेश करते हैं। खबर को आस्था बना ड़ालना प्रस्तुति का वही सनसनीवादी तरीका है। सच को मिथक और मिथक को सच में मिक्स करने के आदी मीडिया को विजुअल की सुविधा है। दृश्यको वे संरचना न कहकर सच कहने के आदी हैं। यही जनता को बताया जाता है कि जो दिखता है वही सच है। सच के निर्माण की ऐसी सरल प्रविधियां पापुलर कल्चर की प्रचलित परिचित थियोरीज के सीमांत तक जाती हैं जिनमें सच बनते-बनते मिथक बन जाता है। मिथक को सच बनाने की एक कला अब बन चली है। अक्सर दृश्य दिखाते हुए कहा जाता है कि यह ऐसा है, वैसा है। हमने जाके देखा है। आपको दिखा रहे हैं। प्रस्तुति देने वाला उसमें अपनी कमेंटरी का छोंक लगाता चलता है कि अब हम आगे आपको दिखाने जा रहे हैं... पूरे आत्मविश्वास से एक मीडिया आर्कियोलॉजी गढ़ी जाती है, जिसका परिचित आर्कियोलॉजी अनुशासन से कुछ लेना-देना नहीं है। इस बार मिथक निर्माण का यह काम प्रिंट में कम हुआ है, इलैक्ट्रानिक मीडिया में ज्यादा हुआ है। प्रस्तुति ऐसी बना दी जा रही है कि जो कुछ पब्लिक देखे उसके होने को सच माने।

जबसे चैनल स्पर्धात्मक जगत में आए हैं तबसे मीडिया के खबर निर्माण का काम कवरेज में बदल गया है। चैनलों में, अखबारों में स्पर्धा में आगे रहने की होड़ और अपने मुहावरे को जोरदार बोली से बेचने की होड़ रहती है। ऐसे में मीडिया प्रायः ऐसी घटना ही ज्यादा चुनता है जिनमें एक्शन होता है। विजुअल मीडिया और अखबारों ने खबर देने की अपनी शैली को ज्यादा भड़कदार बनाया है। उनकी भाषा मजमे की भाषा बनी है ताकि वे ध्यान खींच सकें। हर वक्त दर्शकों को खींचने की कवायद ने खबरों की प्रस्तुति पर सबसे ज्यादा असर डाला है। प्रस्तुति असल बन गई है। खबर चार शब्दों की होती है, प्रस्तुति आधे घंटे की, दिनभर की भी हो सकती है

लोकतांत्रिक समाज में मीडिया वास्तव में एक सकारात्मक मंच होता है जहां सबकी आवाजें सुनी जाती हैं। ऐसे में मीडिया का भी कर्तव्य बन जाता है वह माध्यम का काम मुस्तैदी से करे। खबरों को खबर ही रहने दे, उस मत-ग्रस्त या रायपूर्ण न बनाये। ध्यान रखना होगा कि समाचार उद्योग, उद्योग जरूर है लेकिन सिर्फ उद्योग ही नहीं है। खबरें प्रोडक्ट हो सकती हैं, पर वे सिर्फ प्रोडक्ट ही नहीं हैं और पाठक या दर्शक खबरों का सिर्फ ग्राहक भर नहीं है। कुहासे में भटकती न्यूज वैल्यू का मार्ग प्रशस्त करके और उसके साथ न्याय करके ही वह सब किया जा सकता है जो भारत जैसे विकासशील देश में मीडिया द्वारा सकारात्मक रूप से अपेक्षित है। तब भारत शायद साक्षरता की बाकायदा फलदायी यात्रा करने में कामयाब हो जाए और साक्षरता की सीढ़ी कूदकर छलांग लगाने की उसे जरूरत ही न पड़े। लेकिन पहले न्यूज वैल्यू के सामने खड़े गहरे सनसनीखेज खबरों के धुंधलके को चीरने की पहल तो हो।

Friday, April 15, 2011

अकल्पनीय त्रासदी




नुपुर सक्सेना
भोपाल, 15 april 2011,
MAMC IV SEM


12 मार्च की अकल्पनीय त्रासदी
ले डूबी परिष्कृत जापान को
साथ ले गई हजारों को
हजारों सवाल छोड़ चली,

पेट अभी भरा नहीं
ग्रसित अभी हजारों हैं,
मिशन अभी अधूरा है
इरादे कुछ नेक नहीं,

परमाणु ऊर्जा पर उठी उंगलियां
पड़ी महंगी देशवासियों पर,
जो विध्वंस हुआ इसका
जहरीला हुआ महासागर का पानी भी.

एहसास हुआ न राष्ट्र बल्कि
हो जाएगी आत्महत्या समूचे विश्व की
अब वक्त हो चला आएं परमाणु युग को खत्म करने की
12 मार्च की अकल्पनीय त्रासदी ले डूबी परिष्कृत जापान को

Friday, April 8, 2011

निगाहें

-अंकुर विजयवर्गीय
स्टेशन की सीढियां चढ़ते हुए
हर रोज़
रास्ता रोक लेती हैं
कुछ निगाहें
अजीब से सवाल करती हैं
और मैं
नज़रें बचाते हुए
हर बार की तरह
आगे बढ़ जाता हूं
ऐसा लगता है
जैसे एक बार फिर
ईमान गिरवी रख कर भी
अपना सब कुछ बेच आया हूं
और किसलिए
चंद सिक्कों की खातिर
क्यूं नहीं जाता
मेरा हाथ
अपनी जेब की तरफ
और
क्यूं नहीं निकलती उसमे से
कुछ चिल्लर
जो दबी पड़ी है
हजार के नोटों के बीच में
ठीक वैसे ही
जैसे
मेरा मन दबा है
उन निगाहों के बोझ से
लोगों की हिकारत भरी नज़रों के बोझ से
अनजाने से डर के बोझ से
और शायद
अपनी जेब हल्की होने के बोझ से
क्या कभी ऐसा कर पाऊंगा
बिना डरे
बिना सोचे
बिना झिझके
चंद सिक्के
चुपचाप वहां रख पाऊंगा
पता नहीं
शायद
कभी ये सब सच हो जाये
या फिर
सपना, सपने में ही मर जाये…

निगाहें

-अंकुर विजयवर्गीय
स्टेशन की सीढियां चढ़ते हुए
हर रोज़
रास्ता रोक लेती हैं
कुछ निगाहें
अजीब से सवाल करती हैं
और मैं
नज़रें बचाते हुए
हर बार की तरह
आगे बढ़ जाता हूं
ऐसा लगता है
जैसे एक बार फिर
ईमान गिरवी रख कर भी
अपना सब कुछ बेच आया हूं
और किसलिए
चंद सिक्कों की खातिर
क्यूं नहीं जाता
मेरा हाथ
अपनी जेब की तरफ
और
क्यूं नहीं निकलती उसमे से
कुछ चिल्लर
जो दबी पड़ी है
हजार के नोटों के बीच में
ठीक वैसे ही
जैसे
मेरा मन दबा है
उन निगाहों के बोझ से
लोगों की हिकारत भरी नज़रों के बोझ से
अनजाने से डर के बोझ से
और शायद
अपनी जेब हल्की होने के बोझ से
क्या कभी ऐसा कर पाऊंगा
बिना डरे
बिना सोचे
बिना झिझके
चंद सिक्के
चुपचाप वहां रख पाऊंगा
पता नहीं
शायद
कभी ये सब सच हो जाये
या फिर
सपना, सपने में ही मर जाये…

आज माँ ने फिर याद किया


-अंकुर विजय
भूली बिसरी चितराई सी
कुछ यादें बाकी हैं अब भी
जाने कब माँ को देखा था
जाने उसे कब महसूस किया
पर , हाँ आज माँ ने फिर याद किया ।।।

बचपन में वो माँ जैसी लगती थी
मैं कहता था पर वो न समझती थी
वो कहती की तू बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
मुझे तुझकों बडा बनाना है
सबसे आगे ले जाना है
पर मैं तो प्यार का भूखा था
पैसे की बात न सुनता था
वो कहता थी मैं लडता था
वो जाती थी मैं रोता था
मैं बडा हुआ और चेहरा भूल गया
माँ की आंखों से दूर गया
सुनने को उसकी आवाज मै तरस गया
जाने क्यूं उसने मुझको अपने से दूर किया
पर, हाँ आज माँ फिर ने याद किया ।।।

मैं बडा हुआ पैसे लाया
पर माँ को पास न मैने पाया
सोचा पैसे से जिंदगी चलती है
वो माँ के बिना न रूकती है
पर प्यार नहीं मैंने पाया
पैसे से जीवन न चला पाया
मैंने बोला माँ को , अब तू साथ मेरे ही चल
पैसे के अपने जीवन को , थोडा मेरे लिए बदल
मैंने सोचा , अब बचपन का प्यार मुझे मिल जायेगा
पर माँ तो माँ जैसी ही थी
वो कैसे बदल ही सकती थी
उसको अब भी मेरी चिंता थी
उसने फिर से वही जवाब दिया
की तू अब भी बच्चा है
जीवन को नहीं समझता है
ये जिंदगी पैसों से चलती है
तेरे लिए ये न रूकती है
सोचा कि मैंने अब तो माँ को खो ही दिया
पर, हाँ आज माँ ने फिर याद किया ।।।

क्या जंतर मंतर बन पायेगा तहरीर चौक ?

-अंकुर विजयवर्गीय

कल रात एक पत्रकार मित्र का फोन आया। बेहद हड़बड़ाये हुए थे। पत्रकारिता की भाषा में कहें तो पूरे पगलाये हुए थे। फोन उठाते ही दुआ सलाम के बिना ही बोले कि “अंकुर बाबू कल जंतर मंतर चलना है। अन्ना हजारे हमारे जैसे लोगों के लिए अनशन पर बैठे हैं। हमें उनका समर्थन जरूर देना होगा। गोली मारो पत्रकारिता को और आओं अब समाज सेवा करते हैं।

” चूंकि मित्र हमसे उम्र में बड़े थे इसलिए फोन पर तो उन्हें हाँ कहने के अलावा कुछ नहीं कह पाया, लेकिन फोन रखते हुए उन्हें मन ही मन जमकर गालियां दी। सोचा साला कल फालतू की छुट्टी करनी पड़ जायेगी। यहां खुद की तो सेवा हो नहीं पाती, समाज की क्या खाक करेंगे। खैर, रात काटकर सुबह उनके फोन का इंतजार करते हुए जब बहुत समय बीत गया तो सोचा फोन कर ही लूं। पता नहीं जिंदा भी है या मर गया होगा। फोन उठाते ही उन्होने झट से इतना ही बोला कि “भाई आज कुछ जरूरी काम आ गया है, इसलिए आज नही जा पाऊंगा। रविवार को चलेंगे।” उनकी बात सुनकर हमने भी अपना बस्ता उठाया और निकल लिए दफ्तर की तरफ। मगर रास्ते भर अपने आप से एक सवाल पूछता रहा। क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा?

अन्ना हजारे क्या कर रहे हैं? क्यूं कर रहे हैं? किसलिए कर रहे हैं? किसके लिए कर रहे हैं? और क्या हमें उनका साथ देने के लिए जंतर मंतर पर होना चाहिए? ऐसे सवाल अगर मेरे जैसे करोड़ों लोगों से पूछा जाये तो जानते है कि जवाब क्या होगा। बाबा पगलाए हुए है, हमे उनसे क्या लेना देना, हम क्यूं इस पचड़े में पड़े, भाई समय नहीं है, हजारे कौन सा हमारा रिश्तेदार है। ये चंद जवाब है। कुछ ओर लोगों से पूछ लीजिये। शायद कुछ नया जवाब भी मिल जायेगा।

ऐसा नहीं है कि अन्ना कुछ गलत कर रहे हैं या भारत की जनता कुछ गलत सोच रही है। गलत है तो हमारी निजी परिस्तिथियां। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने परिवार का पेट भरने के लिए काम करने पर तो मजबूर करती है लेकिन हम लोगों के लिए भूख हड़ताल पर बैठे अन्ना हजारे के लिए सोचने का समय भी नहीं देती। वो परिस्तिथियां जो हमें अपने बच्चों का भविष्य संवारने की तो याद दिलाती हैं लेकिन देश के भविष्य के लिए अनशन कर रहे अन्ना का समर्थन करने की सोच मन में भी नहीं आनी देती। वो परिस्तिथियां जो बीमारी से पीडि़त अपनी पत्नी का इलाज कराने का तो ध्यान दिलाती हैं लेकिन भ्रष्टाचार नाम की बीमारी से परेशान देश के बारे में सोचने का ख्याल भी दिल और दिमाग में नहीं लानी देती। और अगर यही परिस्तिथियां चलती रही तो मेरा सवाल कि क्या जंतर मंतर, तहरीर चौक बना पायेगा, भी इन्ही परिस्तिथियों की भेंट चढ़ जायेगा।

अन्ना हजारे जिस जनलोकपाल बिल की बात कर रहे हैं उस पर बहुत लोग अपना ज्ञान बांट चुके हैं। उस बिल की सफलता के लिए सबसे आवश्यक तत्व है जनता। जिस जनता के लिए हजारे ये सब कर रहे हैं आखिर वो जनता कहां है। आप ये भी जान लीजिये कि जंतर मंतर पर मौजूद अधिकतर लोग वो हैं जो या तो दिल्ली विश्वविद्यालय और जामिया मिल्लिया जैसे संस्थानों के तथाकथित बौद्धिक और विद्रोही किस्म के लोग हैं या फिर जनता की नजरों में समाज सेवा नाम का फालतू काम करने वाले लोग। लेकिन देश को भ्रष्टाचार से मुक्ति दिलाने के लिए अन्ना हजारे जिस आम जनता के लिए ये बिल पास कराना चाहते हैं वो आम जनता कहां है। आखिर वो खामोश क्यूं है? क्यूं भारत की जनता भी मिस्र की तरह नहीं हो जाती? क्यूं जंतर मंतर तहरीर चौक नहीं बन जाता?

अगर इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने में लगेंगे तो आप पायेंगे कि भारत में इस तरह के अनशनों को हमेशा राजनीतिक स्टंट के तौर पर ही देखा जाता है। हालांकि लोग इन अनशनों को गांधी की परंपरा के तौर पर देखते हैं लेकिन उन लोगों को ये नहीं भूलना चाहिए कि गांधी का जीवन भी देश सेवा के साथ राजनीति के इर्द-गिर्द ही घूमता था। तहरीर चौक से अगर आप हजारे के अनशन की तुलना करते हैं तो ये महसूस होता है कि दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। तहरीर चौक में मौजूद लोगों में शायद ही कोई बड़ी हस्ती थी। वो लड़ाई आम लोगों के द्वारा आम लोगों के लिए ही लड़ी गई थी। वहां मंच पर बैठे हुए समाज सेवकों की शक्ल में राजनेता नहीं थे जो बाबा रामदेव जैसे राजनीति में उतरने की इच्छा रखने वाले लोगों को तो मंच पर जगह देते हैं लेकिन भाजपा या कांग्रेस के नेताओं से उन्हें नफरत है। तहरीर चौक ने लोकतंत्र का असली मतलब विश्व को समझाया है। लेकिन जंतर मंतर में मामला बिल्कुल अलग है। यहां कई ऐसे चेहरों को पहले इकठ्ठा किया गया है जो मीडिया प्रेमी है और हर वक्त मीडिया की नजरों में रहते हैं। हजारों की संख्या में यहां ऐसे भगवाधारी लोग भी शामिल है जो गाहे बगाहे नक्सलियों का समर्थन करते हैं।

अन्ना का मानना है कि लोकतंत्र में जनता जो भी चाहती है उसकी अनदेखी उसका प्रतिनिधि नहीं कर सकता। सफल एवं सार्थक लोकतंत्र के लिए जन और जनप्रतिनिधियों में सामंजस्य की आवश्यकता है। उम्मीद की जा सकती है कि 1965 की जंग में पाकिस्तान के दांत खट्टे कर चुके अन्ना कि अपनी ही सरकार के खिलाफ ये जंग अंजाम तक पहुंच पायेगी।

क्रमश:- इस शनिवार ओर रविवार को मेरी तो छुट्टी है और मेरे दोस्त का फोन आये या न आये, लेकिन मैं तो जंतर मंतर जा रहा हूं। शायद हम लोगों के द्वारा उठाया गया कदम ही भारत को भ्रष्टाचार की इस लाइलाज बीमारी से मुक्त करने में कारगार साबित हो। आइये अन्ना का साथ दें, उनकी अच्छी सोच का साथ दे और उनके विचारों का साथ दें लेकिन मंच पर चिपक कर बैठे समाज सेवक टाइप के राजनेताओं का नहीं।